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सारे पारिवारिक रिश्ते फांसी के फंदे जैसे लगने लगे हैं

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डा सलमान अरशद

सहज मानवीय सम्बन्धों पर ढेर सारे किन्तु परन्तु चढ़ बैठे हैं, हर आदमी तनाव के ज्वालामुखी पर बैठा है, किसी को पति, किसी को पत्नी तो किसी को और किसी से शिकायत है जो इस तनाव की वजह लगता है, सारे पारिवारिक सम्बंध फांसी के फंदे जैसे लगने लगे हैं।

 समृद्धि के पहाड़ बना लेने के बाद भी सुकून कहीं नहीं हैं। कई लोग जो अभी दो या तीन दहाई पहले किसी झोपड़ी में सो रहे थे, खेतों में काम कर रहे थे, उस दौर के “सुखद एहसास” को याद कर मुस्कुराते हैं। 

अगर ध्यान से देखा जाए तो हमारे जीवन से बस एक चीज़ ग़ायब हो गई है, वो है सुरक्षाबोध ! 

असुरक्षाबोध पूँजीवादी लूट का बेहद सफल मानसिक हथियार है, इस एहसास में आप कम तनख्वाह पर ज़्यादा काम करते हैं, ओवरटाइम करते हैं, छुट्टियां नहीं लेते, और पैसा और पैसा वाली दौड़ में शामिल होकर बेचैन और पागल कर देने वाली दौड़ में शामिल हो जाते हैं। ठहरना भी ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी है, किसी के आलिंगन में एक पल को खो जाना जीवन को कविता बना सकता है, एक बच्चे के गाल भर चूम लेने से आपके भीतर का बच्चा खिलखिला सकता है, ये सब आप भूल जाते हैं। 

असुरक्षाबोध सम्बन्धों को नाग बनकर डसने लगता है, रिश्ते कभी जंजीर तो कभी बोझ लगने लगते हैं, तो कभी हर हाल में रिश्ते बना लेने या बनाये रखने की चाहत में आप सुकून ढूढ़ते हैं, लेकिन बंधन, अगर बंधन का एहसास करा दे तो फिर आप छटपटाने लगते हैं। ऐसे में आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर होने की स्थिति ज़िन्दगी को और मुश्किल बना देती है। 

इस धरती पर और मानव के सृजनलोक में आपके ज़रूरत की हर चीज़ पर्याप्त से भी ज़्यादा है, लेकिन मुनाफ़े की दुनिया इस पर इस क़दर काबिज़ है कि आप चाह कर भी न तो अपनी ज़रूरतें पूरी कर पाते हैं न औरों की। 

पूँजीवादी दुनिया चाहे जितनी समृद्ध हो, बहुसंख्यक को विपन्न रखना उसकी व्यवस्थागत मज़बूरी है। 

तो करें क्या ! 

आसपास के लोगों से वफ़ादारी, सुरक्षा, धर्म, जाती, नस्ल और लिंग के आधार पर लड़ने के बजाय समस्या के मूल को पहचानिए, जानिए की सामुहिकता में ही जीवन है और इसके विपरीत सोच, सृजन या व्यवस्था मृत्यु का हाईवे। 

सोचिएगा तो समाधान दिखाई देगा ! 

~ Dr. Salman Arshad

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