रामस्वरूप मंत्री
31 दिसंबर को समाजवादी नेता राजनारायण की 36वीं पुण्यतिथि है सबके लिए सहज-सरल उपलब्ध रहने वाले इस समाजवादी नेता का पूरा जीवन संघर्ष में ही बीता। देश में शायद पहले ऐसे नेता रहे होंगे, जिन्होंने पराधीन भारत से ज्यादा स्वाधीन भारत में जेलों की यात्राएं कीं। दिलचस्प है कि 69 साल की अपनी जिंदगी में वे 80 बार जेल गए। समय का हिसाब लगाएं तो उनकी जिंदगी के तकरीबन 17 साल कारावास में ही बीते। इनमें तीन साल आजादी से पहले और 14 साल आजादी के बाद के रहे। संघर्ष के प्रति ऐसी निर्भीक आस्था अन्यत्र दुर्लभ है। । बनारस में संपन्न परिवार में पैदा होकर भी सुकून का नहीं, संघर्ष का साथ दिया। डॉ. लोहिया के शिष्यों में वे अनुपम थे। वे गृहस्थ होते हुए भी किसी भी संन्यासी से बड़े संन्यासी थे। उनके-जैसे राजनेता आज दुर्लभ हैं। पद और पैसे के प्रति उनकी अनासक्ति बहुत आकर्षित करती थी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिराजी के खिलाफ ज्यों ही 12 जून 1975 को फैसला दिया, उन्होंने 26 जून को आपातकाल थोप दिया। सारे नेताओं को जेल हो गई। सारे देश को सांप सूंघ गया लेकिन मार्च 1977 में जब उन्होंने फिर चुनाव करवाया तो वे राजनारायण से तो हार ही गईं, सारे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। उस समय माना जा रहा था कि देश में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के मूलाधार राजानारायण ही हैं, हालांकि नेतृत्व की पहली पंक्ति में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवनराम जैसे लोग थे।
समाजवाद की फसल काटने वाले नेताओं के ऊपर आज हजारों बीघे जमीन हड़पने और पैसे बटोरने के आरोप लग रहे हैं तो ऐसे में राज नारायण का चरित्र हमारे सामने उदाहरण बनकर खड़ा है। जनता से मिले चंदे के बल पर ही वह राजनीति करते थे। पैतृक संपत्ति के रूप में मिली जमीन को बटाइदारों को दान कर दिया। यह काम उन्होंने परिवार के विरोध के बावजूद किया। अपने पुत्रों को भी अपनी विरासत का वारिस नहीं बनाया। उनके लिए कोई संपत्ति भी नहीं छोड़ी। आज के नेताओं की तरह अपने परिवार को राजनीति में स्थापित करने का प्रयास नहीं किया, बल्कि अपने पुत्रों को सार्वजनिक जीवन से भी दूर रखा।
आंदोलन में शामिल होने पर नहीं करते थे परहेज
कहीं भी किसी के साथ अन्याय होते देखा तो मंत्री रहते हुए भी आंदोलन में शामिल होने से परहेज नहीं किया। पुलिस की गोली से मारे गए एक व्यक्ति के समर्थन में मंत्री रहते हुए भी उन्होंने प्रदर्शन किया। यह राजनीति में उनके स्वतंत्र विचारों की ओर संकेत करता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव ने आज हमें राज नारायण सरीखे उन विभूतियों को नमन करने का मौका दिया है, जिन्होंने लोकतंत्र की मजबूती के लिए जीवन को समर्पित कर दिया। अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। राज नारायण की जीवनी के प्रत्येक पन्ने में गंभीर विमर्श के मुद्दे हैं, जो लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित कर सकते हैं। उन्हें जागृत कर सकते हैं। देश की ताकतवर नेता एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व को चुनौती देने, पहले कोर्ट और फिर वोट की चोट से उन्हें परास्त करने से भी आगे अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो जाने का साहस भी सिर्फ राज नारायण के चरित्र में ही मिल सकता है।
राजनीति पेशा नहीं, लोकसेवा का मंत्र
जब राजनारायण को लगा कि जिस सरकार के वह अहम हिस्सा हैं, वह लोक कल्याण के पक्ष से भटक रही है तो उन्होंने विरोध का बिगुल फूंक दिया। यह काम सिर्फ राज नारायण जैसा व्यक्ति ही कर सकता था, क्योंकि उनके लिए राजनीति पेशा नहीं, लोकसेवा का मंत्र था। वह उस राजनीति को जीते थे, जिसमें सबका कल्याण छुपा हुआ था। इसीलिए उन्हें लोकबंधु भी कहा गया। सत्ता को चुनौती देने के लिए जो साहस की जरूरत होती है, वह त्याग और नि:स्वार्थ भाव से पैदा होता है। ऐसा भाव राज नारायण में बचपन से ही झलकता था। बनारस राजघराने में जन्म लेने के चलते उन्हें राजपद का प्रस्ताव भी मिला था। परंतु राजसत्ता के वैभव को ठुकराकर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के उस यज्ञ को चुना, जिसमें तपकर उन्होंने समाजवादी राजनीति को समाजसेवा का माध्यम बनाया। राज नारायण से समाजवादी राजनीति की दीक्षा लेने का दावा करने वाले अधिकतर दल वंशवाद, पूंजीवाद, भ्रष्टाचार और अधिनायकवाद के प्रतीक हो चुके हैं। समाज को अपना बनाने की जगह अपनों का समाज बनाने की प्रवृत्ति में लगे रहते हैं। इसलिए आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर सभी दलों को पुन: विचार करना चाहिए कि कैसे राजनीति को फिर से लोक कल्याण का माध्यम बनाया जाए, जिससे राष्ट्र निर्माण की गति तेज हो सके।
(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सोशलिस्ट पार्टी इंडिया मध्यप्रदेश केअध्यक्ष हैं )