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जीवन अनिश्चित, मृत्यु निश्चित : क्या है मृत्यु ?

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 डॉ. विकास मानव

      इस विश्वब्रह्माण्ड की दृष्टि से अति मूल्यवान है मानव शरीर और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है अच्छे कुल और आभिजात्य वर्ग में जन्म लेना और स्वस्थ, सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व का शरीर प्राप्त करना।

      हमारा शरीर भौतिक है और एक प्रकार से यह एक प्राकृतिक यंत्र है। जब तक है, तब तक है। एक- न-एक दिन प्रकृति में लीन होना ही है उसको। शरीर के अस्तित्व के साथ संसार का अस्तित्व जुड़ा हुआ है।

      दोनों के अस्तित्वों को एक दूसरे से मृत्यु अलग करती है। जैसे एक डॉक्टर शरीर के किसी अंग विशेष को जो रोगग्रस्त है, शरीर के अस्तित्व को बचाने के लिए  शरीर से अपरिहार्य रूप से अलग कर देता है, उसी प्रकार मृत्यु भी एक प्रकार से मानव शरीर के लिए शल्यचिकित्सा है।

       मृत्यु संसार की सर्वश्रेष्ठ शल्यक्रिया है। मृत्यु का नाम सुनकर मानव तो क्या संसार का प्रत्येक जीव-जन्तु घबरा जाता है। परन्तु वास्तव में यदि देखा जाय तो मृत्यु हमारी शत्रु नहीं, मित्र है। मृत्यु से हमें घबराना नहीं चाहिए।

       आप कहेंगे–दूसरों को उपदेश देना सरल है, जब अपनी जान पर बन आती है तो सारे उपदेश धरे-के-धरे रहे जाते हैं।

      वास्तव में मृत्यु एक निद्रा है–एक गहन चिर निद्रा। इस रूप में वह हमारी सच्ची मित्र है। यह नए जीवन को प्राप्त करने के लिए उसी प्रकार आवश्यक है, जिस प्रकार दिनभर की थकान के बाद रात्रि में सोना। यदि रात्रि में हम न सोएं तो दूसरे दिन नयी ताज़गी, नयी स्फूर्ति, और नयी प्रफुल्लता प्राप्त नहीं होगी।

          जिस प्रकार से दिनभर के मानसिक और शारीरिक श्रम के बाद रात्रि में नींद आवश्यक है, उसी प्रकार जीवनभर मानसिक, शारीरिक श्रम और संघर्ष से जूझने के बाद मृत्युरूपी महानिद्रा आवश्यक है।

        महानिद्रा से जागने के बाद मानव को अपना पुराना शरीर और पुराना जीवन छूटने के बाद नया शरीर और नया जीवन उपलव्ध हो चुका रहता है।

 *शरीर और इन्द्रियों के प्रभाव से मुक्त होना ही मार्ग :*

       जहां तक आध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है जो सत्य पर प्रतिष्ठित है, उसकी प्राप्ति की दिशा में जो सबसे वड़ा बाधक है, वह है हमारा शरीर। हमारा शरीर, यदि सही मायने में देखा जाय, तो हमारा मित्र नहीं, शत्रु है।

       शरीर केवल मात्र शरीर नहीं है, उसके साथ पञ्च ज्ञानेंद्रियां, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ भी हैं। हमारा मन इन्हीं इन्द्रियों द्वारा भौतिक कार्य करता है। यदि मन न हो तो ये इन्द्रियां व्यर्थ और निष्क्रिय हैं। क्या देखने की शक्ति, सुनने की शक्ति आदि मनुष्य को वास्तविक सत्य का आभास करा सकती हैं ?

      कवि, लेखक, चिन्तक और विद्वदगण हमेशा से यह कहते आये हैं कि हम चीज़ों को न तो सही ढंग से देखते हैं और न तो सही ढंग से सुनते ही हैं। इन्द्रियां सही ढंग से किसी भी वस्तु के स्वरूप को अभिव्यक्त नहीं कर सकतीं।

      यह बात निर्विवाद है कि किसी भी वस्तु के सार जैसे भलाई, कल्याण, सहयोग, सौंदर्य, प्रेम, न्याय, साधना, उपासना आदि यदि वह वास्तव में निरपेक्ष हैं तो वे शरीर के द्वारा नहीं हो सकतीं। मनुष्य जब अत्यधिक प्रयत्न करता है तब वह बुद्धि के द्वारा ‘निरपेक्ष तत्व'(विशुद्ध तत्व)को जान पाता है।

       मनुष्य उसी दशा में सही चिंतन कर सकता है, जब वह विशुद्ध मन से जानने-समझने का प्रयत्न करेगा। हमारा मन जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों से भरा पड़ा है। वे संस्कार अच्छे भी हैं और कुत्सित भी हैं।

 कुत्सित मन हर समय भटकता है और मनुष्य को भी भटकने के लिए उकसाता है। इसलिए मन की मलिनता दूर होना आवश्यक है। निर्मल मन स्थिर होता है, विक्षोभरहित होता है। मन अपने कार्य को इन्द्रियों के माध्यम से ही अंजाम तक पहुंचाता है।

      मनुष्य अपनी इन्द्रियों के अनुभवों से चिन्तन की अवस्था में कार्य न लेगा। वह चिन्तन में बाधक है। आध्यात्मिक मार्ग के हर पग पर वह विशुद्ध बुद्धि द्वारा ही विशुद्ध और निरपेक्ष सत्ता का अनुसरण करेगा।

     जहां तक सम्भव हो सकेगा, वह अपने आपको इन्द्रियों के प्रभाव से और शरीर के प्रभाव से मुक्त रखेगा। 

       आध्यात्मिक साधना- मार्ग ‘सत्यस्वरूप परमसत्ता’ के अनुसरण का मार्ग है। इस मार्ग पर वही व्यक्ति निर्बाधरूप से चल सकता है जो अपने आपको इन्द्रियों और शरीर के प्रभाव से विदेह(जनक) की तरह मुक्त रखेगा। मुक्त रखना आवश्यक है क्योंकि शरीर के साथ सम्पर्क आत्मा को पीड़ित करता है और उसे सत्य की उपलव्धि और ज्ञान की प्राप्ति.में बाधक है।

*सारी समस्याओं की जड़ दौलत और ज़िस्म की वासना :*

       कोई मनुष्य यदि चाहे तो क्या वह वास्तविक सत्ता का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और सत्य के स्वरूप से पूर्णतया परिचित हो सकता है ? बिना अंतहीन दौलत और अधिकाधिक जिस्म भोगने की सोच से मुक्ति के यह संभव नहीं.

   जब तक शरीर है, हम जो चाहते हैं, वह कभी प्राप्त नहीं होगा। शरीर के रहते हुए भी शरीर की अनुभूति न करना मनुष्य के जीवन की एक विशेष उपलब्धि है। यह उपलब्धि आज तक जनक(विदेह) को उपलब्ध थी। अन्य तपस्वियों को भी यह उपलब्धि रही होगी, पर जनक के लिए विशेष थी क्योंकि वे एक राजा थे और राज्य के संरक्षण, संवर्धन और संचालन में बहुत-सी ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जब बड़ा और अच्छा लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ-न -कुछ छोटा-मोटा अप्रिय कार्य प्रजाहित में करना पड़ता है।

       शरीर को जिन सेवाओं की आवश्यकता है, उसकी ही पूर्ति में हमारा सारा समय व्यय हो जाता है। इसके अलावा जब भी हमारा शरीर किसी रोग से ग्रस्त होता है, तो उसी ओर हमारा सम्पूर्ण ध्यान रहता है और वास्तविक सत्ता के अनुसरण में बाधा पहुँचती है।

        यह हमें आवेगों, इच्छाओं, भय और सब प्रकार की काल्पनिकताओं और मूर्खताओं से भर देता है और हमारी स्थिति यह हो जाती है कि हम सही दिशा में सोचने में पूर्णतया असमर्थ हो जाते हैं। केवल इसी के कारण युद्ध, गुटबंदियां और लड़ाइयां होती हैं।

       इस संसार में सारी समस्याओं का मूल है–धन प्राप्ति और सेक्सभोग की इच्छा। संसार की जितनी भी समस्याएं हैं, वे सब इसी सोच के कारण हैं। इन्ही कारणों से हमें दार्शनिक चिंतन के लिए समय नहीं मिल पाता।

      यदि किसी प्रकार हम अपने आपको शरीर से मुक्त भी कर लें और किसी विषय की खोज शुरू कर दें तो शरीर उस खोज के हर चरण में बाधक बन जाता है और उससे विचार, चिंतन-मनन में गड़बड़ी मच जाती है। परिणाम यह होता है कि हम सत्य की उपलब्धि में समर्थ नहीं हो पाते। 

       इसीलिए यदि हमें सत्य की खोज करनी है और विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करना है तो हमें शरीरभाव से मुक्त होना होगा। तभी हम अपनी आत्मा के माध्यम से किसी भी वस्तु की वास्तविक स्थिति से परिचित हो सकते हैं।.

    जब हम शरीरभाव से मुक्त होंगे, तभी यह सम्भव है अन्यथा मरने के बाद ही वह ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे जिसकी हम कामना करते हैं।

*शरीर और आत्मा के बीच मन है रोड़ा :*

   शरीर और आत्मा के बीच मन के आ जाने से अर्जित ज्ञान सम्पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हो पाता.

          यदि सशरीर हम विशुद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते तो दो में से एक स्थिति होगी–या तो हम ज्ञान प्राप्त ही नहीं कर सकते या फिर हम मृत्यु के बाद ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह तो मृत्यु के बाद ही कहा या जाना जा सकता है कि आत्मा शरीर से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित है अथवा नहीं।

        यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो दोनों ही स्तिथियाँ हैं। जब आत्मा अपने स्वरूप में स्थित होती है तो उस समय पुनर्जन्म के पूर्व तक ज्ञानोपार्जन करती है। कितना अर्जन कर पाती है–यह उसके संस्कार पर निर्भर है। पुनः शरीर ग्रहण होने पर आत्मा द्वारा वही अर्जित ज्ञान मन के माध्यम से विचारों द्वारा ‘बैखरी वाणी’ के रूप में जगत में प्रकाशित होता है।

        यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि शरीर और आत्मा के बीच ‘मन’ के आ जाने के कारण अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान प्रकाशित नहीं होता। उसका मात्र 25 या 30 % ही व्यक्त हो पाता है, वह भी खण्ड-खण्ड रूप में। मन एक पर्दा है शरीर और आत्मा के बीच। मन एक झीना आवरण है, एक माया का स्वरूप है जो हमारे ज्ञान को ढक लेती है।

       स्वरूप में स्थित न होने की अवस्था में आत्मा पुनर्जन्म के पूर्व तक अज्ञान के अन्धकार में इधर-उधर भटकती रहती है।

       संसार में एक ऐसा वर्ग भी है जो आत्मा के अस्तित्व को मृत्योपरान्त स्वीकार नहीं करता है। शरीर के अस्तित्व के साथ आत्मा का भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है उनकी दृष्टि में। उनके लिए न जन्म है और न तो है मृत्यु ही।

      ऐसे लोगों को यह जान लेना चाहिए कि आत्मा का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी रहता है और उसमें शक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता भी रहती है। किसी के मानने-न-मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

 मरणोपरान्त मनुष्यों की आत्माएं लोक-लोकान्तर में निवास करती हैं या नहीं और वहां से वापस लौटने पर पुनः जन्म लेती है या नहीं। पर यदि यह सत्य है कि हम उन मृतकों में से जन्म लेते हैं तो हमारे जन्म से पहले हमारी आत्माओं का परलोक में रहना आवश्यक प्रतीत होता है।

       क्योंकि यदि ऐसा न होता तो फिर वे कैसे जन्म ले सकती थीं ? यह बात निर्णायक सिद्ध होती–यदि हमारे पास कोई वास्तविक भौतिक प्रमाण होता कि जीवित लोग केवल मरे हुए लोगों के ही पुनर्जन्म प्राप्त किये हए होते हैं। 

      हम ज्ञान के निकट उसी अवस्था में पहुँच सकते हैं, जब हम जीवन काल में अति आवश्यक स्थिति में ही शरीर से संपर्क रखें। ताकि हम उसकी दुष्प्रवृत्ति से मलिन और अपवित्र न हो जाएँ। हमें चाहिए कि हम शरीर से विमुक्त होकर तब तक रहें, जब तक ईश्वर स्वयं मुक्त न कर दे।

.जब हम शुद्ध होकर शरीर की मूर्खताओं से मुक्त हो जायेंगे, तभी हम उसके साथ निवास करेंगे। क्योंकि शुद्ध ही शुद्ध में मिलकर स्थायी रूपसे एकाकार रह सकता है।

     तब हम स्वयं जान जायेंगे कि ‘विशुद्ध स्वरूप’ क्या है ? अशुद्ध वस्तु शुद्ध को कदापि प्राप्त नहीं कर सकती।

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