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जातीय पहचान और सिनेमा:भारतीय सिनेमा का मौलिक चरित्र

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राकेश कबीर

भारत देश में फिल्म निर्माण का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। दादा साहब फाल्के ने पहली फुल लेंथ भारतीय मोशन पिक्चर सत्य हरिश्चंद्र 1913 में बनाई। लगभग दो दशकों तक विभिन्न धार्मिक पौराणिक आख्यानों पर साइलेंट फिल्मे बनती रही क्योकि जनमानस में लोकप्रिय कहानियों और चरित्रों पर बनी मूक फिल्मो लोगों को आसानी से समझ आती थी। डोलती छबियों का यह मूक जादू सन 1931 में आर्देशिर इरानी की पहली बोलती फिल्म आलमआरा के रिलीज होने तक जारी रहा। उसके बाद प्रचलित कहानियों के साथ ही नये और विविधतापूर्ण विषयों पर फिल्मों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ।

जातीय पहचान और समस्या का सिनेमा

जाति व्यवस्था भारत की अनोखी विशेषता है। आज जाति जनगणना की मांग को लेकर पूरे देश में चर्चा-परिचर्चा का दौर चल रहा है। सन 1929 से 1932 तक भारतीय जनगणना के कमिश्नर जे. एच. हट्टन साहब थे जो भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) के अधिकारी थे। पूर्वोत्तर भारत के असम और नगालैंड में तैनाती के दौरान उन्होंने भारतीय जनजातियों और समाज का अध्ययन आरम्भ किया। जनगणना कमिश्नर के पद पर काम करते हुए और उसकी रिपोर्ट को प्रस्तुत करने के क्रम में उन्होंने भारतीय जाति व्यवस्था का भी गहराई से अध्ययन किया और कास्ट इन इंडिया: इट्स नेचर, फंक्शन एंड ओरिजींस शीर्षक से एक किताब लिखा। बताना जरुरी है कि 1931 के बाद भारत में जाति जनगणना नहीं होती है। हट्टन साहब की पुस्तक को जाति व्यवस्था के अध्ययन में यह एक प्रामाणिक संदर्भ ग्रन्थ माना जाता है। हट्टन ने जाति के बारे में लिखा है कि, ‘जाति केवल भारत में मिलती है और इस दृष्टि से यह एक अद्भुत संगठन है’। समाजशास्त्री सी.एच.कूले जाति को एक बंद वर्ग बताते हैं जहाँ गतिशीलता सम्भव नहीं है। जाति को अगर सही ढंग से परिभाषित किया जाये तो कहना होगा, ‘जाति एक अन्तर्विवाही समूह है जिसका एक क्षेत्र, एक नाम और एक व्यवसाय होता है’। लुइ ड्यूमा (होमो हायरारक्स) और अन्य विद्वान जाति को एक स्तरीकृत व्यवस्था बताते हैं जिसकी सीढ़ीनुमा व्यवस्था में हर जाति के उपरी या निचले पायदान पर कोई दूसरी जाति विद्यमान है। मजे की बात है कि उनमे आपस में ऊँच-नीच का भाव सदैव अंतर्निहित रहता है।

जातीय भेदभाव और शोषण को देखते हुए मार्क्सवादी मानवशास्त्री जे.पी. मेंचर कहते हैं कि, ‘जाति वस्तुतः शोषण की एक व्यवस्था और इसलिए स्तरीकरण का यह स्वरूप केवल सामजिक-आर्थिक अंतर को बताता है’।  जाति के राजनीतिक महत्व और उसमें आ रहे परिवर्तनों के बारे में प्रख्यात राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी का मानना है कि जाति व्यवस्था कभी समाप्त नहीं होगी बल्कि उसके प्रकार्य बदलते रहेंगे। वास्तव में पहले जाति के सांस्कृतिक प्रकार्य जैसे पवित्र-अपवित्र, कर्मकांड और ऊँच-नीच का भेदभाव ज्यादा महत्वपूर्ण था अब यह व्यक्ति की ‘पहचान’ और राजनीतिक पहलू के रूप में अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। आईएएस अधिकारी और मानवशास्त्री डॉ के. एस. सिंह ने अपने पीपल ऑफ़ इंडिया प्रोजेक्ट में भारत के जातीय, प्रजातीय, भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता का विस्तार से उल्लेख किया है। आदिवासी समाजों से लेकर घोर शहरी उत्तर आधुनिक समाजों तक का अस्तित्व भारतीय समाज में है। जाति एक संस्था के रूप में सवर्त्र मौजूद है। भारतीय जाति व्यवस्था के बारे में कई विदेशी एवं भारतीय विद्वानों ने बहुत सारे अध्ययन और विचार प्रस्तुत किये गए हैं। उनके विचारों के प्रकाश में भारतीय सिनेमा और उससे जुड़े लोगों पर बात करना बहुत ही जरूरी विषय है।

सिनेमा के उदय और विकास की बात करें तो मुंबई के बॉलीवुड से लेकर देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग भाषाओं में फिल्म निर्माण का लम्बा इतिहास है। तमिलनाडु, केरल, बंगाल, पंजाब से लेकर लद्दाख तक विभिन्न भाषाओं में फिल्में और म्यूजिक एल्बम बनाये, देखे और सुने जाते हैं जो कि मनोरंजन का प्रमुख साधन भी है।  इन सांस्कृतिक उत्पादों में भाषायी, क्षेत्रीय अस्मिताओं के साथ-साथ जातीय पहचान या अस्मिता भी प्रकट होती रहती है। संविधान के लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 से भारत एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है लेकिन 6000 से ज्यादा जातियों की मौजूदगी और जातीय पहचान को लेकर अति संवेदनशीलता की भावना लोकतंत्र के लिए एक चुनौती है। डॉ अम्बेडकर ने जातिवाद को लोकतंत्र के एथोस के विपरीत बताया जो सामाजिक लोकतंत्र, भाईचारा और राष्ट्रवाद की भावना के विकास में बाधक है। जातिवाद और जाति के आधार पर ऊँच-नीच का व्यवहार अपने देश की बहुत बड़ी समस्या है। आज भी तथाकथित ऊँची जातियों के लोग उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में दलितों को शादी-व्याह में घोड़ी तक नहीं चढने देना चाहते। ऐसा करने पर आये दिन हिंसक संघर्ष हो रहे हैं। ऐसे संक्रमण काल में यह पड़ताल करना जरूरी हो जाता है कि दुनिया का सबसे बड़ा सिनेमा उद्योग जातिवाद की समस्या को लेकर कितना जागरूक और सम्वेदनशील है और जातिवाद को कम करने के लिए अपने स्तर पर क्या प्रयास कर रहा है?

भारतीय सिनेमा के आरम्भ से लेकर अब तक ‘कास्ट’ या जाति का चित्रण दो तरीके से किया गया है-

  • असमानता पर आधारित जाति व्यवस्था को एक समस्या मानते हुए कथानकों का प्रस्तुतिकरण या दलित या पिछड़े वर्ग के चरित्रों द्वारा कोई महत्वपूर्ण कार्य करने पर उनके संघर्ष को दिखाती फिल्में इस तरह की फिल्मों में मुख्य रूप से अछूत कन्या (1936), सुजाता (1959)  सद्गति, समर, सप्तपदीतर्पण, शुद्र: द राइजिंग, अंकुर, लगान, सैराट, फंडरी, चौरंगा, मसान, जय भीम कामरेड, पपिलियो बुद्धा, भीमराव आंबेडकर, दामुल, एकलव्य, आरक्षण, स्वदेश, बैंडिट क्वीन, बवंडर, चमेली की शादी, गंगाजल, अपहरण, शूल, म्रत्युदंड, मांझी: द माउंटेन मैन, ये मेरा इंडिया, आक्रोश, चंडीदास, अछूत,  अर्पण, परख, अंकुर, बॉबी, गंगा की सौंगध, सौतन, रूदाली, वैलकम टू सज्जनपुर,  दिल्ली 6 (2009), ट्रैफिक सिग्नल (2007) , काला, कबाली

सुजाता में जब नायक (सुनील दत्त) फिल्म की नायिका (नूतन) को एक संवाद में कहते हैं कि, ‘आज मुझे भरोसा हो गया कि नीच जाति होती है’। दिलीप कुमार की दो फिल्मों मशाल और मजदूर में कमजोर पृष्ठभूमि के लडकों (क्रमशः अनिल कपूर, राजबब्बर के द्वारा अभिनीत) को ‘गन्दी नाली के कीड़े’ कहते हुए दिखाया गया है। गंगाजल का दरोगा मंगनी राम, मांझी के दसरथ मांझी, आक्रोश (अजय देवगन) के चरित्र जाति दंश को झेलते हुए दीखते हैं। लगान फिल्म का अछूत ‘घूरा’ भी जातीय भेदभाव के सच को सामने लाता है। ऐसी फ़िल्में और चरित्र कम प्रस्तुत किये गए हैं अतः उन पर काम किया जाना चाहिए। इंडिया अनटच्ड जैसी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों ने जातीय सत्य को अच्छे से प्रस्तुत किया। तमिल भाषा में बनी लीना मनिमेकलाई की फिल्म मदाथी: द अन्फेयरी टेल में तमिलनाडु की पुथिरे वन्नार जाति की भयावह जिंदगी को चित्रित किया है जिसको दिन में बाहर निकलना आज भी न केवल मना है बल्कि अपराध है। एक दशक पहले तमिलनाडु की वाल ऑफ़ शेम जो दलितों को गाँव के अन्य जातियों से अलग करती थी, गिरा दिया गया था। पुथिरे वन्नार जाति के जीवन के अंधेरों को भी अब हमेशा के लिए मिटा देना चाहिए।

  • जातीय गर्व की भावना से प्रेरित होकर फिल्मो का निर्माण

स्वदेश (2004), ओमकारा (2006),दबंग (2010) दबंग 2 (2012) बुलेट राजा (2013), एक विलेन (2014), टू स्टेट्स (2014),पीकू (2015),तनु वेड्स मनु सीरिज की दोनों फिल्मे  (2011, 2015), जॉली एल.एल.बी सीरिज की दोनों फिल्में (2013, 2017),बजरंगी भाईजान (2015) बागी एवं बागी 2 (2016, 2018), बरेली की बर्फी (2017), शादी में जरूर आना (2017), टॉयलेट: एक प्रेम कथा (2017).

यहाँ जाति एक समस्या नहीं बल्कि स्वाभिमान के रूप में आती है। तथा कथित उच्च जातीय टाइटल वाले हीरो-हीरोइन इन फिल्मों में लगातार प्रस्तुत किये जा रहे हैं और मजे की बात यह है की बरेली की बर्फी की बिट्टी मिश्रा और चिराग दुबे, शादी में जरूर आना की आरती शुक्ला और सत्येन्द्र मिश्रा, बजरंगी भाईजान के पवन चतुर्वेदी, दबंग के चुलबुल पांडे, टॉयलेट एक प्रेम कथा के केशव शर्मा और जया जोशी इत्यादि फिल्मों में नायक और नायिका सभी एक ही जाति के हैं। ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। आप स्वयं अवलोकन करें तो ये पायेंगे कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक तबका, उसकी पहचान, उसकी समस्याएँ, उसकी कहानियां फिल्मों के परिदृश्य से गायब कर दी गयी हैं। बुलेट राजा फिल्म में तो हीरो राजा मिश्रा (सैफ अली खान), रूद्र त्रिपाठी, लल्लन तिवारी, रामबाबू शुक्ला सभी चरित्र एक ही जाति के हैं और सैफ अली खान राजा मिश्रा के रोल में परशुराम से लेकर रावण तक सभी चरित्रों की तारीफ करते दीखते हैं। ऐसी फिल्मों का उदेश्य क्या है यह समझ से परे है।  होना यह चाहिये था कि जाति व्यवस्था में व्याप्त ऊँच-नीच और शोषण को समाप्त करने के संदेश देने का काम होता। निश्चित रूप से तब भारतीय राष्ट्र निर्माण में फिल्मों की भूमिका सकारात्मक तरीके से दर्ज होती।

जाति विद्वेष में लिथड़े प्रकाश झा से अनुराग कश्यप तक

अनुराग कश्यप अपनी फिल्म गुलाल में राजस्थान के जमींदार परिवार का खोया हुआ गौरव लौटाने को आतुर दीखते हैं। के. के. मेनन द्वारा अभिनीत चरित्र यह कहते हुए परदे पर दीखता है कि हमारी रियासतों को खत्म कर सरदार पटेल ने भारतीय गणराज्य में मिलाकर हमारा नुकसान किया। हमें अपनी प्रतिष्ठा वापस पाने के लिए एकजुट होकर प्रयास करना होगा। शूल (1999) फिल्म में यादव जाति के खलनायक ‘बच्चू यादव भैया जी’  की विधिवत प्राण प्रतिष्ठा करते हैं जिसे प्रकाश झा अपनी फिल्म गंगाजल (2003) में साधू यादव, सुन्दर यादव और बच्चा यादव के सहारे आगे बढाते है। मनोज वाजपेयी और अनुराग कश्यप मित्र हैं और दोनों ने बॉलीवुड में एक दूसरे की मदद की है। शूल फिल्म बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी है और इस फिल्म में दोनों दोस्तों की केमेस्ट्री देखते बनती है और दोनों मिलकर यादवों के गुंडाराज का अंत करते हैं। अनुराग कश्यप अपनी हालिया फिल्म मुक्काबाज़ में तो वर्णव्यवस्था स्थापित करके पूरी तरह मुतमईन होकर ही दम लेते हैं। अनुराग ने देव डी, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, नो स्मोकिंग और उड़ता पंजाब जैसी फिल्में भी बनाई हैं लेकिन गुलाल और मुक्काबाज़ उनकी आधुनिकता और प्रगतिशीलता का पिछवाड़ा उघाड़ देती हैं। मुक्काबाज फिल्म का हीरो श्रवण कुमार सिंह, हीरोइन सुनैना मिश्रा, उसके चाचा और मुक्केबाजी संघ के माफिया भगवान दास मिश्रा सब मिलकर प्यार-मोहब्बत, मुक्केबाजी की जिद और अपने-अपने अहम को संतुष्ट करने का ऐसा माहौल बनाते हैं कि फिल्म के आरम्भ से अंत तक जूझते रहते हैं। बनारस निवासी दलित जाति का मुक्केबाजी कोच संजय कुमार, ठाकुर जाति के श्रवण को ट्रेनिंग देने का जोखिम भगवान दास मिश्रा के विरोध के वावजूद उठाता है। परिणाम यह होता है कि उसकी इतनी पिटाई की जाती है कि वह हमेशा के लिए कोमा में चला जाता है। बनारस में जब भगवान दास मिश्रा और संजय कुमार की मुलाक़ात होती है तो उस दृश्य को ध्यान से देखिये कि किस तरह मिश्रा एक दलित को बुरी तरह बेइज्ज़त करता है और वह जवाब में मुंह तक नहीं खोल पाता। इसी तरह रेलवे में नौकरी के दौरान श्रवण कुमार एक अधिकारी कृष्ण कान्त यादव से इस तरह चिढ़ जाता है कि उसके मुक्के के डर से रेलवे अधिकारी यादव जी अपने पेंट में ही पेशाब कर देते हैं फिर उनका दृश्य समाप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि यादव जी और दलित संजय कुमार की बेइज्ज़ती कर श्रवण कुमार सिंह, भगवान दास मिश्रा की भतीजी सुनैना मिश्रा के साथ वैवाहिक जीवन इस शर्त के साथ बिताने लगता है कि वह भविष्य में किसी मुक्केबाजी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेगा। इसी शर्त पर भगवान दास मिश्रा श्रवण को माफ़ करता है और उसकी जान बख्शता है। फिल्म के अंतिम दृश्य में श्रवण कुमार सिंह बहुत सम्मान से भगवान दास मिश्रा का पैर छूकर आशीर्वाद लेता है। फिल्म के क्लाइमेक्स से ऐसा लगता है कि मुक्काबाज़ का निर्माण अनुराग कश्यप ने वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए किया था। हो सकता है उनका उद्देश्य आज के समाज के यथार्थवाद को दिखाना मात्र ही रहा हो। लेकिन यथार्थ के पीछे भी एक ज़माना होता है जो अनुराग के मानसिक लोक से गायब है।

सन 1990 के बाद का जातिवादी सिनेमा

सन 1990 के दशक के मध्य से जब दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995) फिल्म प्रदर्शित हुई और ग्लोबल दुनिया के खुले बाज़ार में व्यक्ति और पूंजी का आवागमन बढ़ा तो प्रवासी भारतीय समुदाय बॉलीवुड सिनेमा के केंद्र में आ गया। पंजाबी पृष्ठभूमि वाले किरदार जो मेहरा, मेहरोत्रा, मल्होत्रा, सिंह, कपूर आदि टाइटल्स के साथ अपने पंजाबी स्टाइल के गीत-संगीत, मस्ती-भांगड़ा लेकर जोर-शोर से 70 एमएम के पर्दे पर डॉल्बी साउंड सिस्टम के साथ हाजिर हुए तो पूरी दुनिया उन्हें भौचक्क होकर देखती रह गयी। शाहरुख़ खान डायस्पोरा नौजवान के प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित हुए और स्वदेश, परदेश, कभी ख़ुशी कभी गम, कल हो न हो, कभी अलविदा न कहना जैसी फिल्मों इसी रूप में काम किया। इन सभी फिल्मो में इनके किरदार का शीर्षक उच्च जातीय समाज से जुड़ा रहां। इनको भी ध्यान से देखें तो पाएंगे कि बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बसे समृद्ध प्रवासी भारतीयों पर फिल्में तो बनाते हैं लेकिन जो भारतीय ब्रिटिश गुलामी के दौरान फिजी, मारिसस, मलेशिया, इंडोनेशिया, करेबियन देशों में दासों के रूप में ले जाये गये उनके दुःख-दर्द के किस्सों पर कभी सिनेमा नहीं बनाते क्योंकि वे बहुतायत में दलित-पिछड़े वर्गों के थे। हग टिंकर ने अपनी किताब ए न्यू सिस्टम ऑफ़ स्लेवरी में विस्तार से ऐसे प्रवासियों का ज़िक्र किया है।

गरीब दर्शक सिनेमा घरों से भगाए गए

इसी समय दूसरी महत्वपूर्ण प्रघटना हुई वह थी नई पीढ़ी के फिल्मकारों का पुराने स्टाइल के सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा घरों से मोहभंग और मल्टीप्लेक्स की अवधारणा का अपनाया जाना। रिक्शे वाले फ्रंट बेन्चर्स से लेकर बालकनी वाले धनाढ्य वर्ग तक की जेब से टिकट के पैसे वसूलने और सिल्वर-गोल्डन जुबिली होने की ख्वाहिश वाली फिल्मों का दौर सिमटने लगा। खिड़की के बाहर टिकट ब्लैक करके कुछ कमा लेने वाले दलाल विलुप्त हो गये। फ्रंट बेन्चेर्स जो काठ के मजबूत कुर्सियों पर बैठकर फिल्मों का आनंद सीटी बजाकर उठाया करते थे वे दर्शक की परिभाषा से बाहर कर दिए गये। भारत का पहला मल्टीप्लेक्स तमिलनाडु के त्रिची में 1980 में खुला जबकि उत्तर भारत के कानपुर में 2002 में रेव-3 में खुला। मॉल और मल्टीप्लेक्स में घुसने की हिमाकत ये नहीं कर सकते थे। इस नई डकैती वाली मनोरंजन व्यवस्था में 15 रुपये की कोल्ड ड्रिंक और टिकट को 150 में खरीदकर फिल्म देखने और पीने को उनका अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था मंजूरी नहीं देती थी। मल्टीप्लेक्स सिनेमा ने भारतीय गरीब दर्शकों के वर्षों पुराने मनोरंजन के ठिकानों को उजाड़ दिया और अमीरों की जेब के भरोसे दो तीन हफ्तों में ही करोड़ों के वारे-न्यारे, नई तकनीक, एयर कंडिशन्ड और सुख सुविधाओं के सहारे किया जाने लगा। शहरी उच्च जाति-वर्ग के दर्शकों के लिए उन्हीं के जीवन की कहानियों पर दिल चाहता है, प्यार का पंचनामा, शादी के साइड इफेक्ट्स, पॉपकॉर्न खाओ मस्त हो जाओ, हनीमून ट्रेवल प्राइवेट लिमिटेड, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, मेट्रो, चीनी कम जैसी ढेरो फिल्में बनाई जाने लगीं। बनाने वाले, देखने वाले, कमाने वाले अब एक ही जाति-वर्ग के लोग हो गये। गाँव और गरीब की कहानियाँ विस्मृति और उपेक्षा के गर्त में चली गईं।

सन 2010 के बाद की फिल्मों पर गौर करें तो पाएंगे कि छोटे-बड़े देश भर के शहर फिल्मों की विषयवस्तु तो बने हैं लेकिन उनके पात्र सिमटकर कुछ जातियों की कहानी कहने लगे हैं। नब्बे के दशक पहले की फिल्मों में अक्सर खलनायक और चरित्र अभिनेताओं की जाति का पता उनके नाम के टाइटल से चलता था लेकिन अब नायक-नायिकाओं के नाम वीर प्रताप सिंह, आरती शुक्ल, बिट्टी दुबे, अंजलि शर्मा, राज मल्होत्रा, राहुल मेहरा, आर्यन कपूर ही होने लगे। वे अब जय वीरू और बसंती नहीं रहे। आज का सिनेमाई यथार्थ यही है कि नायक या नायिका जो भी कुछ बेहतर परिवर्तन लाने की कोशिश करते दिखेंगे, देशहित में विदेशों से अच्छा कैरियर छोडकर वापस आयंगे या समाज में कुछ भी सकारात्मक घटित हो रहा होगा तो फिल्मों में उन चरित्रों को निभाने वाले नायक-नायिका के टाइटल साफ़ तौर पर उनकी जातीय पृष्ठभूमि को बताते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि देश की बहुसंख्यक जनता की नुमाइंदगी फ़िल्मी दुनिया में कहाँ है कितनी है? राष्ट्रनिर्माण में सभी का योगदान होता है। इस देश के सामान्य लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में क्या मुश्किलें आती है? उनके जीवन से जुड़े अहम मुद्दे क्या हैं? वे अपनी रोज-रोज की मुश्किलों से कैसे वाबस्ता हैं? इस बारे में मुंबई के फ़िल्मकारों की चिंता नगण्य दिखती है। उनका उद्देश्य मनोरंजन परोसकर उनकी जेब लूटने मात्र में है। टेलीविजन के दैनिक धारावाहिक तो बड़े व्यावसायिक घरानों के घर के अंदर के लड़ाई-झगड़ों और शादी-विवाह से अलग कुछ दिखाना ही नही चाहते। वे कर्मकांडों और अन्धविश्वासों की ऐसी स्थापना करते हैं कि औरतों और बच्चों के दिमाग से ये चीजें कभी निकलने ही न पाएँ और वे तार्किक ढंग से सोच भी न सकें।

“हम भारतीय फिल्मो को देखें तो आज असल जिंदगी से परदे तक उच्च जाति-वर्ग, खासकर शहरी लोग ज्यादा प्रभावी है। पहले सम्मानित घरों की लड़कियाँ फिल्मों में जाने से परहेज करती थी लेकिन अब माडलिंग से लेकर फिल्म तक सब जगह उन्हीं जाति-वर्ग की महिलायें मनोरंजन की दुनिया में भरी पड़ी है क्योकि अब वहां बेहिसाब दौलत और शोहरत है।”

जातिवाद और वंशवाद ने हिन्दी सिनेमा को विकसित नहीं होने दिया

बॉलीवुड का चरित्र जातिवादी होने के साथ-साथ, वंशवादी, परिवारवादी, नस्लवादी और क्षेत्रवादी भी है। जब करण जौहर ने फिल्मी परिवारों की नयी पीढ़ी के लोगों को जब भरोसेमंद और अन्य लोगों से बेहतर बताया तो नॉन-फिल्मी बैकग्राउंड की अभिनेत्री कंगना रानावत ने इस बात का विरोध करते हुए ‘नेपोटिज्म का झंडा उठाने वाला मूवी माफिया’ तक कह दिया। यदि हम बॉलीवुड जैसी विशाल इंडस्ट्री की कुछ प्रवृतियों का विश्लेषण करें तो बहुत रोचक तथ्य सामने आते हैं। सीमा के आरपार दोनों तरफ के पंजाब का फिल्म उद्योग में बहुत बड़ा योगदान रहा है और आज भी है। पंजाबी पृष्ठभूमि विशेषकर पाकिस्तान से पलायित होकर आये निर्देशक (बलराज चोपडा, यश चोपड़ा, विजय आनंद, चेतन आनंद), हीरो ( के.एल. सहगल, देवानंद, दिलीप कुमार, राजकपूर, राजेन्द्र कुमार धर्मेन्द्र, मनोज कुमार, विनोद खन्ना, राजेश खन्ना), खलनायक (प्राण, अमरीश पुरी, ओमपुरी, रंजित, प्रेम चोपड़ा, कुलभूषण खरबन्दा) बहुतायत में मिल जाते हैं। बंगाली पृष्ठभूमि से निर्देशक (विमल रॉय, सत्यजित रॉय, ऋषिकेश मुकर्जी), हीरो(अशोक कुमार, किशोर कुमार, विश्वजीत, जॉय मुकर्जी) संगीतकार (हेमंत दा, सचिन वर्मन, राहुल वर्मन), गायक, गायिकाएं (किशोर कुमार, हेमंत, अलका याग्निक, कुमार सानु, शान, श्रेया घोषाल), हीरोइन सुचित्रा सेन, मौसुमी चटर्जी, रीना राय, विपाशा बासु, विद्या बालन इत्यादि की पूरी श्रृंखला है। दक्षिण भारत से रजनीकांत, हेमा मालिनी, रेखा, श्रीदेवी, जयाप्रदा और बहुत सारे निर्माता-निदेशक बॉलीवुड फिल्मों में योगदान करते रहे है। लेकिन फिल्म उद्योग में वर्तमान में दिल्ली, पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र के लोगों का दबदबा है।

मुस्लिम समाज के गीतकार, लेखक, निर्माता-निर्देशक और हीरो, हीरोइन की भरमार है मुंबई सिनेमा में लेकिन उनमे भी उच्च जातीय मुसलमान अशराफ, अज्लाफ़ और शिया लोग ही ज्यादा प्रभावी है। खान तिकड़ी इसकी सबसे बड़ी नजीर हैं। कपूर परिवार, खान परिवार, चोपड़ा परिवार और ऐसे ही तमाम परिवारों के बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी फिल्म उद्योग में अपना वर्चस्व बनाये हुए है। हम भारतीय फिल्मो को देखें तो आज असल जिंदगी से परदे तक उच्च जाति-वर्ग, खासकर शहरी लोग ज्यादा प्रभावी है। पहले सम्मानित घरों की लड़कियाँ फिल्मों में जाने से परहेज करती थी लेकिन अब माडलिंग से लेकर फिल्म तक सब जगह उन्हीं जाति-वर्ग की महिलायें मनोरंजन की दुनिया में भरी पड़ी है क्योकि अब वहां बेहिसाब दौलत और शोहरत है। इसी कारण बॉलीवुड में नॉन फ़िल्मी और कमजोर बैकग्राउंड के लोगों की एंट्री अत्यंत कठिन है। वैसे तो मिहिर बोस ने अपनी किताब बॉलीवुड: ए हिस्ट्री में बॉलीवुड को ‘बेहद कॉस्मोपॉलिटन’ और ‘ग्रेट मेल्टिंग पॉट’ कहा है क्योंकि वहां सभी जाति, धर्म के लोगों के बीच आपसी सहमति से रोटी और बेटी दोनों तरह के संबंध बनते हैं। मिहिर की बात से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन वे लोग कौन हैं और कहाँ आते हैं। ये जानने की कोशिश करने पर सच तक पहुंचना मुश्किल नहीं है।

सन 1913 में पहली मूक फिल्म से लेकर आज तक बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा में बहुत काम हुआ है। गाँव-शहर, अमीर-गरीब, सहयोग-शोषण, जाति-धर्म और सम्प्रदाय सभी तरह के मुद्दों पर फिल्में बनती रही हैं।  जाति समस्या को लेकर अछूत कन्या से लेकर लगान और मुक्काबाज़ तक भी बहुत सारी फिल्में बनी हैं लेकिन कमल हसन के चाची 420 में जिसमे हीरो के नाम जयप्रकाश पासवान में पासवान टाइटल मिलता है नहीं तो आमतौर पर पासवान, बाल्मीकि, जाटव, मौर्या, पटेल, लोधी, विश्वकर्मा, निषाद और देश भर की बहुत सारी जातियों के टाइटल वाले लोगों को हीरो-हीरोइन नहीं बनाया जाता है जबकि यही लोग देश में बहुसंख्यक लोग हैं और दर्शक भी। पूर्वोत्तर भारत की कहनियाँ और उस क्षेत्र के अभिनेता-अभिनेत्री भी बॉलीवुड के हिंदी सिनेमा से गायब हैं। पिंक (2016) फिल्म में एंड्रीया तारियंग नाम की लड़की दिखी जो पूर्वोत्तर से हैं। इस क्षेत्र से सचिन देव वर्मन (संगीतकार) और डैनी जेंग्जोपा (एक्टर) कुछ अन्य नाम हैं। बॉलीवुड अपनी बहुत सारी खूबियों के बावजूद उच्च जाति/वर्ग, वंशवाद, क्षेत्रवाद का समर्थन करता दिखता है। फिल्मों की विषयवस्तु से लेकर फिल्म निर्माण से जुड़े निर्माता-निर्देशक, संगीतकार, कोरियोग्राफर, नायक-नायिकाएं सभी का यदि उनकी पृष्ठभूमि के अनुसार विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि भारतीय समाज का किसान-मजदूर और रोज-रोज खटने, मरने-खपने वाला आम आदमी गायब है या यूँ कहें उनकी मायानगरी के लिए महत्वहीन है। न वह परदे के सामने है और न ही पर्दे के पीछे।

राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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