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फ़िल्मों का विरोध …अभिनेता को लेकर या कभी अभिनेता के धर्म को लेकर

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आए दिन कोई ना कोई फ़िल्म का विरोध किया जा रहा है। कभी फ़िल्म के नाम को लेकर कभी अदाकारी को लेकर कभी फ़िल्म अभिनेता को लेकर या कभी अभिनेता के धर्म को लेकर। यहाँ तक तो चलो समझ में आता है कि फ़िल्म की स्क्रिप्ट कुछ अलग रही होगी या किसी धर्म के ख़िलाफ़ या धर्म का मज़ाक़ बनाया गया होगा। हद तो जब हो जाती है जब एक फ़िल्म का विरोध उस फ़िल्म में अभिनेत्री के कपड़ों के रंग को लेकर उस फ़िल्म का विरोध किया जा रहा है। और हद तब हो जाती है जब उस फ़िल्म के अभिनेता को निशाना बनाया जाता है। इसके आगे लिखने से पहले मेरा एक सवाल क्या यह सही है?

एक फ़िल्म निर्माण के लिए सिर्फ़ एक अभिनेता ही ज़रूरी नहीं होता। एक फ़िल्म एक पूरा क्रू बनाता है जिसमें डायरेक्टर से लेकर लाइटमैन, स्पॉट हर वो बंदा जो उस क्रू में काम कर रहा है, उस का पद छोटा हो या बड़ा वो उस फ़िल्म के अभिनेता से कहीं ज़्यादा मेहनत करता है। हम इस को एक उदाहरण से समझते हैं, मान लो एक फ़िल्म निर्माण में 50 दिन लगेंगे। उस फ़िल्म के क्रू की संख्या 100 हैं। जिसमें डायरेक्टर और लेखक फ़िल्म निर्माण से पहले और फ़िल्म शूट करते समय अपना सारा फोकस हर रोज़ की एक्टिविटी और शूट होने वाले हर रोज़ के सीन को गहराई से देखेंगे और समझेगे फिर उसको शूट करेगे। ये बिना रुके 50 दिन उस फ़िल्म पर दिन रात काम करेंगे। एक कैमरामैन 50 दिन लगातार डायरेक्टर की अवाज पर कैमरा चलायेगा। लाइटमैन कैमरामैन के इशारों पर लाइट देगा। और भी अलग-अलग डिपार्टमेंट इसी तरह लगातार 50 दिन काम करेगे। लेकिन लेकिन एक अभिनेता कभी 50 दिन काम नहीं करता वो जब ही सेट पर आएगा जब उसका सीन होगा और वो उतना ही करेगा जितना उसका फ़िल्म में रोल है। वो सिर्फ़ अपना ही सीन पढ़ेगा और एक्टिंग करेगा फ़िर चला जाएगा। लेकिन जो बाक़ी क्रू है वो वही रहेगा और वैसे ही काम करेगा। और एक अभिनेता डायरेक्टर और लेखक के इशारो पर काम करता है अथार्थ अपनी मर्ज़ी से वो कुछ बोल भी नी सकता जो लेखक ने लिख दिया वो बोलना और जो डायरेक्टर ने बोल दिया वो पहनना या करना। तो क्या विरोध अभिनेता का ना होकर डायरेक्टर या लेखक का होना चाहिए?

अब हम बात करते है उस फ़िल्म से जुड़ी आशाओं को लेकर!
एक फ़िल्म का फ़्लॉप या हिट होना सिर्फ़ अभिनेता प्रोडूसर, डायरेक्टर या लेखक उनके लिए नहीं होता। एक फ़िल्म में काम कर रहे स्पॉट, लाइटमैन और हर डिपार्टमेंट के असिस्टेंट्स की सबसे ज़्यादा आशाए होती है क्योकि अगर फ़िल्म हिट होती है तो उनको आगे बहुत अवसर मिलते है। जिस तरह एक अभिनेता का भविष्य उस फ़िल्म पर निर्भर होता है उसी तरह उस पूरे क्रू का भी होता है। अगर हम किसी एक फ़िल्म का बज़ट देखे तो हम पायेंगे की यदि एक फ़िल्म का बजट 100 करोड़ है तो वो पैसा जा कहाँ रहा है। अब ये तो हम बोल नहीं सकते कि कुछ अमीरों के बच्चे स्पॉट में काम करते होंगे या असिस्टेंट की तरह काम करते होंगे। वहाँ कोई मिडल क्लास फ़ैमिली से होगा या कोई गरीब परिवार से होगा। तो एक अभिनेता अपनी मज़दूरी जहां 50 करोड़ ले लेगा 100 करोड़ की मूवी के बजट से लेकिन जो बाक़ी बचे 50 करोड़ है वो भी तो कही जाते है। अगर हम हमारे देश का हाल देखें तो सरकार ने इतनी नौकरियां नहीं दी होंगी जितनी एक फ़िल्म इंडस्ट्री ने छोटे-छोटे आर्टिस्टेंट, लाइटमैन, असिस्टेंट्स और स्पॉट को मौका दिया होगा।

और आज हम एक फ़िल्म का विरोध सिर्फ़ इसीलिए कर रहे हैं की वो अलग धर्म का है, यानी मुस्लिम है। लेकिन हम अंधे हो चुके हैं. हम एक धर्म एक इंसान की वजह से उनको नहीं देख पा रहे हैं जो उस इंसान के पीछे खड़े हैं और निर्दोष हैं। धर्म के नाम पर हम उस अभिनेता का विरोध तो कर रहे हैं लेकिन उनका भी गला घोंट रहे हैं जिन्होंने उस अभिनेता की फ़िल्म में काम कर के अपना घर चलाया है। क्या ये धर्म है?

एक तरफ़ हमारा धर्म कहता है कि एक निर्दोष के लिए 100 गुनहगारों को छोड़ दो। लेकिन शायद हम ख़ुद अपना धर्म भूल चुके हैं। हम हिंदू-मुस्लिम तो कर रहे हैं लेकिन साथ में हिंदू हिंदू का दुश्मन भी बनता जा रहा है। जहां एक तरफ़ हिंदू, हिंदू राष्ट्र की माँग हो रही है करोड़ों ₹ ख़र्च किए जा रहे हैं। वही, दूसरी तरफ़ किसी के घर चूल्हा नहीं जल रहा है। सरकार कहती है बच्चों को हम फ्री पढ़ाएंगे , किसानों को सब्सिडी देंगे, हर घर चूल्हा जलेगा कोई भूखा नहीं सोएगा। लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल है कि जो सरकार ने संस्थाए बनाई हैं , जो मुहिमें चलाई हैं उनको लोगो तक पहुँचाएगा कौन?

अगर इस संदर्भ में आप यह कहेंगे कि मीडिया तो शायद यहाँ प्रश्न चिन्ह बनता है? क्योंकि पिछले कुछ सालों से अगर मीडिया ने दिखाया है तो वो राजनीति है लोगों को सिखाया है तो वो राजनीति है। हर दिन चुनाव या हिंदू-मुस्लिम सिर्फ़ इनके अंदर ही मीडिया उलझ कर रह गई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कृषि क़ानून बिल वापस लिया गया क्योंकि मीडिया और सरकार दोनों समझाने में नाकामयाब रही, अग्निवीर तक को मीडिया और सरकार नहीं समझा पाई, इनके अतिरिक्त और भी बड़े मामले रहे जहाँ मीडिया और सरकार दोनों नाकायमयाब रही।

अंत में मेरा एक सवाल- क्या मीडिया को कुछ समय के लिए राजनीति से दूर कर के उसका ध्यान किसानों, बच्चों, नई रणनीतियां, टेक्नोलॉजी, अन्य क्षेत्रों की तरफ़ कर देना चाहिए?

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