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‘एकांत का इकतारा’….स्त्री विमर्श मे सार्थक हस्तक्षेप करती कविताए

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सुरेश उपाध्याय

प्रेम एकांत का इकतारा है / जिसमे सदैव ही / पीडा की तरंगे / ध्वनित होती रहती है / आसान नही न / वेलेंटाइन हो जाना

प्रेम, प्रेम की आकांक्षा, प्रेम मे समर्पण के भाव, उसके निहितार्थ व प्रेम की पीडा को अभिव्यक्त करती यह पंक्तिया युवा कवियित्री शिरीन भावसार के पहले कविता संग्रह ‘एकांत का इकतारा’ की है. साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग भोपाल के सहयोग से बोधि प्रकाशन, जयपुर से यह संग्रह हाल ही मे प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह की 70 कविताए को एक तरह से स्त्री विमर्श मे कवियित्री के स्वानुभव व दृष्टि से हस्तक्षेप के प्रयास की तरह देखा जा सकता है. कविता मे रचा एकांत कवियित्री का अपना न होकर समूची स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व करता है. एकांत के इस इकतारे मे समूची स्त्री जाति के दुख, दर्द, आशा-निराशाए, आकांक्षा, संघर्ष व स्वप्न की स्वर लहरियो को सुना जा सकता है. इन कविताओ मे प्रेम को पुन; पुन: परिभाषित करने की आकांक्षाए है. प्रेम के इन मूल्यो मे माता, पिता, पुत्र, पति, प्रेमी सबके लिए अनुरागी भाव है तो प्रतिफल मे कोमल आकांक्षाए भी है. सहज, सरल व तरल इन कविताओ मे बिम्ब व प्रतीक मुख्य रुप से प्रकृति से ही लिए गए है. रिश्तो मे बढती औपचारिकताओ की चिंताए इन कविताओ मे है तो छीजती संवेदनाओ मे भावनात्मक जुडाव के महत्व को रेखांकित करने के प्रयास भी है.

स्त्री को परिवार की धुरी माना जाता है और उससे अनेको अपेक्षाए की जाती है लेकिन उसकी अपेक्षाए उपेक्षित ही रह जाती है. पारिवारिक जीवन के रिश्तो मे उलझने तो आती है लेकिन इन्हे सुलझाने के जतन कोई कठिन काम नही है. ‘धागा’ कविता की यह पंक्तिया – एक डोरी रेशम की / जो मन से मन तक गुजरती है / उलझे चाहे जितनी भी वो / थामे एक सिरा तुम / धीमे धीमे ही सही / मुझ तक चले आना.. इस दिशा मे गहरे संकेत देती है. ‘अहसास’ कविता मे पिता के लिए नि:शब्द सी होती लिखती है – सोचा एक कविता / मुकम्मल कन्हू / पिता के लिए / किंतु / मेरी संवेदना और विश्वास को / उनके स्नेह और समर्पण को / शब्द छू भी न पाए. ‘अब तुम मुझको मा नही लगती’ कविता मे स्वयम को मा के मुकाम पर खडी होकर उसके व्यक्तित्व निर्माण मे उसके त्याग व तपस्या को गहराई से महसूस करती है तो ‘एक मा की चाहना मे’ बेटे से अपेक्षा करती है – पर तुम निर्मल ही रहना / प्रसन्न होने पर खुल कर हंसना / पीडा होने पर बह जाने देना आंसुओ को / नमी आंखो की अपनी बचाए रखना. प्रेम, समर्पण, समंवय व सामंजस्य को व्यक्त करती ‘मुझ मे तुम’ की यह पंक्तिया – थाम लेती हू जब मै कलम / स्याही मे प्रवाह भर देते हो और / पन्नो पर शब्दो मे जुड कर नज्म बन / लबो पर मेरे गीतो मे सज जाते हो, सफल दाम्पत्य जीवन का राग सुनाती है.

‘परीक्षा’ व ‘देवी या देह’ जैसी कविताओ मे मिथकीय पात्रो के माध्यम से उत्पीडन के विरुद्ध चुप्पी पर प्रश्न उठाती है तो ‘चीत्कार’ व ‘सूख चुके आंसू’ मे बेबस और मजबूर स्त्रीयो के पक्ष मे संवेदना जागृत करती है. ‘आक्रोश’ व ‘चरित्रहीन’ कविता मे कवियित्री के स्वर व तेवर तेज तथा प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है. ‘बंदिश’ कविता मे किसी भी प्रकार के आधिपत्य को नकारते हुए कहती है – ये जमी तो है ही मेरी / अब वो आसमा चाहती हू / बंदिशो से परे / एक जन्हा / गुनना चाहती हू .

स्त्री जाति के लिए गढे चक्र्व्यूह को तोडने के लिए उन्हे अपना चक्रव्यूह गढने का आव्हान करते हुए कहती है – छोड अनुकम्पा का भिक्षापात्र / स्वयम पर अधिकार पाना होगा / तोड दे जो हर पडाव को, ठहराव को / जोडकर कंठस्वर सारे / आवाज को बुलंद करना होगा / तोडने को व्यूह सारे / एक चक्र्व्यूह भी गढना होगा / स्त्री.. तुम्हे एकजूट होकर / स्वयम के लिए / स्वयम ही लडना होगा (चक्रव्यूह गढना होगा). एकता व सामूहिकता का यह् भाव, संघर्ष के आव्हान की यह चेतना कवियित्री की प्रगत दृष्टि का परिचायक है.

अपने पहले कविता संग्रह ‘एकांत का इकतार’ के माध्यम से शिरीन भावसार ने अपने परिवेश व आसपास के अनुभव के आधार पर स्त्री जाति के दुख-दर्द, आशा-अपेक्षा को स्वर देते हुए चेतना जगाने के जतन किए है. उनके यह प्रयास स्तुत्य है. मै इस संग्रह का स्वागत करते हुए मै अपनी शुभकामनाए व्यक्त करता करता हू. 

कविता संग्रह – एकांत का एकतारा
कवियित्री – शिरीन भावसार
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
प्रकाशन सहयोग – साहित्य अकादमी, म.प्र. संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग, भोपाल
मूल्य – रू 150/-

आज कविता जहाँ पूरे उत्कर्ष पर है और हमें अपने समय की सही शिनाख्त करवा रही है; वहीं कभी कभी एक खतरा भी उभर कर सामने आ जाता है कि कविता स्थूल न हो जाने की चिन्ता में अमूर्त होने लगती है और कभी अमूर्तन से बचने के लिए स्थूल होने लगती है। दोनों ही स्थितियाँ पाठक के लिए ग्राह्य नहीं होतीं। शिरीन भावसार की कविताएँ इन दोनों से बच कर संवेद्य को ऐसी अभिव्यक्ति देती हैं जिसमें पाठक को उनका मर्म समझने में आविष्कार का आनन्द मिलता है और धरातल से नीचे उतरने का चाव भी। ऐसी सहज सघनता और प्रतीकात्मकता शिरीन की कविता की अलग पहचान है। ये सभी कविताएँ अलग-अलग समय के रचनात्मक क्षणों की उपज हो सकती हैं पर उनमें निहित रचना दृष्टि से लगता है कि वे एक परिवार की सदस्य हैं। डॉ के. बी. एल. पाण्डेय

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