शशिकांत गुप्ते
आज सीतारामजी निम्न मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे।
मराठी भाषा में फ़िरकी का शाब्दिक अर्थ होता है,मज़ाक करना। मज़ाक भी ऐसी जैसी मजाक किसी को एप्रिल फूल बनाते समय की जाती है।
हिंदी में फ़िरकी खिलौने को कहतें हैं। फ़िरकी मतलब चक्री।
मैने पूछा आज इसी मुद्दे पर चर्चा करने का कोई खास कारण है।
सीतारामजी ने कहा हाँ कारण पिछले दो दिनों से सारें समाचार माध्यम Exit poll में ही व्यस्त हो गएं हैं। मानो देश में Exit poll के अलावा कोई दूसरा मुद्दा महत्वपूर्ण है ही नहीं?
तकरीबन सभी Exit पोल एक ही दल को पुनः सत्ता दिलवाने में लगे है। एक ही दल की सफलता को अधिकृत नतीजों के पूर्व ही आसमान की उपमा दे दी गई।
इस मुद्दे पर शायर वसीम बरेलवी का यह शेर याद आता है।
आसमान अपनी बुलंदियों को इतराता है
यह भूल जाता है कि,जमीन से नज़र आता है
यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि, 27 वर्षो की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के बावजूद भी उसी पपूरे लावलक्षर के साथ,उसी प्रान्त के हर नगर,डगर गलियों में झांकना पड़ा, यह मुद्दा Exit पोल में नदारद है। इसका कारण Exactly क्या हुआ है,यह नतीजों के बाद पता चल सकता है? एक व्यवहारिक प्रश्न 27 वर्षो की मजबूत उपलब्धियों के बाद भी एक झूलता पुल टूटता है।
तादाद में मादक पदार्थो का आगमन होता है? सड़कें चेचक की बीमारी से पीड़ित होती हैं?
शासकीय स्कूलों की स्थिति पर गम्भीर प्रश्न उपस्थित होतें हैं?
बहरहाल आज की चर्चा का मुद्दा है फ़िरकी।
पिछले आठ वर्षों से अधिक समय से देश की जनता वादें ही सुन रही है जो सिर्फ विज्ञापनों में पूरे किए जा रहें हैं।
सन 2014 से निरंतर जो वादें किए जा रहें हैं, वे फ़िरकी जैसे ही प्रतीत होतें हैं।
Exit poll में पुनः सफलता को दर्शाया जा रहा है।
इस प्रसंग पर सन 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म राजा और रंक इस गीत की पैरोडी एकदम प्रासंगिक है।
ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना तू अपनी जुबान से
कि तेरे वादें हैं सारें बेईमान
पहले भी तूने अच्छेदिन आएंगे ये कहा था
आठ वर्षों ने अच्छेदिन ना आए
वादा किया था महंगाई होने नहीं दूंगी
लेकिन महंगाई और बढ़ गई
इसीतरह बहुत से मुद्दे हैं जो सिर्फ फ़िरकी मतलब मज़ाक बनकर रह गए।
जनता जुमलों के चक्रव्यूह में फंस कर रह गई।
फिरभी यही कहा जा रहा है।
ओ फ़िरकी वाली तू कल फिर…..?
गीतकार आंनद बक्षी रचित उक्त गीत की पैरोडी के लिए सीतारामजी क्षमा चाहते हुए गीतकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करतें हैं।
बार बार अबकी बार फिर सवाल है कबतक?
शशिकांत गुप्ते इंदौर