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बात अगर लोगों के लिए हो तो लोगों की भाषा-बोली में ही होनी चाहिए

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मृत्युंजय राय

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख

ये लाइनें हिंदी के जाने-माने कवि भवानी प्रसाद मिश्र की लिखी हुई हैं, जो बोलचाल की भाषा में बात लोगों तक पहुंचाने के हिमायती रहे। भवानी जी इस बात को बखूबी समझते थे कि बात अगर लोगों के लिए हो तो लोगों की भाषा-बोली में ही होनी चाहिए। यह बात भी मानी हुई है कि जिन भाषाओं ने दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाया, वे समृद्ध हुईं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल अंग्रेजी है। जिन देशों की यह मूल भाषा है, वहां 37 करोड़ लोग इसमें बात करते हैं, लेकिन दुनिया में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या दो अरब है। यानी जो दर्जा अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का है, वहीं संपर्क की भाषा के रूप में अंग्रेजी का।

खुद हिंदी और हिंदुस्तानी भाषा के शब्दों को अंग्रेजी में बड़े पैमाने पर जगह मिली। इसे ठीक से समझना हो तो ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ डिक्शनरी पर एक नजर डालिए, जिनमें ऐसे तमाम शब्द हैं। इसे ‘द एंग्लो-इंडियन डिक्शनरी’ भी कहा जाता है। इसे तैयार किया था ब्रिटेन के हेनरी यूल और एसी बर्नेल ने। इस डिक्शनरी पर साल 1872 के आसपास काम शुरू हुआ और 14 साल बाद इसका पहला संस्करण आया। इसमें बताया गया है कि अंग्रेजी का जो वरांडा शब्द है, वह हिंदी के बरामदा से आया। बंगला से बंगलो या बंग्लो, खिचड़ी से केजेरी (Kedgeree), चंपी से बना शैंपू (Shampoo), पंडित (Pandit) और साहेब (Saheb) जैसे शब्द भी अंग्रेजों ने भारत से लिए।

बोलने वालों की संख्या के लिहाज से अंग्रेजी की तरह ही हिंदी का दर्जा भी बड़ा है। दुनिया में 62 करोड़ से अधिक लोग इस जबान में बात करते हैं और अंग्रेजी, मंदारिन के बाद यह तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। खुद हिंदी में तुर्की, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, अंग्रेजी भाषाओं के शब्द भरे पड़े हैं। हिंदी के आगे बढ़ने में अंग्रेजी समेत इन सभी भाषाओं का बड़ा योगदान है। इन भाषाओं के शब्दों के बगैर हमारा एक दिन भी नहीं निकलता और आपको शायद ही इसका अहसास हो कि ये शब्द हिंदी के नहीं हैं। जैसे, फारसी के आराम, अफसोस, किनारा, नमक, दुकान, खूबसूरत, बीमार और शादी। अरबी के किस्मत, खयाल, औरत, कीमत, अमीर, इज्जत, इलाज, किताब तो तुर्की के तोप, काबू, तलाश, बेगम, बारूद, चाकू। पुर्तगाली से कमीज, साबुन, अलमारी, बाल्टी, फालतू, फीता, तौलिया जैसे शब्द हिंदी में आए। अंग्रेजी के भी स्कूल, कॉलेज, बस, कार, हॉस्पिटल जैसे शब्द हमारी जिंदगी में रचे-बसे हैं, लेकिन हिंदी भाषी समाज में एक वर्ग ऐसा भी है, जो इसके पुराने स्वरूप को बनाए रखने की मांग करता है और वह संस्कृतनिष्ठ शब्दों के इस्तेमाल पर जोर देता आया है। यह वर्ग हिंदी भाषा को धर्म-संस्कृति से जोड़कर देखता आया है। इन लोगों को खयाल रखना चाहिए कि इस तरह से वे हिंदी की तरक्की रोक रहे हैं। और इस विरोध से कुछ हासिल भी नहीं होगा। ऐसी कोशिशें पहले हो चुकी हैं, जो फेल हो गईं। सरकारी हिंदी का हश्र हमारे सामने है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हम अंग्रेजी और फ्रेंच के साथ ऐसा होते देख चुके हैं। अंग्रेजी ने दूसरी भाषाओं के शब्दों को खुले दिल से अपनाया, इसीलिए उसका दायरा बढ़ता गया, जबकि एकेडमिशियंस की जिद के कारण फ्रेंच में अधिक बाहरी शब्द नहीं आ पाए। इसलिए अंग्रेजी के मुकाबले में फ्रेंच पिछड़ गई।

हमें देखना होगा कि हिंदी के साथ ऐसा ना हो। यह भी समझना होगा कि जिस तरह से देश की आर्थिक हैसियत बढ़ रही है, उससे दूसरे देशों में हिंदी का प्रसार बढ़ेगा। अमेरिका, चीन, जर्मनी और जापान के बाद भारत दुनिया का पांचवीं बड़ी इकॉनमी है। इस दशक के खत्म होने से पहले वह तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत होगा और उसके बाद आने वाले दशकों में सबसे बड़ी इकॉनमी के लिए उसका मुकाबला चीन से हो सकता है। अंग्रेजी और मंदारिन की मिसाल से इसे समझा जा सकता है। खासतौर पर चीन की आर्थिक हैसियत बढ़ने के साथ मंदारिन सीखने वालों की संख्या बढ़ी है। आशा है कि हिंदी के साथ भी ऐसा होगा। ग्लोबलाइजेशन और डिजिटल इकॉनमी के इस दौर में यह जरूरी बात है, खासतौर पर अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग को लेकर। इससे भारत की सॉफ्ट पावर बढ़ेगी। भारतीय आदर्शों और मूल्यों के बारे में दुनिया की समझ बढ़ाने में भी यह कारगर साबित होगी। इससे हम महा-अखंड भारत का सपना पूरा करने की ओर बढ़ेंगे। इसलिए अगले फरवरी में जब फिजी में 12वां विश्व हिंदी सम्मेलन होगा तो इस पर संजीदगी के साथ गौर किया जाना चाहिए। अगर हमें हिंदी को और ऊंचाई पर ले जाना है तो जो अंग्रेजी ने किया, वही रास्ता हमें अपनाना होगा।

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