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ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से प्रतिगामी है या प्रगतिशील

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 कांचा आइलैया शेपर्ड

आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण के संबंध में उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ का निर्णय अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से प्रतिगामी है या प्रगतिशील, इस मुद्दे पर पूरे देश में एक बहस छिड़ी हुई है। 

गत 10 नवंबर, 2022 को ऑल बार एसोसिएशन (एबीए) एवं ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड मायनरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन (बामसेफ) द्वारा एक ऑनलाइन सेमिनार का आयोजन किया गया। सेमिनार का विचारार्थ विषय था कि न्यायपालिका व सरकार के हाथों ठगे जाने से उत्पादक ओबीसी, एससी व एसटी वर्गों को बचाने के लिए भविष्य में क्या किया जा सकता है। 

उच्चतम न्यायालय की पीठ ने तीन-दो के बहुमत से सरकार के निर्णय को सही ठहराया। दो जजों, जिनमें निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश यू. यू. ललित शामिल थे, ने अपने अलग निर्णयों में कई कठिन प्रश्न उठाए। एबीए से जुड़े वकीलों, जिनमें से कुछ याचिकाकर्ता की विधिक टीम में भी थे, का कहना था कि संविधान में कहीं भी जाति को एक ऐसी संस्था नहीं बताया गया है, जिसका उन्मूलन, जातिमुक्त और समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है। 

संविधान का अनुच्छेद 46 कहता है– “राज्य जनता के दुर्बल वर्गों, विशिष्टतः अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा व अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय व सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।”

इस तरह संविधान में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग केवल ‘अनुसूचित जाति’ शब्द के हिस्से के रूप में किया गया है। संविधान में कहीं भी शूद्रों/ओबीसी को उनकी जाति के कारण दमित वर्ग नहीं कहा गया है। उन्हें केवल ‘पिछड़े हुए नागरिकों का वर्ग’ (अनुच्छेद 16और ‘सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों का वर्ग’ (अनुच्छेद 15निरूपित किया गया है। ओबीसी आरक्षण के मामले में ‘वर्ग’ शब्द के इस्तेमाल ने सभी पार्टियों के आरक्षण-विरोधी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, मीडिया इत्यादि को वर्ग-आधारित आरक्षण की मांग करने का मौका दे दिया। इसी मांग को पूरा करने के लिए संविधान के 103वें संशोधन के जरिए ईडब्ल्यूएस को आरक्षण प्रदान किया गया और इस निर्णय पर अब उच्चतम न्यायालय ने अपनी मुहर लगा दी है। 

न्यायपालिका के अधिकांश सदस्य ऐसे किसी भी वर्ग, जिसमें सभी जातियां शामिल हों, को आरक्षण प्रदान करने के लिए इसलिए उद्यत रहते हैं क्योंकि इससे द्विज जातियों को भी लाभ होता है। आर्थिक मानदंडों पर आधारित आरक्षण से द्विज जातियों के अपेक्षाकृत कम समृद्ध सदस्यों को शिक्षा और नौकरियों में अधिक अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। जहां तक समृद्ध द्विजों का प्रश्न है वे पहले से ही राज्य तंत्र पर हावी हैं। 

संविधान के मूलभूत ढ़ांचे को परिभाषित करते समय उन प्रावधानों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए जो जाति, वर्ग, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव के निवारण की बात करते हैं। सन् 1990 के दशक की शुरूआत में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से ही वामपंथी, उदारवादी और हिंदुत्ववादी विचारक, आर्थिक मानदंडों पर आरक्षण की वकालत करते आए हैं, क्योंकि वे जान-बूझकर जाति-आधारित श्रेणीबद्ध अशिक्षा, गरीबी, असमानता, दमन और शोषण के महत्व और प्रभाव को कम करके बताना चाहते हैं। जजों व विधिवेत्ताओं द्वारा संविधान की व्याख्याओं में अधिकांशतः वर्ग पर जोर दिया जाता है। उनकी मान्यता यही है कि जाति नहीं वरन् वर्ग आरक्षण प्रदान करने का सबसे उपयुक्त आधार है।

डॉ0 बी. आर. अम्बेडकर की प्रतिमा

दुखद यह कि डॉ. आंबेडकर के बाद एससी, एसटी व ओबीसी वर्गों से एक भी मेधावी विधिवेत्ता नहीं उभरा, जो उनकी मृत्यु के बाद लिए गए गलत निर्णयों का विरोध कर सकता है। इस कमी को दूर करने की जरूरत है। इस सिलसिले में एक मत यह है संविधान में संशोधन कर उसमें जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए उपयुक्त प्रावधान जोड़ा जाना इस दलदल से निकलने का एकमात्र तरीका है। लेकिन इसके लिए नागरिक समाज व विधिक और बौद्धिक क्षेत्रों में एक मजबूत आंदोलन आवश्यक होगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) व भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भले ही मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यक समुदायों के बरक्स हिंदुओं की एकता की बात करते हों, परंतु वास्तव में वे सभी क्षेत्रों में शूद्र ओबीसी, एससी व एसटी को पीछे धकेलने में लगे हैं। न्यायपालिका उनकी गतिविधियों का सबसे बड़ा केंद्र है। संविधान में राज्य के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों के विभाजन के चलते, न्यायपालिका ही लोकतंत्र की नियति की नियंता है। इसलिए यह जरूरी है कि न्यायपालिका को समावेशी बनाया जाए और उसमें ओबीसी, एससी व एसटी समुदायों के ऐसे व्यक्तियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाए, जिन्हें भारतीय विधि के साथ-साथ दुनिया के अन्य देशों की विधि का भी समुचित ज्ञान हो। यह जरूरी है कि इन वर्गों के लोग आंबेडकर की तरह कानून के विशेषज्ञ बनें। न्यायसंगत समावेशिता के साथ संतुलित लोकतंत्र की स्थापना का कोई अन्य तरीका नहीं है। आम लोग मुकदमेबाजी की जटिलताओं को नहीं समझते। केवल ओबीसी/एससी/एसटी वर्गों के प्रशिक्षित व योग्य विधि विशेषज्ञ ही कानूनी लड़ाईयां लड़कर सही अर्थों में प्रतिनिधिक राज्य की स्थापना की राह प्रशस्त कर सकते हैं। 

चूंकि कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार न्यायपालिका को है, इसलिए जब तक न्यायपालिका के सभी स्तरों – विशेषकर, उच्च व उच्चतम न्यायालयों – में उत्पादक वर्गों के विधि विशेषज्ञों की मौजूदगी नहीं होगी तब तक न्यायिक प्रणाली में इन वर्गों के हितों की संरक्षा करना असंभव होगा। इस संदर्भ में अंग्रेजी भाषा के समुचित ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान रखने वाले इन वर्गों के विधि विशेषज्ञों के अभाव में एससी, एसटी व ओबीसी हमेशा राजनैतिक और क़ानूनी चालाकियों के शिकार बनते रहेंगे। उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि सत्ता के गलियारों, जो उच्चतम न्यायालय से होकर भी गुज़रते हैं, में क्या चल रहा है। 

जन-आंदोलनों व संसद में तीखी बहसों से न्यायपालिका अप्रभावित रहती है। संसद में ओबीसी, एससी व एससी सांसदों का बहुमत है। इसके बाद भी सत्ता पर काबिज़ ताकतें बिना किसी रोक-टोक के बिजली की गति से इन वर्गों के हितों के खिलाफ नए कानून या संवैधानिक संशोधन पारित करवाने में सफल हो जातीं हैं, जैसा कि ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण का प्रावधान करने के मामले में हमने देखा। संसद में अपने भारी बहुमत का लाभ उठाते हुए आरएसएस-भाजपा जिस धूर्तता से इन वर्गों के अधिकारों का दमन कर रही है, वैसा तो पूर्व की कांग्रेस सरकारों ने भी नहीं किया। 

दरअसल समस्या यह कि चाहे वह बार (वकील) हों या बेंच (न्यायाधीश) – दोनों में एससी, एसटी व ओबीसी वर्गों के प्रतिनिधि बहुत कम हैं और जो हैं भी वे जो खेल चल रहा है, उसे समझने में अक्षम हैं। उत्पादक वर्गों को आंबेडकर के स्तर के मेधावी विधिक बुद्धिजीवी चाहिए, जो कपट चालों को समझ सकें और जो पूरे देश को यह समझा सकें कि उत्पादक वर्ग, जिन्हें पिछले कई सालों में कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, अब और बेवक़ूफ़ बनने के लिए तैयार नहीं है। क़ानूनी लड़ाईयों के साथ-साथ उन्हें सड़कों पर भी लड़ना होगा।  

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के अलावा, किसी अन्य शूद्र / ओबीसी क्षेत्रीय दल में ऐसी लड़ाईयां लड़ने की हिम्मत और माद्दा नहीं है। वे अपने-अपने राज्यों के चंद द्विज वोटों पर अत्यंत निर्भर हैं। 

एक अन्य समस्या यह है कि वे शूद्र जो ओबीसी आरक्षण के लिए पात्र नहीं हैं, जैसे जाट, पटेल, रेड्डी, कम्मा, वेलामा, नायर, वे भी ईडब्ल्यूएस आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि इससे उनके समुदायों के युवाओं को शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश व सरकारी नौकरियां मिल सकेंगीं। लेकिन केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ईडब्ल्यूएस कोटा के कार्यान्वयन के पिछले दो वर्षों के आंकड़ों से साबित होता है कि इन जातियों को इस प्रावधान से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है। इससे असली फायदा द्विज जातियों को हुआ है, जो शैक्षणिक दृष्टि से उच्च शूद्र जातियों से कहीं बेहतर स्थिति में हैं। भले ही उच्च शूद्र जातियां कुछ राज्यों में सत्ता में हैं, लेकिन राष्ट्रीय बौद्धिक विमर्श में उनकी निर्णायक उपस्थिति नहीं है। न्यायपालिका में भी उनकी ताकत बहुत कम है।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण में रुपये 8 लाख वार्षिक आय की सीमा का भी द्विज लाभ उठाएंगें। ओबीसी के कथित ‘क्रीमी लेयर’ के सदस्य या आरक्षण के लिए अपात्र अन्य शूद्र, आने वाले कई सालों तक शिक्षा के क्षेत्र में द्विज युवाओं से प्रतिस्पर्धा करने के स्थिति में नहीं होंगे।

ईडब्ल्यूएस कें संबंध में निर्णय से यह साफ़ है कि न्यायपालिका में जो द्विज हैं, उनका यह पक्की मान्यता है कि आरक्षण और भ्रष्टचार भारत के पिछड़ेपन के मुख्य कारण हैं और इसलिए आरक्षण की व्यवस्था को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया जाना चाहिए। अगर एससी, एसटी और ओबीसी इस सोच का कड़ा प्रतिरोध नहीं करेंगे तो मीडिया भी यही तर्क दोहराता रहेगा। यह कुछ इसी तरह की बात है जैसे इन वर्गों को सदियों से पढ़ाई जा रही है– “अगर वे खाना खाएंगे, तो कमज़ोर होंगे। अगर वे भूखे रहेंगे तो ईश्वर उन्हें और शक्ति देगा।” इस तरह के सिद्धांतों में विश्वास रखने वालों की कोई कमी नहीं है। अगर उत्पादक वर्ग बौद्धिक प्रतिरोध नहीं करेंगे तो द्विज, जिन्हें अंधविश्वासों को विज्ञान बताने में कोई संकोच नहीं होता, संविधान को एक मिथक घोषित कर देंगे। ईडब्ल्यूएस संबंधी निर्णय इसी दिशा की ओर संकेत करता है। 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद: अमरीश हरदेनिया,

कांचा आइलैया शेपर्ड राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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