नरेंद्र भाले
बरसों पहले शेखर कपूर ने ‘मासूम’ बनाई थी,जिसमें मदहोश नसीर तथा सईद जाफरी का द्वंद्व गीत था हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए, खुले आम आंचल न लहरा के चलिए। इस गीत को उस समय जबर्दस्त सफलता मिली थी और आज भी उतना ही ताजा है। ऑस्ट्रेलिया में बसे मेरे फेसबुक मित्र प्रभात कुमार ने मुझे यह दु:खद समाचार भेजा कि सईद जाफरी नहीं रहे। उनके जाने का हैंगओवर शायद अभी भी मेरे जेहन पर कायम है।
बंदे की उम्र 86 थी, लेकिन मेरी नजर में यह जिंदादिल फनकार आज भी उतना ही युवा है जब मासूम था,गांंधी था सरदार पटेल था, शतरंज का खिलाड़ी था। थियेटर, टीवी ब्रिटिश फिल्में तथा बॉलीवुड में अपनी अमिट छाप छोडऩे वाले इस फनकार ने अपने कॅरियर की शुरूआत आकाशवाणी से की तथा पहले भारतीय फनकार के रूप में ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर से नवाजे गए।
रंगमंच तथा सिल्वर स्क्रीन पर सईद जितने सफल रहे उससे कहीं ज्यादा असफलता उन्हें वैवाहिक जीवन में मिली। भले ही उन्होने हिन्दी में भरपल्ले काम किया, लेकिन फितरत उनकी ब्रिटिश ही रही।यही कारण रहा कि पारिवारिक एवं घर जोडऩे वाली पत्नी से भी वे निभा नहीं पाए और तलाक हो गया। इस गलती से उन्होंने सबक नहीं लिया और जेनिफर से शादी कर ली। महत्वाकांक्षी महिला के साथ विवाह का खामियाजा उन्हें चुकाना पड़ा।
शायद यही वजह रही कि अकूत प्रतिभा का यह चरित्र जीवन में तन्हा ही रह गया। इसमें पूरी तरह वे ही दोषी थे, क्योंकि उन्हें सबसे ज्यादा खुद से प्यार रहा। क्रिकेट विश्वकप के दौरान कोलकाता में उदघाटन समारोह में एंकर का काम सईद के जिम्मे था, लेकिन उनके अति आत्मविश्वास ने स्क्रिप्ट पर ध्यान नहीं दिया और खुद की ही किरकिरी करवा ली।
इसमें संदेह ही नहीं है कि सईद में डायलॉग की टाइमिंग जबर्दस्त थी तथा अमिताभ की तरह संवाद से ज्यादा उनकी आंखों और चेहरा अधिक मुखर हो उठता था। वास्तव में वे पैदाईशी कलाकार रहे। परवरदिगार उन्हें जन्नत अता करे। आमीन…!