अग्नि आलोक
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फूटेगी किरण

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ये साल भी यारों बीत गया 

कुछ खून बहा कुछ घर उजड़े 

कुछ कटरे जलकर राख हुए 

इक मस्जिद की ईंटों के तले 

हर मसला दबकर दफ्न हुआ 

जो खाक उड़ी वो ज़हनों पर 

यूँ छाई जैसे कुछ भी नहीं

अब कुछ भी नहीं है करने को 

घर बैठो डर के अब के बरस 

या जान गँवा दो सड़कों पर 

घर बैठ के भी क्या हासिल है

न मीर रहा, न गालिब है 

न प्रेम के जि़ंदा अफसाने

बेदी भी नहीं, मंटो भी नहीं

जो आज की वहशत लिख डालें 

चिश्ती भी नहीं, नानक भी नहीं 

जो प्यार की वर्षा हो जाए

मंसूर कहाँ जो ज़हर पिए 

गलियों में बहती नफरत का

वो भी तो नहीं जो तकली से 

फिर प्यार के ताने बुन डाले

क्यों दोष धरो हो पुरखों पर

खुद मीर हो तुम, गालिब भी तुम्हीं 

तुम प्रेम का जि़ंदा अफसाना

बेदी भी तुम्हीं, मंटो भी तुम्हीं 

तुम आज की वहशत लिख डालो 

चिश्ती की सदा, नानक की नवा 

मंसूर तुम्हीं तुम बुल्ले शाह

कह दो के अनलहक जि़ंदा है

कह दो के अनहद अब गरजेगा 

इस नुक्ते पर गल मुकदी है

इस नुक्ते से फूटेगी किरण 

और बात यहीं से निकलेगी

दिल्ली 

07.12.1992

(बाबरी मस्जिद के गिराये जाने पर)

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