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मंजिल दूर है…यात्रा का परिणाम क्या होगा?

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शशिकांत गुप्ते

यात्रा चल रही है। दो महीने से ऊपर हो गया। यात्रा की निरंतरता और जनता के स्वस्फूर्त समर्थन की खबरों से कहीं खुशी कहीं गम ऐसी प्रतिक्रिया हो रही है।
यात्रा का परिणाम क्या होगा?
क्या यात्रा उस दल में सक्रियता ला देगी, जिस दल को देश के सियासी नक्शे से मुक्त करने की पहल की गई है?
यात्रा के परिणाम की भविष्यवाणी करना किसी भी भविष्यवक्ता के लिए सम्भव नहीं है।
जिस तरह देश की स्वायत्त संस्थाओं को निष्पक्ष होना चाहिए। ठीक उसी तरह भविष्यवक्ताओं को भी पूर्वाग्रह की मानसिकता से स्वयं को दूर रखना चाहिए।
पक्षपाती भविष्यवाणी ग़लत साबित होने के बाद भी भविष्यवक्ताओं का व्यवसाय तो बदस्तूर चलता रहता है, लेकिन ज्योतिष शास्त्र की हँसी उड़ती है।
बहरहाल यात्रा की अगुवाई कर रहे शख्स पर बहुत तंज कसे गए। उसकी शख्सियत (Dignity) को कम आंका गया।
जिसको कमजोर खिलाड़ी समझ रहे थे,उसने कन्या कुमारी से रनअप लिया, कश्मीर में प्रवेश करने पर वो गेंदबाजी करेगा।
अगले ने अभी गेंदबाजी की नहीं इसके पहले ही स्वयं को खेल में निपुण समझने वाले खिलाड़ी क्रीज में आने के पूर्व ही बैकफुट पर दिखाई दे रहें हैं। अपनी बैट संभाल कर पकड़ने का अभ्यास कर रहें हैं। वैसे क्रिकेट की बैट का एक और सदुपयोग जनता ने देखा है।
हर कोई खेल विज्ञापनों से जीता नहीं जाता है। हर बार पाँसे अपने ही पक्ष में पड़ेंगे यह धारणा भी धरी रह जाती है।
अति आत्मविश्वास
(Overconfidence) रखना नासमझी होती है।
अब यह सवाल सिर्फ मज़ाक बनकर रह गया कि सत्तर वर्षो में कुछ हुआ ही नहीं? अब तो यह सवाल जनता के जेहन में पैदा हो रहा है कि, पिछले एक सौ दो महीनों (आठ वर्ष छः माह) में की उपलब्धि सिर्फ विज्ञापनों में क्यों दर्शाई जाती है?
एक ओर स्वस्फूर्त समर्थन मिल रहा है दूसरी ओर प्रायजकों पर निर्भर टीम दिखाई देती है।
यात्रा के कारण सियासी झंझावतों से कश्ती बाहर तो निकल जाएगी, लेकिन पश्चात खेवनहारों को पतवार सजगता से सम्भालनी पड़ेगी। सियासी वैतरणी पार करने के लिए खेवनहारों के खेमें जो बिखराव है,वह कहीं यात्रा के अथक श्रम से अर्जित उपलब्धि को हानि न पहुँचाए?
वर्तमान में जो सियासी खेल चल रहा है वह निम्न कहावत के अनुरूप चल रहा है।
मराठी भाषा में एक कहावत है।
मांजरी चा खेळ होतों आणी उंदीरा चा जीव जातो
इस कहावत का अर्थ है,बिल्ली का तो खेल होता है,चूंहे की जान जाती है।
बिल्ली चूंहे को एकदम नहीं मारती है। उसे अपने पंजे में जकड़ती है,घायल करती है छोड़ देती है,चूँहा भागने की कोशिश करता है,उस बिल्ली पुनः पकड़ती है। अर्थात चूंहे के साथ छल करके उसे खाती है।
इसी तरह जनता के साथ शाब्दिक आश्वासनों से खेल होता है।
परिवर्तन आवश्यम्भावी है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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