सुधा सिंह
रोटी पेट की भूख मिटाती है, कविता हमारी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख मिटाती है। इनमें से पहली भूख तो जैविक है, आदिम है। दूसरी भूख सच्चे अर्थों में ‘मानवीय’ है, मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास की देन है।
समस्या यह है कि वर्ग विभाजित समाज के श्रम विभाजन जनित अलगाव, विसांस्कृतीकरण और विमानवीकरण की सार्विक परिघटना ने बहुसंख्यक आबादी से उसकी सांस्कृतिक-आत्मिक भूख का अहसास ही छीन लिया है।
दूसरे, जब पेट की भूख और बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही हडि्डयाँ गलानी पड़ती हों तो सांस्कृतिक भूख या तो मर जाती है या विकृत हो जाती है। भूखे लोग रोटी के लिए आसानी से, स्वत: लड़ने को तैयार हो जायेंगे, पर वास्तविक अर्थों में सम्पूर्ण मानवीय व्यक्तित्वों से युक्त मानव समाज के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए, मानवता के ‘आवश्यकता के राज्य’ से ‘स्वतंत्रता के राज्य’ में संक्रमण की लम्बी लड़ाई के लिए, व्यक्ति की सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक वैयक्तिकता के लिए ज़रूरी शोषणमुक्त सामाजिक संरचना और सामूहिकता के सुदूर भविष्य तक की यात्रा के सतत् दीर्घकालिक संघर्ष के लिए, लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें विस्मृति से मुक्त किया जायेगा, उन्हें स्वप्न और कल्पनाएँ दी जायेंगी, उनमें कविता की भी भूख पैदा की जायेगी और फिर उस भूख को मिटाने के ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायेंगे।
सभी कविता का आस्वाद ले सकें, वह दुनिया अभी दूर है। लेकिन वैसी दुनिया को क़रीब लाने के काव्यात्मक संघर्ष में अगाथ काव्यात्मक हृदय ही अनथक लगे रह सकते हैं। इसलिए इस काव्यात्मक लड़ाई के भागीदारों के लिए कविता एक बुनियादी ज़रूरत है। यह उनकी भी ज़रूरत है जो इस लड़ाई में आंशिक भागीदारी करते हैं या इसे ज़रूरी मानकर इसे समर्थन देते हैं, या कम से कम इसके प्रति हमदर्दी रखते हैं।
कविता उस लड़ाई में सतत् सार्थक भागीदारी की ज़रूरत है, जो लड़ाई जीवन में कविता की बहाली के लिए है। हम सचेतन प्रयासों से लोगों में जिस हद तक कविता की ज़रूरत का अहसास पैदा कर सकेंगे, उसी हद तक ऐसे लोगों की संख्या बढ़ा पाने में सफल होंगें, जो ‘विजनरी’ हों, कल्पनाशील हों और फिलहाली पराजयों से मायूस हुए बगैर, गलतियों से सीखते हुए, ताउम्र यूँ लड़ते रहें, गोया इंकलाब उनके लिए एक मक़सद ही नहीं, बल्कि तौर-ए- ज़िन्दगी हो।
वास्तविक स्थिति यही है कि ”कविता, रोटी की तरह, हर व्यक्ति के लिए होती है।” हमारे युग की विडम्बना यह है कि बहुसंख्यक आबादी इसे नहीं जानती। यदि वह जानती ही, तो इसे कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती, क्योंकि तब यह सामान्य बात होती। हमें लगातार लोगों को इस बात का अहसास दिलाना होगा।
इसमें हम जिस हद तक कामयाब होंगे, उस हद तक अन्यायपूर्ण ढाँचे के विरुद्ध लड़ने वालों की कतारें बढ़ा सकेंगे और उस लड़ाई का सामाजिक समर्थन-आधार ज्यादा से ज्यादा व्यापक बना सकेंगे।