(आँखों देखी घटना)
~ डॉ. विकास मानव
_ऐश्वर्य की प्राप्ति होने पर योगी के लिए सब कुछ संभव है। सर्वज्ञ और सर्वकालज्ञ होता है वह। दिक्काल का व्यवधान उसके मार्ग में नहीं होता._
सांझ की स्याह चादर हिमालय के उत्तुंग शिखर पर फैलने लगी। सहसा बर्फ़ीली हवा की गति तीव्र हो गयी और उसी के साथ होने लगी हिमवर्षा।
परमहंसदेव के स्थान से लगभग 3-4 मील दूर एक पहाड़ी गांव में ठहरा हुआ था मैं। ऐसी स्थिति में वापस गांव लौटकर जाना कठिन था. विवश होकर वहीं रात्रि व्यतीत करने का निश्चय कर लिया।
रात्रि का प्रथम प्रहर !
शान्त निस्तब्ध वातावरण ! निर्विकार मुद्रा में पूर्ववत बैठे थे स्वामी योगेश्वरानंद परमहंसदेव। तभी एक विचित्र घटना घटी। धीरे-धीरे गह्वर में स्निग्ध धवल शुभ्र प्रकाश फैलने लगा। फिर वह प्रकाश एक स्थान पर सिमटने लगा और एक मानवाकृति का आकार ग्रहण करने लगा। दूसरे ही क्षण स्पष्ट हो गया सब कुछ।
मेरे सम्मुख एक महात्मा खड़े थे। सौम्य, तेजोमय मुखमंडल, नेत्रों में असीम करुणा और दया। गौरवर्ण के थे वह महात्मा।
उन्हें आसन दिया वहाँ के आश्रम वाले परमहंसदेव ने। ऐसा लगा मानों सम्पूर्ण गह्वर में कोई विचित्र अनिर्वचनीय गन्ध व्याप्त हो गयी है। बाद में ज्ञात हुआ कि वह दिव्य गन्ध महात्मा के शरीर से प्रस्फुटित हो रही है।
उन महात्मा का आगमन हिमालय की संग्रीला घाटी में स्थित सिद्धाश्रम से हुआ था। वह निर्वाण शरीर में थे। किन्तु अपनी प्रबल इच्छाशक्ति के बल पर सूक्ष्मशरीर के द्वारा कभी भी स्थूल शरीर धारण करने में समर्थ थे वे। कुछ काल तक दोनों महापुरुषों के मध्य समाधि की भाषा में वार्तालाप होता रहा।
जब परमहंसदेव ने उन्हें मेरे विषय में बतलाया कि इनका काशी से आगमन हुआ है तो बड़ी सरल भाषा में मुस्कराते हुए बोले :
“अच्छा ! जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस काशी पधारे थे, तब उनके अनुरोध पर सत्संग के लिए एकबार काशी जाना हुआ था मेरा।”
हे भगवान् !
क्या कह रहे हैं यह महात्मा ! आश्चर्य से अपने आप में बुदबुदाने लगा मैं– रामकृष्ण परमहंस को तो शरीर त्यागे एक लम्बा समय हो गया।
मेरे भाव को समझ लिया महात्मा ने। बोले वह–इसमें आश्चर्य की बात क्या है ? ऐश्वर्य की प्राप्ति होने पर योगी के लिए सब कुछ सम्भव है। सर्वज्ञ और सर्वकालज्ञ होता है योगी। दिक्काल का व्यवधान नहीं होता है उसके मार्ग में। ऐश्वर्ययुक्त होने के कारण ही परमात्मा को ईश्वर कहा जाता है।
जब किसी सिद्ध साधक, संत-महात्मा, योगी या तंत्र-साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है, सात शरीरों में से अंतिम ‘निर्वाण शरीर’ की उपलब्धि हो जाती है तो फिर उसके बाद कुछ भी उसके लिए अनुपलब्ध नहीं रहता। वह ईश्वर का स्वरूप हो जाता है।
उन महात्मा के साथ प्रसंग था–जीवनमुक्ति का। इस विषय में बोले वह–बाहर का व्यवहार देखकर किसी की सामर्थ्य नहीं कि वह जीवन्मुक्त व्यक्ति को पहचाने।
जीवन्मुक्त वास्तव में जीवन्मुक्त है या नहीं–यह अनुभव करने के लिए एकमात्र उपाय यह है कि सामान्यतया मनुष्य दूसरे का विचार करते हुए, उसके गुण-दोष देखकर, उसी के आधार पर उसका मूल्यांकन कर लेता है। परन्तु इस विचार के मूल में अज्ञान है।
जब तक अपने में ‘कर्तृत्व का अभिमान’ रहता है, तब तक जगत् में सब जगह कार्तित्वाभिमान ही दिखलाई पड़ता है उसे। किन्तु कार्तित्वाभिमान का भाव छूटने पर आगे चलकर उसको अनुभव होता है कि समस्त संसार इस अभिमान में बंधा हुआ है। इसीलिए ही अपने आप को ‘अच्छे-बुरे कर्मो का कर्ता’ समझता है वह।
वास्तव में कर्तित्वाभिमान छूटने पर दिख पड़ेगा कि कोई किसी कर्म का कर्ता नहीं। कर्ता है–परमाशक्ति। वह जिस आधार से, जिस प्रकार का कर्म करती है, वह वैसा ही कर्म करने को प्रवृत्त हो जाता है। इसमें कर्ता की स्वतंत्रता नहीं है। संसार इस आधार को कर्ता समझकर दोषी या गुणी ठहराता है। संसार की दृष्टि से यह ठीक भी है।
जीवन्मुक्त पुरुष की दृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। वह स्पष्ट देखता है कि सब कर्मो का वास्तविक कर्तित्व एकमात्र महाशक्ति में है, जीव में नहीं। इसीलिये जीव किसी कृतकर्म के लिए उत्तरदायी नहीं है। परन्तु अपने अन्दर कर्तित्व अभिमान रहने के कारण ही जीव उत्तरदायी बन जाता है।
यही उसकी अज्ञानता है, अविद्या है। वास्तव में एक कठपुतली यदि अच्छी तरह से नाचती है तो उसमें कठपुतली का महत्व नहीं है। महत्व होता है नचाने वाले का। मनुष्य भी उस महाशक्ति के हाथों में एक कठपुतली ही है। इस प्रकार की दृष्टि एक जीवन्मुक्त पुरुष को छोड़कर किसी की नहीं हो सकती।
यदि किसी में यह दृष्टि खुल गयी तो उसे जीवन्मुक्त समझना चाहिए। जीवन्मुक्त पुरुष एकमात्र महाशक्ति का कर्तृत्व देखते हैं।