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अवध में नवाबों के समानांतर तवायफों का भी एक इतिहास

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कृष्ण प्रताप सिंह

अवध में नवाबों के समानांतर तवायफों का भी एक इतिहास है। हालांकि वह अभी बहुत पुराना नहीं पड़ा है, लेकिन उनकी कंचनियां, चूनेवालियां, नागरानियां व डेरेवालियां आदि सभी श्रेणियों का अलग-अलग इतिहास है। इस इतिहास के जानकारों के अनुसार सूबे में तवायफों के आने का सिलसिला 1738 में तत्कालीन मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीले’ के वक्त नादिरशाह के बर्बर हमले से दिल्ली के दहल जाने के बाद शुरू हुआ। नादिरशाह की निर्दयता से आक्रांत दिल्ली के साहित्यकार व कलाकार त्राहिमाम करते हुए अपने घर-बार छोड़कर इधर-उधर भागने लगे तो तवायफों ने लखनऊ का रुख किया। यह और बात है कि उन्हें वहां भी तत्काल कोई आश्रय नहीं मिला और वे फैजाबाद व जौनपुर वगैरह चली जाने को मजबूर हुईं।

फिर तो बुरे दिनों के खात्मे के लिए उन्हें नवाब शुजाउद्दौला (1754-1775) के वक्त तक इंतजार करना पड़ा। हां, शुजा का सहारा मिला तो वे फैजाबाद स्थित उनकी नई नवेली राजधानी की रातों को तो अपने घुंघरुओं की रुनझुन से गुंजाने ही लगीं, उनकी यात्राओं में भी साथ जाने लगीं। यहां तक कि युद्ध अभियानों में भी। लेकिन उनके बेटे आसफउद्दौला द्वारा गद्दी पर बैठते ही राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दिए जाने के बाद वे एक और हिजरत को मजबूर हो गईं।

अलबत्ता, आसफउद्दौला की मेहरबानी से लखनऊ में उनका सिक्का जमा तो वह कमोबेश तब तक जमा रहा जब तक नवाबी ही इतिहास में नहीं समा गई। यहां जान लेना चाहिए कि एक कंचनियां श्रेणी की तवायफों को छोड़कर किसी श्रेणी की तवायफें वेश्या नहीं बनती थीं यानी वे अपने सतीत्व का सौदा नहीं करती थीं और विद्योत्तमा, कोकिलकंठी, वाकपटु व नीतिनिपुण रूप धारणकर जीविका अर्जित करती थीं। इसके लिए उनका नृत्य, संगीत, गायन, अंगसंचालन और अभिनय में दक्ष होना जरूरी था लेकिन उनके उस्ताद उन्हें सबसे पहले फूहड़ और अश्लील बर्ताव से परहेज करना सिखाते थे। यह परहेज सीख लेने के बाद तवायफें अपनी शालीनता से महफिलें लूटने लगतीं तो उनके उस्तादों की छाती भी गर्व से फूल जाया करती।

कई तवायफें अपने उसूलों की इतनी पाबंद होतीं कि महफिलों में मुजरा भी एक जगह बैठकर ही किया करतीं। कोई कितना भी अमीर या रईस क्यों न हो, उसको रिझाने या बख्शीश वगैरह पाने के लिए न लटके-झटके दिखातीं, न उठकर उसके पास जातीं। जिन भी महाशयों को उन्हें कुछ देना होता, वे चुपचाप उसे उन तकियों और मसनदों के नीचे छोड़ जाते, जो फर्श पर उनके बैठने के लिए बिछे कालीनों व सफेद चादरों पर लगे होते। मुजरा सुनने अमीर भी आते और गरीब भी। इसलिए इसका खास खयाल रखा जाता कि किसने क्या या कितना दिया है, मुजरा करने वाली तवायफ को छोड़ किसी और को इसकी खबर न हो। सुनने आए सारे कद्रदान पान व इलायची खाकर महफिल से चले जाते, तब तकियों व मसनदों के नीचे से उनकी छोड़ी चीजें निकाली जातीं। इन कद्रदानों और तवायफों के बीच खुल्लमखुल्ला ‘लेन-देन’ तो बहुत बाद तब शुरू हुआ, जब मुजरे के बुरे दिन आए।

इन दिनों से पहले नवाबों की महफिलों में तवायफों की हाजिरी उनकी प्रतिष्ठा व गरिमा का सबब हुआ करती थी और उनके कोठे तहजीब व तमीज के मदरसे कहलाते थे। इन ‘मदरसों’ में नवाब तो नवाब, अनेक रईस व बड़े अंग्रेज अधिकारी भी अपनी संतानों को शिष्टाचार सीखने के लिए भेजा करते थे। कानपुर के वे नामचीन जेवर व्यवसायी भी, जिनके जेवरों, खासकर नौलखा हारों, की हैदराबाद-दकन तक में मांग थी।

कई बार हैदराबाद की बेगमें खुद अपनी पसंद के जेवर खरीदने कानपुर आतीं। जब भी वे तशरीफ लातीं, एक ओर तो इन व्यवसायियों की उम्मीदें हरी हो जातीं, लेकिन दूसरी ओर वे डरे-डरे से रहते कि कहीं उनकी ओर से बेगमों की शान में कोई ऐसी गुस्ताखी न हो जाए, जो उन्हें नागवार गुजरे और सारे किए कराए पर पानी फेर दे। इसलिए उन्हें अपने जिन बेटों को अपनी विरासत संभालने के लिए तैयार करना होता, उनको किशोरावस्था में ही लखनऊ की तवायफों के पास भेज देते थे। ये तवायफें उन्हें सिखा-पढ़ा कर इस लायक बनाती थीं कि वे बेगमों के साथ तहजीब और तमीज से पेश आ सकें।

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