पुष्पा गुप्ता
वर्षांत आ गया ! साल भर में जो कई मन और टन कविता-कहानी की किताबें और उपन्यास छपे उनका सालाना ऑडिट करने के लिए साहित्य के चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ने अखबारों के साहित्यिक पृष्ठों पर खाता-बहियाँ फैला दी हैं !
इसपर अंदरखाने सभी जगह चर्चा रहेगी कि किसने किसकी चर्चा की और किसको छोड़ दिया !
ये भी चर्चा गरम रहेगी कि इस वर्ष किस-किसको कौन-कौन से पुरस्कार मिले, कौन-कौन टिप्पस भिड़ाकर किस-किस विश्वविद्यालय में स्थापित किस-किस पूर्वज पुरोधा साहित्यकार की पीठ पर जा बैठा, कौन आजकल किस मदारी का जमूरा है.
और किस जमूरे ने मदारी का डमरू-पगड़ी छीनकर उसे ही जमूरा बना दिया, सरकार ने और सेठों-बनियों के किन-किन प्रतिष्ठानों ने किस-किस का सम्मान किया, लेखक संगठनों में क्या-क्या खिंचड़ी पकी. वगैरा-वगैरा … !
दारू-पानी की महफिलें गुलज़ार रहेंगी ! जनवरी की ठण्ड में दिल्ली में होने वाले पुस्तक मेले में भी इन्हीं चेमगोइयों-सरगोशियों का बाज़ार गर्म रहेगा !
साहित्यिक अखाड़ों के इन उस्तादों-शागिर्दों को न साहित्य और संस्कृति के संकट की कोई चिंता होती है और न सामाजिक-राजनीतिक संकट की !
ये जो मंचों पर होते हैं उससे एकदम उलट अन्तरंग महफिलों और निजी जीवन में होते है ! खुद को निराला और मुक्तिबोध की परम्परा से जोड़ते रहते हैं, पर निराला को अगर ऐसे लोग मिल जाते तो वे लट्ठ लेकर उनको दारागंज से झूंसी तक खदेड़ते और मुक्तिबोध पूछते कि साहित्य अकादमी में डोमाजी उस्ताद की उस आत्मकथा का विमोचन कब होने वाला है जो, सुना है कि दरअसल तुमने ही लिखी है !
यह है साहित्य की दुनिया में जारी प्रहसन, जिसे महाकाव्यात्मक नाटक समझा जाता है और जो स्वयं को इस नाटक का धीरोदात्त, धीरप्रशांत या धीरललित नायक समझते हैं वे दरअसल किसिम-किसिम के विदूषक हैं, सरकार और सेठों के दरवाजे पर अपनी पगड़ी रखकर पद-प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की भीख माँगने वाले याचक हैंI
‘दे-दे बाबा, दे-दे , एक वजीफ़ा या ईनाम दे दे, किसी ऊँची कुर्सी पर बैठा दे, दिल्ली नहीं तो गाज़ियाबाद तक पहुँच जाने का ही जुगाड़ कर दे, सारा खर्चा दे देंगे, एक ठो किताब छपवा दे, रसरंजन वाली पार्टी करा देंगे, विमोचन करवा दे, एकाध गो समीक्षा छपवा दे !
पापी पेट का नहीं, सम्मान और नाम-गिराम की महापातकी प्यास का सवाल है बाबा ! किरपा बरसा दे !’