एस पी मित्तल, अजमेर
हेमंत प्रियदर्शी राजस्थान में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर के अधिकारी हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रियदर्शी को एक जनवरी को ही भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के महानिदेशक का अतिरिक्त प्रभार सौंपा। यानी हेमंत प्रियदर्शी महानिदेशक नहीं होते हुए भी एसीबी के महानिदेशक बन गए। ऐसा तभी होता है, जब मुख्यमंत्री की विशेष कृपा हो। वैसे भी एसीबी का डीजी, मुख्यमंत्री का भरोसेमंद आईपीएस ही बनता है। राजस्थान में तो एसीबी भी सरकार बचाने और अपनी ही पार्टी में विरोधियों को कुचलने के काम आती है। एसीबी कितनी उपयोगी है, यह बात गृह मंत्री की हैसियत से भी अशोक गहलोत जानते हैं। राजस्थान में गृह विभाग का प्रभार भी मुख्यमंत्री गहलोत ने अपने पास रखा है। एसीबी का महानिदेशक बनते ही हेमंत प्रियदर्शी ने सबसे पहला आदेश भ्रष्टाचारियों को बचाने वाला जारी किया है। 4 जनवरी को जारी आदेश में प्रियदर्शी ने एसीबी के सभी पुलिस अधीक्षकों को हिदायत दी कि जिन सरकारी कार्मिकों को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा जाए, उनके नाम और फोटो मीडिया में न दिए जाए। यानी आरोपी की पहचान उजागर नहीं होनी चाहिए। प्रियदर्शी का कहना रहा कि न्यायालय में आरोप सिद्ध होने के बाद ही आरोपी का नाम और पहचान उजागर हो। हेमंत प्रियदर्शी ने भ्रष्टाचार के आरोपियों के प्रति हमदर्दी क्यों दिखाई है, यह तो वही जाने, लेकिन प्रियदर्शी को यह बताना चाहिए कि उनके काले आदेश पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सहमति है या नहीं। क्या इतना बड़ा फैसला एक अतिरिक्त प्रभार वाले अधिकारी ने अपने स्तर पर ले लिया? आमतौर पर बड़े अधिकारी अपने स्तर पर निर्णय नहीं लेते हैं। अधिकारियों को अब अपनी कुर्सी अच्छी लगती है और अतिरिक्त प्रभार वाला अधिकारी तो फूंक फूंक कर कदम रखता है। अशोक गहलोत तो देश के सबसे होशियार और समझदार मुख्यमंत्री हैं, इसलिए स्वयं तो कुछ नहीं बोलेंगे, लेकिन यदि हेमंत प्रियदर्शी ने काला आदेश अपने विवेक से जारी किया है तो गहलोत सरकार को तत्काल प्रभाव से एसीबी के डीजी का अतिरिक्त चार्ज वापस लेना चाहिए। यदि हेमंत प्रियदर्शी को एसीबी का डीजी बनाए रखा जाता है तो यही माना जाएगा कि काले आदेश पर मुख्यमंत्री की सहमति है। रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े गए सरकारी कार्मिक का नाम और पहचान छिपाने का मानवाधिकार वाला तर्क समझ से परे हैं, क्योंकि पर्याप्त सबूत एकत्रित करने के बाद ही कार्मिक को रंगे हाथों पकड़ा जाता है। रिश्वत की पहली किस्त स्वीकारने के बाद दूसरी किश्त लेने पर ही पकड़ा जाता है। इतना ही नहीं अधिकांश मामलों में रिश्वत लेने वाले अधिकारी की आवाज भी मोबाइल पर रिकॉर्ड की जाती है। एसीबी के पास वही पीड़ित पहुंचता है जो बहुत दुखी और परेशान होता है। 95 प्रतिशत रिश्वत के मामले एसीबी के पास पहुंचते ही नहीं है। जो अधिकारी गुंडाई कर रिश्वत वसूल रहा है, उसके मानवाधिकार की चिंता की जा रही है? सरकारी कार्यालयों में फैले भ्रष्टाचार की वजह से आम आदमी बहुत परेशान है। देखा जाए तो भ्रष्टाचारी की पहचान उजागर होना ही उसकी सजा है। अधिकांश मामलों में तो आरोपी न्यायालय से बरी हो जाता है।
काला आदेश रद्दी की टोकरी में:
इधर 4 जनवरी को हेमंत प्रियदर्शी का काला आदेश जारी हुआ तो उधर इसी दिन भास्कर अखबार ने इस आदेश को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। 4 जनवरी को एसीबी ने नागौर में दो एएनएम और कोटा में एक सरकारी कार्मिक को रिश्वत लेते हुए पकड़ा। हालांकि एसीबी स्थानीय अधिकारियों ने अपने डीजी के आदेश की पालना करते हुए दोनों एएनएम और सरकारी कार्मिक के नाम फोटो उपलब्ध नहीं करवाए, लेकिन भास्कर ने एसीबी के अंदर घुसकर तीनों आरोपियों के फोटो लिए और फोटो के साथ नाम भी प्रकाशित किए। भास्कर ने घोषणा की है कि वह काले आदेश को नहीं मानेगा और जो भी आरोपी रंगे हाथों पकड़े जाएंगे उनके नाम और फोटो उजागर करेगा। भास्कर के इस फैसले के बाद हेमंत प्रियदर्शी का काला आदेश कोई मायने नहीं रखता है। यहां यह खास तौर से उल्लेखनीय है कि गत भाजपा शासन में अभियोजन स्वीकृति से पहले आरोपियों की जानकारी सार्वजनिक नहीं करने का अध्यादेश भी जारी किया गया था। तब राजस्थान पत्रिका ने इस अध्यादेश का खुला विरोध किया। यहां तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की फोटो और नाम छापने से भी इंकार कर दिया। बाद में मीडिया के दबाव से सरकार को विधानसभा में काला अध्यादेश वापस लेना पड़ा। अब देखना होगा कि हेमंत प्रियदर्शी के काले आदेश का क्या हश्र होता है।