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ध्यान : प्रकृति की नियमितता का संज्ञान

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डॉ. विकास मानव

    _सुखासन या किसी अभीष्ट आसन में बैठिये। आँखें मूँदें; ओ३म् के जाप सहित तीन दीर्घ श्वास लीजिए।_

     मन में विचार लाएँ कि आप अपने गृह में ध्यान में बैठे हैं । यह गृह अमुक शहर में, अमुक देश में, इस पृथ्वी-ग्रह पर है जो सूर्य के इर्द-गिर्द घूम रहा है। 

       सूर्य अपनी आकाश गंगा (Milky Way) की धुरि के इर्द-गिर्द अपने समस्त सौर मण्डल के साथ 150 मील प्रति सैकिंड की गति से घूम रहा है। 

आकाश गंगा का व्यास 3 लाख प्रकाश-वर्ष (Light Years) है। अर्थात् प्रकाश जो सूर्य से पृथ्वी पर पहुंचने में 8 मिनिट लगाता है, 186281.6 मील प्रति सैकिंड की गति से आकाशगंगा के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने में तीन लाख वर्ष लगाएगा। 

    सूर्य को आकाश गंगा की परिक्रमा में 25 करोड़ वर्ष लगते हैं। वह आकाश गंगा हमारे सौर मण्डल एवं अपने अन्य अरबों सूर्यों एवं उनके ग्रहों, उपग्रहों को साथ लिये प्रति सैकिंड 500 मील की गति से अथाह आकाश में भाग रही है। 

       स्पष्ट है, हम भी इसी गति से अथाह अनन्त आकाश में गति कर रहे हैं और हमें हिचकोला तक नहीं आता। (ध्यान दीजिए ,जब हम रेल गाड़ी में बैठे होते हैं, जो सौ मील प्रति घंटा चल रही होती है, हम भी सौ मील प्रति घंटा गति कर रहे होते हैं, तभी तो कुछ घंटों में दिल्ली से मुम्बई में होते हैं।)

       इसी प्रकार अरबों अन्य आकाश गंगाएं कल्पनातीत गति से अथाह आकाश में भाग रही हैं जो न जाने किस के इर्द-गिर्द चक्कर काट रही हैं? कौन सी वह शक्ति है जो इन्हें बांधे हुए है कि ये आपस में नहीं टकरातीं और चूर-चूर हो जातीं? कौन सी ऐसी शक्ति है जो इन अरबों आकाश गंगाओं को, जिनमें प्रत्येक में अरबों सूर्य हैं, अपने में लिये हुए गतिशील कर रही है? 

क्या यह वही शक्ति है जिसे वेदों में ‘नेति नेति’ (उसका कोई अन्त नहीं, कोई अन्त नहीं ) कहा गया है और ‘हिरण्यगर्भ’ नाम से वर्णित किया गया है ? 

     यो विद्यात् सूत्रं विततं यस्मिन्नोताः प्रजा इमाः।

सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्यात् ब्रह्मणं महत्।।

      अर्थात् जो मनुष्य उस तने हुए सूत्र को जानता है जिस सूत्र में सब लोक-लोकान्तर तथा उत्पन्न हुई वस्तुएँ ओत-प्रोत हैं या माला के मनकों के समान पुरोई हुई हैं और जो इस सूत्र के भी सूत्र (धारक शक्ति) को जान लेता है, वह महान् परमेश्वर को जान जाता है।  

यही भाव भगवद्गीता (7.7) में भी व्यक्त किया गया है :

“मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव.”

अर्थात् मुझमें ही यह सारा विश्व धागे में मनकों की भाँति पिरोया हुआ है। 

      निस्संदेह जैसे बल्ब को जलता देख कर या पंखे को चलता देख कर विद्युत का अनुमान लगाया जा सकता है, वैसे इस ब्रह्माण्ड के असंख्य सूर्यों के प्रकाश और गति से ईश्वर का अस्तित्व स्पष्ट प्रतीत होता है।

ऐसे सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, सर्वज्ञानसम्पन्न परमात्मा को मैं श्रद्धा और स्तोत्यभाव से नमन करता हूँ। 

     तदनन्तर अपने मन में अनन्तता का भान करें और  “ओ३म् खं ब्रह्म ” (ईश्वर आकाशवत् सर्वव्यापक और महान् है) का जाप करें।

     यजुर्वेद (33.31) का मंत्राश है :

    देवं वहन्ति केतव:।

    ये सूर्य आदि दैवीय शक्तियां झण्डे के समान उस ईश्वर की कीर्ति फैलाती है.

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