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यूएपीए : काले क़ानून का काला इतिहास

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पुष्पा गुप्ता

      हमारे देश का संविधान कहता है कि राज्य हर व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करेगा। देश का नागरिक होने की हैसियत से हर व्यक्ति को मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं, जिनका हनन होने की सूरत में कोई भी व्यक्ति न्यायालय में गुहार लगा सकता है। पर संविधान में लिखे गये ये शब्द महज़ काग़ज़ी प्रतीत होते हैं।

        बात करें आज के दौर की तो मौजूदा सरकार धड्डले से हमारे इन अधिकारों को छीनने में लगी है। ज़ाहिर-सी बात है 75 वर्षों से सत्ता में आयी सभी सरकारों ने हमारे अधिकारों को छीनने का काम किया है, पर मोदी सरकार को इसमें महारत हासिल है।

         आज मोदी सरकार अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को दबा देना चाहती है। इसके लिए उन्हें अलग से कोई तानाशाही लागू करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि भारत का संविधान ही उनको ये अधिकार देता है कि वो जनता के अधिकारों को और अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को कुचल सके। कैसे आइए जानते हैं!

आपने ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) क़ानून यानी यूएपीए का नाम ज़रूर सुना होगा।

         आजकल यह काफ़ी प्रचलित है। प्रचलित इसलिए नहीं कि इससे देश की कुछ बेहतरी हो रही है, बल्कि इसलिए कि मोदी सरकार यूएपीए लगाकर बिना सबूत के भी किसी को सालों तक क़ैद करके रख सकती है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है उमर ख़ालिद की रिहाई की अर्ज़ी का ख़ारिज किया जाना। उमर ख़ालिद पर कथित तौर पर 2020 के दिल्ली दंगो का “मास्टरमाइण्ड” होने का आरोप है। जीएन साईबाबा पर भी यूएपीए लगाकर उन्हें सालों से जेल में रखा गया है।

         इसके साथ ही शरजील इमाम, सुधा भारद्वाज, वरवर राव, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी इसी क़ानून के दम पर कई सालों तक क़ैद किया है। स्टेन स्वामी की भी मृत्यु इसी कारण हुई। कश्मीर के पत्रकार ख़ुर्रम परवेज़ भी इसी क़ानून के तहत जेल में बन्द हैं। इसी तरह दिल्ली के दंगों के सिलसिले में यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किये कुल 22 लोगों में से तीन छात्र नेताओं – देवांगना कलिता, आसिफ़ इक़बाल तन्हा और नताशा नरवाल – को 13 महीने जेल में रहने के बाद ज़मानत मिली।

        आलम यह है कि सिर्फ़ ट्विटर पर चन्द शब्द लिखने पर भी यूएपीए लगा दिया जाता है। ये कोई मज़ाक़ नहीं, हमारे देश की सच्चाई है। अभी ये फ़ेहरिस्त और लम्बी है। ये सब लोग किसी न किसी रूप में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ जनता के हक़ की आवाज़ उठा रहे थे और उन्हें इसी अपराध के लिए जेल में डाल दिया गया।

आइए अब जानते हैं क्या है ये यूएपीए और उसका इतिहास जिसके तहत किसी को भी देशद्रोही घोषित किया जा सकता है।

       पहले हम देखेंगे कि संविधान में इस तरह के काले क़ानून बनाने के लिए क्या प्रावधान है और आज़ादी के बाद से आज तक यह किस तरह प्रभावशाली रहा है। ‘कैसा है ये लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है’ पुस्तक में लेखक बताते हैं – “संविधान में अनुच्छेद 22 में मौजूद प्रावधानों पर निगाह डालते हैं जिनके तहत कुछ दशाओं में गिरफ़्तारी और निरोध से संरक्षण का दावा किया गया है।

      लेकिन हास्यास्पद तथ्य यह है कि इसी अनुच्छेद में राज्य को निरोधक नज़रबन्दी (preventive detention) सम्बन्धित क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक मंज़ूरी भी दी गयी है। इसी संवैधानिक मंज़ूरी का जमकर लाभ उठाते हुए संसद और राज्य विधायिकाओं ने पिछले 75 वर्षों के दौरान तमाम काले क़ानूनों की झड़ी लगायी है जिनका इस्तेमाल राज्यसत्ता द्वारा बड़े पैमाने पर नागरिक और जनवादी अधिकारों का हनन करने के अलावा जनान्दोलनों का दमन करने में भी किया गया।

       अभी मूल संविधान की स्याही भी नहीं सूखी थी जब संसद ने निरोधक नज़रबन्दी क़ानून 1950 (Preventive Detention Act 1950) को पारित किया जो 1969 तक प्रभावी रहा। इसके पश्चात 1971 में ‘मीसा’ लाया गया जो 1975 से 1977 तक प्रभावी कुख्यात आपातकाल के दौरान राज्य की नग्न तानाशाही का पर्याय बन गया। 1980 में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (National Security Act) लाया गया जो आज भी अस्तित्व में है।

       1985 में ‘टाडा’ (Terrorism and Disruptive Activities Act) लाया गया जिसका आतंकवाद से लड़ने के नाम पर जमकर दुरुपयोग हुआ। वर्ष 2002 में तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन की सरकार ने आतंकवाद से लड़ने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए ख़ूँख़ार पोटा (Prevention of Terrorism Act) पारित किया जिसका दुरुपयोग होना ही था और वही हुआ।

        वर्ष 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार ने अपनी प्रगतिशील छवि दिखाने के लिए पोटा को निरस्त किया, परन्तु बड़ी ही चालाकी से उसके काले प्रावधान ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ निवारक अधिनियम (Unlawful Activities (Prevention) Act) में डाल दिये। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में भी इस क़िस्म के काले क़ानूनों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है जैसे कि महाराष्ट्र में ‘मकोका’ और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा अधिनियम!”

        साल 1995 में टाडा और 2004 में पोटा के ख़त्म होने के बाद उसी साल यूएपीए क़ानून में महत्वपूर्ण संशोधन किया गया। पोटा के कुछ प्रावधान छोड़ दिये गये तो कुछ शब्दशः यूएपीए में जोड़ दिये गये। इसमें टेरर फ़ण्डिंग से लेकर बिना चार्जशीट दायर किये 180 दिनों तक हिरासत में रखने का प्रावधान रखा गया।

       1967 में यूएपीए, 1987 में टाडा, 1999 में मकोका, 2002 में पोटा और 2003 में गुजकोका, देश में आतंकवाद पर रोकथाम लगाने के लिए बनाये गये क़ानूनों की एक लम्बी लिस्ट रही है। मकोका और गुजकोका क्रमश: महाराष्ट्र और गुजरात सरकारों ने बनाये थे। टाडा के तहत जिन 76,036 लोगों को गिरफ़्तार किया गया, उनमें से केवल एक फ़ीसदी पर आरोप साबित हो पाये।

         ठीक इसी तरह साल 2004 में जब पोटा क़ानून ख़त्म किया गया था तब तक इसके तहत 1031 लोगों को गिरफ़्तार किया गया जिनमें केवल 18 लोगों की सुनवाई पूरी हुई और उनमें से 13 को दोषी पाया गया था।

अब बात करते हैं यूएपीए की। यूएपीए ऐक्ट के सेक्शन 15 के अनुसार भारत की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा या सम्प्रभुता को संकट में डालने या संकट में डालने की सम्भावना के इरादे से भारत में या विदेश में जनता या जनता के किसी तबक़े में आतंक फैलाने या आतंक फैलाने की सम्भावना के इरादे से किया गया कार्य ‘आतंकवादी कृत्य’ है।

         इस परिभाषा में बम धमाकों से लेकर जाली नोटों का कारोबार तक शामिल है। आतंकवाद और आतंकवादी की स्पष्ट परिभाषा देने के बजाय यूएपीए एक्ट में सिर्फ़ इतना ही कहा गया है कि इनके अर्थ सेक्शन 15 में दी गयी ‘आतंकवादी कार्य’ की परिभाषा के मुताबिक़ होंगे। सेक्शन 35 में इससे आगे बढ़कर सरकार को यह हक़ दिया गया है कि किसी व्यक्ति या संगठन को मुक़दमे का फ़ैसला होने से पहले ही ‘आतंकवादी’ क़रार दे सकती है।

राष्ट्रीय सुरक्षा और अखण्डता से जुड़ी समस्याओं का हवाला देकर साल 1967 में लाये गये यूएपीए क़ानून में कई बार संशोधन हुए हैं और हर संशोधन के साथ ये ज़्यादा कठोर होता गया है। अगस्त 2019 के संशोधन के बाद इस क़ानून को इतनी ताक़त मिल गयी कि किसी भी व्यक्ति को जाँच के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है।

      अगस्त 2019 में इस ऐक्ट में छठा संशोधन किया गया था। संशोधन के अनुसार ऐक्ट के सेक्शन 35 और 36 के तहत सरकार बिना किसी दिशानिर्देश के, बिना किसी तयशुदा प्रक्रिया का पालन किये किसी व्यक्ति को आतंकवादी क़रार दे सकती है। सरकार को अगर इस बात का ‘यक़ीन’ हो जाये कि कोई व्यक्ति या संगठन ‘आतंकवाद’ में शामिल है तो वो उसे ‘आतंकवादी’ क़रार दे सकती है। यहाँ आतंकवाद का मतलब आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देना या उसमें शामिल होना, आतंकवाद के लिए तैयारी करना या उसे बढ़ावा देना या किसी और तरीक़े से इससे जुड़ना है।

         दिलचस्प बात ये है कि ‘यक़ीन की बुनियाद पर’ किसी को आतंकवादी क़रार देने का ये हक़ सरकार के पास है न कि किसी अदालत के पास। यूएपीए की सबसे ख़तरनाक बात यही है कि बिना जुर्म बताये और जुर्म साबित किये किसी को 90 दिनों तक हिरासत (जुडिशियल कस्टडी) में रखा जा सकता है।

        अगर 90 दिनों में भी छानबीन पूरी नहीं होती है, तो इसे 180 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। साथ ही इसे कोर्ट के आदेश पर पूरी ज़िन्दगी तक बढ़ाया भी जा सकता है। जबकि दूसरे मामलों में 90 दिन तक अगर छानबीन पूरी नहीं हुई या कोई सबूत नहीं मिला तो आरोपी को छोड़ दिया जाता है। इसके साथ इस क़ानून के अन्तर्गत अभियुक्त की ही यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह यह साबित करे कि वह अपराधी नहीं है।

       यानी आतंकवादी का आरोप राज्य लगायेगा लेकिन आतंकवाद के आरोप से मुक्ति के लिए सबूत व्यक्ति को देना होगा। कुल मिलाकर सरकार को इस क़ानून के माध्यम से ऐसी शक्ति मिली हुई है कि वह किसी भी तरह की असहमति को ग़ैर-क़ानूनी बताकर उसपर आरोप लगा सके और व्यक्ति जीवनभर उसे हटाने की कोशिश करता रहे। साथ ही नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) को ऐसे मामलों की जाँच-पड़ताल का अधिकार दिया गया है, जो अब तक राज्यों की पुलिस के अधिकार क्षेत्र में रहते थे।

इस प्रकार हम पाते हैं कि संविधान ने नागरिकों को जो अतिसीमित अधिकार प्रदान भी किये हैं उनके अपहरण के प्रावधान भी संविधान में ही मौजूद हैं, तभी मोदी सरकार क़ानून सम्मत तरीक़े से ही सारे अधिकारों को छीन रही है।

        अब आँकड़ों के माध्यम से भी इस बात को पुख़्ता करते हैं कि किस प्रकार मोदी-शाह के फ़ासिस्ट राज में इस क़ानून के माध्यम से दमन चक्र चलाया जा रहा है। ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) क़ानून यानी ‘यूएपीए’ और राजद्रोह यानी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124ए के सबसे ज़्यादा मामले सिर्फ़ साल 2016 से लेकर साल 2019 के बीच दर्ज किये गये हैं।

        इनमें अकेले ‘यूएपीए’ के तहत 5,922 मामले दर्ज किये गये हैं। ये जानकारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की रिपोर्ट में दी गयी है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इस दौरान इनमें से कुल 132 लोगों के ख़िलाफ़ ही आरोप तय हो पाये हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के हवाले से यह भी पता चलता है कि सिर्फ़ 2019 में ही यूएपीए के तहत पूरे देश में 1,948 मामले दर्ज किये गये हैं।   

          आँकड़े बताते हैं कि इस साल अभियोजन पक्ष किसी पर भी आरोप साबित करने में असफल रहा जिसकी वजह से 64 लोगों को अदालत ने दोषमुक्त क़रार दिया। 2018 की अगर बात की जाये तो जिन 1,421 लोगों पर यूएपीए के तहत मामले दर्ज हुए उनमें से सिर्फ़ चार मामलों में ही अभियोजन पक्ष व्यक्ति पर आरोप तय करने में कामयाब रहा, जबकि इनमें से 68 लोगों को अदालत ने बरी कर दिया।

       वहीं उत्तर प्रदेश में बेहतर क़ानून व्यवस्था और न्यूनतम अपराध के नाम पर 2017 में योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार बनने के बाद से इस क़ानून के तहत 313 केस दर्ज हुए हैं और 1397 लोगों की गिरफ़्तारी हुई है। जबकि साल 2015 में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम के तहत सिर्फ़ छह केस दर्ज किये गये थे, जिनमें 23 लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी और गृह मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि यूएपीए के मामलों में आरोपपत्र दायर होने और जाँच पूरी होने की दर बहुत कम है।

         सितम्बर, 2020 में गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में बताया था कि साल 2016-18 के बीच यूएपीए के तहत कुल 3005 मामले दर्ज किये गये थे। इनमें कुल 3947 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था लेकिन चार्जशीट सिर्फ़ 821 मामलों में ही दायर की जा सकी थी। यानी इस दौरान महज़ 27% मामलों की जाँच ही पूरी की जा सकी थी। साल 2020 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े कहते हैं कि यूएपीए क़ानून के तहत दर्ज 95% मामलों अब तक ट्रायल नहीं हुआ है। 85% मामले ऐसे हैं जिनकी छानबीन करनी बाक़ी है।

एक अन्य रिपोर्ट में दावा किया गया है कि साल 2014 से इस तरह के 96 फ़ीसदी मामलों में सरकार और नेताओं की आलोचना को लेकर यूएपीए लगाया गया है।

इन सबसे दो बातें स्पष्ट होती हैं पहली यह कि आज फ़ासीवादी मोदी सरकार अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को दबा देना चाहती है। यही कारण है कि यूएपीए जैसे काले क़ानून को ताक़तवर बनाया गया जिसके माध्यम से दलितों, अल्पसंख्यकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आदिवासियों को सालों तक क़ैद करके रखा जा सके।

        दूसरा, आज के दौर के इन फ़ासीवादियों को अपने पूर्वज हिटलर की तरह तानाशाही लागू करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि भारत का संविधान ही उन्हें ये अधिकार देता है कि इस तानाशाही को क़ानूनी तरीक़े से लागू किया जा सके। भारतीय संविधान के उत्साही समर्थक और बुर्जुआ बुद्धजीवी संविधान का बखान करते नहीं अघाते। सतही तौर पर देखने से ये जनता को स्वतंत्रता सम्बन्धी तमाम अधिकार देते हुए प्रतीत भी होते हैं। पर जैसे ही इसकी तफ़सीलों में जाते हैं, हम पाते हैं कि दरअसल ये जनता को प्रदत्त अधिकार कम और राज्य द्वारा जनता के अधिकारों का हनन करने के अस्त्र ज़्यादा हैं और इन्हीं अस्त्रों का प्रयोग आज मोदी सरकार जनता पर बर्बर तरीक़े से कर रही है।

       पर इसके बावजूद इतिहास हमें बताता है कि जनता ने ऐसे तमाम क़ानूनों को भी अपनी एकता के क़दमों से रौंद डाला है और आज भी हमें एकजुट होकर इन फ़ासीवादियों को चुनौती देनी होगी और इनसे सवाल पूछना होगा – “किस किस को क़ैद करोगे!”

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