सुधा सिंह
_वो कहती है बनाने में घण्टों लगते है. खाने में पल भर. कभी कुछ बड़े जतन से बनाती है. सुबह से तैयारी करके. कभी कुछ धुप में सुखा के. तो कभी कुछ पानी में भिगो के._
कभी मसालेदार.तो कभी गुड़ सी मीठी. सारे स्वाद समेट लेती हैं. आलू के पराठों में, या गाजर के हलवे में, ऊपर बारीक कटे धनिये के पत्तो में, या पीस कर डाले गए इलाइची के दानों में.
सारे स्वाद समेट देती हैं एक छोटी सी थाली में. न जाने कहाँ कहाँ से लाती है. ना जाने कितना कुछ तो होता है. कभी लिस्ट बनाना.
बीवी ने जो कुछ भी.. कभी भी बनाया है. तुम बना नही पाओगे. हमें भी बस खाना ही दिखता है. पर नही दिखती
किचन की गर्मी, उसका पसीना, हाथ में गरम तेल के छींटे, कटने के निशान, कमर का दर्द, पैरो में सूजन, सफ़ेद होते बाल. कभी नहीं दिखते.
कभी तो ध्यान से देखो ना उस की छोटी से रसोई में. कोई दिखेगा तुम्हे. जो बदल गया है इतने सालो में. दांत हिले होंगे कुछ. बाल झड़ गए होंगे कुछ. झुर्रियां आयी होंगी कुछ तुम्हारे मकान को घर बनाने में.
चश्मा लगाए, हाथ में अपनी करछी, बेलन लिए जुटी होगी. आज भी वही कर रही है.. जो कर रही है वो पिछले पच्चीस तीस सालों से, और तुम्हे देखते ही पूछेगी, “क्या चाहिए?
कभी देखना उसके मन के कुछ अनकहे ज़ज़्बात, दबी हुई इच्छाएं, जो दिखती नही. क्योंकि जो दिखती नही, उन्हें देखना और भी ज़्यादा ज़रूरी होता है.
जब रसोई से दो बिस्किट या रस हाथ में लेकर निकलता हूँ, कभी उसकी गैर मौजूदगी में. तब उसकी बात सोचने पे मज़बूर कर देती है. क्योंकि उसने सिर्फ खाना ही नहीं बनाया है इतने सालो में. तुम्हें भी बनाया है, खुद को मिटा के.
और याद है न, बनाने में घण्टों लगते है..ख़तम एक बार में हो जाता है …पूरा घर बनाया है. दिन रात मेहनत करके. कभी बनाना लिस्ट और क्या क्या बनाया है बीवी ने.
लिस्ट बन नहीं पाएगी. कोशिश करना. कभी बन नहीं पाएगी.