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विलाप जारी है ! लोहिया का गैर कांग्रेसवाद एक चुनावी रणनीति थी कोई सिद्धांत -नीति नहीं थी

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प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन

डॉ राममनोहर लोहिया को इस दुनिया से गए लगभग 54 साल हो गए हैं, और इन 54 सालों में मैं देख रहा हूं कि लोहिया ने जिन सिद्धांतों, नीतियों,  विचारों को गढ़ा था उस पर चर्चा, स्वीकार्यता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है ।डॉक्टर लोहिया एक ऐसे राजनीतिक चिंतक थे जिन्होंने इंसानों की जिंदगी से ताल्लुक रखने वाले हर सवाल पर विस्तार से चर्चा, बोल कर, लिख कर की थी,जिसका अधिकांश हिस्सा डॉ मस्तराम कपूर द्वारा संपादित  रचनावली, नो भागों हिंदी और अंग्रेजी मैं प्रकाशित हो चुकी है। परंतु मैं देख रहा हूं कि उनके दार्शनिक पहलुओं, सिद्धांतों पर लोहिया आलोचक कभी बहस नहीं चलाते लेदेकर जब देखो,लोहिया विरोधियों की तो बात छोड़ो जो अपने को सोशलिस्ट तथा कुछ बाहरी तौर पर लोहियावादी की भी अपनी इमेज बनाए हुए हैं गाये बजाए  एक ही  विलाप हमेशा करते रहते हैं कि लोहिया की गैर कांग्रेसवाद की नीति जिसमें जनसंघ भी शामिल था, उसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी  बरसरेइक्तदार बनी बैठी है। आज की हर बुराई की जड़ लोहिया नीति है। और इसका सबसे बड़ा रोचक पहलू यह भी है अपने कथन की मजबूती के लिए लोहिया के शागिर्द मधुलिमए के एक लेख का हमेशा सहारा भी लेते हैं। लोहिया आलोचक जब भाजपा के खिलाफ कुछ भी करने में अपनी मायूसी महसूस करते हैं तो ले देकर अपनी खीज, बौखलाहट का इजहार लोहिया का गैर कांग्रेसवाद को लेकर करना शुरू कर देते हैं। इस अनवरत बहस का अनेकों बार  सोशलिस्ट साथी विस्तार से जवाब देते रहे है। परंतु कई कारणों से विलाप करनेवाले  पुराना फसाना  दोहराने के लिए मजबूर है।

 आज उसी बात को आर एस एस में मूल रूप से दीक्षित परंतु आपातकाल में मधुलिमए की संगत में आकर समाजवादी विचारों से प्रभावित होने वाले  हमारे वरिष्ठ साथी विनोद कोचर ने फिर दोहराया है। तो फिर एक बार उसका जवाब जान लीजिए। 1 डॉक्टर लोहिया का गैर कांग्रेसवाद एक चुनावी रणनीति थी कोई सिद्धांत या सदैव के लिए अपनाए जाने वाली नीति नहीं थी

2 आजादी की जंग के बाद हिंदुस्तान की जनता में खास तौर पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का  ऐसा करिश्मा छाया हुआ था कि उसके सामने विपक्ष नाम का कोई अस्तित्व ठहर ही नहीं सकता था। सोशलिस्टो  ने आजादी की जंग में बढ़-चढ़कर  हिस्सा लिया था उनके ज्ञान, त्याग, संघर्ष के कायल महात्मा गांधी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू हुए थे, इसी कारण वे इनको पसंद तथा  इनकी तरफदारी करते थे। सोशलिस्ट चाहते तो बड़े मजे से कांग्रेस में रहकर सत्ता सुख लूट सकते थे। 

3 परंतु  सोशलिस्टो की मान्यता थी कि लोकतंत्र में जितना महत्व सत्ताधारी पार्टी का होता है, उस पर नियंत्रण के लिए विरोधी दल का मजबूत होना भी उतना जरूरी है। इसलिए 1948 में इन्होंने कांग्रेस से निकलकर सोशलिस्ट  पार्टी की स्थापना कर ली। इस नीति को अमलीजामा देने के लिए सबसे पहले डॉक्टर लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध फूलपुर में यह जानते हुए कि चुनाव में हार लाजमी है चुनाव लड़ा।

( 4) 1952- 57-62 के चुनाव परिणाम से डॉक्टर लोहिया इस नतीजे पर पहुंचे कि जब तक विपक्षी दलों में चुनावी एकता नहीं होगी तब तक कांग्रेस के  प्रचंड बहुमत के सामने टिका नहीं रहा जा सकता।

 5  राजनीतिक  अनिवार्यता के कारण 1963 में उन्होंने चुनावी समझौते की पहल की।

 (6) 1967 के आम चुनाव में लोहिया ने व्यापक पैमाने पर गैर कांग्रेसवाद का आवाहन किया  जिसके फलस्वरूप जनसंघ से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चुनावी समझौता तथा संविद सरकारे बनी। 7 लोहिया क्योंकि संविद सरकारों के खतरों से वाकिफ थे इसलिए उन्होंने समयबद्ध कार्यक्रम का अंकुश भी इस पर लगाया। 

 8 लोहिया संविद सरकारों के लिए बनाए गए नियमों, बंधनों तथा अपनी पार्टी के लिए बनाए गए नियमों के बारे में कितनी कठोर थे इसका उदाहरण बिहार कि  संविद सरकार से लिया जा सकता है। वी पी मंडल लोकसभा के सदस्य थे वे राज्य सरकार में मंत्री बनने के लिए  लोकसभा से त्यागपत्र देकर विधानसभा में आना चाहते थे लोहिया ने इसे कबूल नहीं किया तब बिहार के सिरमोर सोशलिस्ट नेता कपूरी ठाकुर ने कहा कि सरकार बचाने के लिए मंडल का साथ अनिवार्य है अन्यथा  डॉक्टर साहब सरकार गिर जाएगी  तो लोहिया ने कहा गिर जाने दो।

 1968 में ही 57 वर्ष की आयु में लोहिया की असामयिक मृत्यु हो गई। 9 लोहिया आलोचकों मे मैं देखता हूं कि उनको लोहिया की निंदा करने के लिए लोहिया के शागिर्द  मधुलिमए बहुत ही कारगर नजर आते हैं क्योंकि सोशलिस्ट पार्टी के कोलकाता सम्मेलन में मैं ही डॉक्टर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की नीति को मधुलिमए ने नापसंद किया था  परंतु वही मधुलिमए 1977 आते आते राजनीतिक अनिवार्यता की मजबूरी की वजह से ना केवल चुनावी समझौते बल्कि उसी जनसंघ के साथ एक दल,  एक नेता, एक सिद्धांत, एक विधान मानने को बाध्य हो गए। 

 10 अब सवाल पैदा होता है कि लोहिया में  ऐसा क्या जादुई चमत्कार था कि जो उनके साथ एक बार आया वह  विशालकाय बनता गया। जनसंघ तो लोहिया के कारण हिंदुस्तान में सबसे बड़ा राजनीतिक हस्ती बन गया साथ में तो  कम्युनिस्ट पार्टी भी थी सोशलिस्ट पार्टी भी इन पार्टियों का क्या हश्र हुआ?

  11 गैर कांग्रेसवाद की आड़ में अपनी नाकामी छुपाने के लिए  जनसंघ की हकीकत को जानना इनको गवारा नहीं।1925 में बना आर एस एस  उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा की आलोचना करना बड़ा आसान है परंतु मैंने अपने बचपन में देखा था कि सुबह कड़कड़ाती हुई सर्दी में मेरे पड़ोस में रहने वाले 15- 16 सालों के लड़कों को शाखा में ले जाने के लिए आर एस एस के कार्यकर्ता आवाज लगाकर  कि समय हो गया है शाखा में जाने के लिए तैयार हो जाओ। पहुंच जाते थे। उनके सिद्धांत, नीतिया, कार्यप्रणाली जो कि  मुल्क को तबाह और बर्बादी करने वाली है इसके पूर्णकालिक स्वयंसेवको के अपने संगठन के  प्रति समर्पण, अनुशासन, धैर्य  कार्यप्रणाली को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज भी उनके पार्टी के सैकड़ों प्रकोष्ठ विधिवत कार्यरत है।

 12  भारतीय जनता पार्टी के बढ़ाव का एक बड़ा कारण भारत -पाक विभाजन भी बना। पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने अपने ऊपर हुए  जुल्मों के किस्से आम हिंदुओं को बताए तो हिंदू -मुसलमान का रिश्ता  नफरत में बदल गया जिसका फायदा जनसंघ ने उठाया। 

13  जितने प्रगतिशील विचारों में आस्था रखने वाले थे वह किसी धर्म विशेष की पैरवी नहीं कर सकते थे। हिंदू -मुसलमान हमवतन हैं  उनका यकीन था, अकीदा था।  परंतु संघ ने घोषित रूप से अपने को हिंदुओं का अलंबरदार घोषित कर दिया, जगह- जगह सांप्रदायिक दंगे करवाए गए जिसके कारण इनकी ताकत दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती गई।

14 जनसंघ के पीछे आर एस एस के अनुशासन का कड़ा हथोड़ा पार्टी में  विभाजन की स्थिति पैदा नहीं होने देता है।अगर किसी नेता ने कभी दुस्साहस किया तो उसका हस्त्र  उसके  कद्दावर संस्थापकों बलराज मधोक पितांबर दास जैसा हुआ। वहीं दूसरी ओर भाजपा को छोड़कर हिंदुस्तान की कौन सी ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसका विभाजन नहीं हुआ? क्या सोशलिस्ट क्या कम्युनिस्ट क्या कांग्रेसी यहां तक की क्षेत्रीय पार्टियों में भी समय-समय पर आपसी टकराव तथा बिकाऊ होने कारण शक्तिहीन बनते गए।

15 यह भी हिंदुस्तान के राजनीतिक इतिहास में दर्ज है  कि आर एस एस भाजपा के खिलाफ जितनी जल्दी, मुस्तैदी तथा सब कुछ दांव पर लगा कर लोहियावादीयो ने लड़ाई लड़ी वह भी बेमिसाल है।

 जनता पार्टी शासन में  लोहिया अनुयाई मधुलिमए- राजनारायण ने सबसे पहले बिगुल बजाया। जनता पार्टी टूटने से जिनका मंत्री पद छीन रहा था  दुश्मनों के साथ-साथ अपने साथियों ने भी कम हमले मधुलिमए राजनारायण पर नहीं किए।

 16 हिंदुस्तान भर में दोहरी सदस्यता के सवाल पर हुई टूट के बाद मधु लिमए के निर्देश पर हिंदुस्तान के सोशलिस्ट मंत्री, एम पी, एमएलओ ने जनता पार्टी छोड़ दी। बिना कुछ गवाएं आलोचना करना बड़ा आसान है, दिल्ली जैसे शहर में जो भाजपा प्रभावित शहर है दिल्ली  विधानसभा के 3 सोशलिस्ट सदस्यों रामगोपाल सिसोदिया, ललित मोहन गौतम  राजकुमार जैन जनता पार्टी को छोड़कर लोक दल में शामिल हो गए। 17 किसी को मुलायम सिंह यादव,लालूप्रसाद यादव से लाख शिकायत हो सकती है परंतु  इन सोशलिस्टो ने अपनी सरकारों को दांव पर लगाकर जिस फौलादी इरादे से मुठभेड़ की क्या उसको भुलाया जा सकता है?

  18  राजनीति की अनिवार्यता कितनी निर्मम होती है कि  पहले जैसे कांग्रेस हटाओ नारा था अब उसकी जगह भाजपा हटाओ  हो गया,अब मांग की जा रही है सारे दल एक होकर भाजपा के खिलाफ एकजुट हो।कालांतर में इसकी भी आलोचना हो सकती है की अमुुक पार्टी को साथ रखने से नुकसान हुआ है।

 अंत में यह कहने के लिए मजबूर हूं कि कांग्रेसी राज में जो लोग सत्ता की मलाई चाट रहे थे, बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों, निकायों, समितियों में पद- पैसा अनुदान पा रहे थे और दूसरे वे लोग जो अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी ना होने के कारण निराशा,बौखलाहट के शिकार तथा कुछ ऐसे बुद्धिजीवी जिन्होंने सोशलिस्टओं का बिल्ला भी लगाया हुआ है बाहरी दुष्प्रचार का शिकार होकर लोहिया को जिम्मेदार ठहरा कर अपनी तसल्ली कर लेते हैं। 

अब वक्त लोहिया की आलोचना का नहीं भाजपा के राक्षसी  सांप्रदायिक  पूंजीपतियों के दलालों,  मुल्क तोड़ो मोदी राज के खिलाफ लड़ने का है। लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए संपूर्ण संघर्ष,लाठी, गोली खाने, जेल जाने का है।अब परीक्षा मैदान-ए-जंग में है पता चल जाएगा कि कौन केवल मुंहजबानी क्रांतिकारिता कर रहा था और कौन लड़ रहा था। 

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