सुसंस्कृति परिहार
इसे हिन्दुत्व पर चोट कहने वाले गुनहगार है कलयुग में जब आदमी मशीन बन गया हो तो फिर संवेदनाओं का क्या काम ? साहिब जी ने जो किया वह कल की ज़रूरत है।उनकी दूरगामी कार्य पद्धति पर शकोसुबह करना बेमानी है।जब हम जानते हैं उनकी रगों में व्यापार का लहू दौड़ रहा है वहां संवेदनशीलता का क्या काम। जहां फायदा देखना ही कायदा है।
सनातनी यानि कथित तौर पर हिंदूवाद और हिंदुत्व के नाम पर वोट अर्जित कर सत्ता पर काबिज हमारे साहिब जी का पिछले दिनों जो चेहरा सामने आया है वह कतई हिंदू संस्कारों वाला नज़र नहीं आता। तो क्या अयोध्या में राममंदिर निर्माण और उससे जुड़े पूर्व के तमाम कारनामे सिर्फ ढकोसले थे । विश्व नाथ मंदिर बनारस हो या केदारनाथ बाबा के दरबार में जो प्रर्दशित हुआ वह सब भी नाटकीय था। असलियत तो उस समय सामने आई जब साहिब की माताजी परलोक गमन कर गई। पांच भाइयों में सबसे बड़े भाई सोमा भाई से अन्तिम संस्कार का हक छीनकर तीसरे नंबर के पुत्र नरेन्द्र भाई ने संस्कार किया जबकि माताजी सोमा भाई के पास ही रहती थीं। हिंदू धर्मानुसार बड़े पुत्र के मौजूद ना रहने पर यह हक सबसे छोटे पुत्र को मिलता है लेकिन मंत्रीमंडल जैसी तानाशाही की तरह का व्यवहार इस दुखद अवसर भी देखने को मिला।कर्मकांडी चुप बैठे रहे।यह कैसा हिंदुत्व है?क्या अब जो दमदार होगा उसे ही ये अधिकार मिलेगा।कुछ तो बोलो कर्मकांडियो।
इससे बड़ा गुनाह तो साहिब ने यह भी कर दिया कि अपनी पत्नी जसोदाबेन पर पहरा बैठा दिया गया कि वे बड़नगर जाकर अपनी सासुमां का दर्शन भी नहीं कर पाईं। ऐसा तो समाज में लड़ते-झगड़ते परिवारों में भी नहीं देखा जाता।दुख के समय सभी लोग शामिल होते हैं। यहां यह प्रश्न उठता है कि अपने पहले लोकसभा चुनाव में जसोदाबेन को अपनी बीबी लिखने वाले ने सिर्फ और सिर्फ उनका नाम फार्म रिजेक्ट ना हो इसलिए भर दिया हो क्योंकि इससे पूर्व विधायक चुनाव में पत्नी का नाम कभी नहीं लिखा।इस विषय पर उनके तमाम भाई वगैरह भी चुप रहे।ये कैसा और कौन सा धर्म मानते हैं कि घर के सदस्यों की इस तरह उपेक्षा की गई।अगर साहिब को जसोदाबेन से इतना ही परहेज़ था तो तलाक क्यों नहीं लिया।एक स्त्री को तमाम ज़िन्दगी जो सजा दी गई उस पर सोचेंगे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि साहिब ने अपनी मां हीरा बा और पत्नी को सिर्फ अपनी राजनैतिक दुकान चलाने में इस्तेमाल किया। उनके मौलिक अधिकारों का बुरी तरह हनन किया गया।
इसीलिए तो मां को अग्नि को समर्पित करने के चंद घंटे बाद वन्देमातरम् रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाने पहुंच जाते हैं।अपनी मां के ग़म में वे कुछ दिन भी नहीं दे पाए। हिंदू धर्म के संस्कार के मुताबिक अन्त्येष्टी करने वाला तेरह दिन तक घर नहीं छोड़ सकता।इन दिनों सूतक माना जाता है।किसी शुभकार्य को नहीं कर सकते पर साहिब तो ठहरे मनमौजी। इससे पहले भी अशुभ मुहूर्त में अयोध्या में राममंदिर का भूमिपूजन कर देते हैं। केदारनाथ बाबा हों या बनारस का कारिडोर पावन स्थलों का राजनैतिक भाषणों के लिए इस्तेमाल करते हैं। सबको धता बता कर कहरदम मनमानी करते हैं। लगता है वे सिर्फ अपने मन की कहते नहीं है बल्कि करने में पीछे नहीं हैं।जिस हिंदुत्व के नाम पर लोगों को उकसाते रहते हैं वह उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
आइए, साहिब जी से प्रेरणा लें कि कर्मकांडियों के पाखंड से अपने को दूर रखें जो आपका मन कहे उसे स्वीकार करें।हमारा अपना जीवन है धर्म और पाखंड के वितंडावाद में ना पड़ें जो आया है वो जाएगा उसकी याद में समय नष्ट ना करें। तमाम रिश्ते झूठे हैं अपने काम से मतलब रखें बस। हमारे साहिब बड़े ज्ञानी ध्यानी है यह ज्ञान उन्हें संघ की शाखाओं से मिला,घर से भागकर तपस्या से मिला है। उसकी उपेक्षा ना करें। कर्मकांडियों को सबक सिखाएं। उन्होंने जो किया वह इनके मुंह पर तमाचा है। मां,बीबी, भाईयों और प्रजा से बढ़कर हम दो और हमारे दो हैं।भक्तों चलो हम भी बनाए हम दो और हमारे दो। समाज से बढ़कर ये साथ होता है।मगर ध्यान रखें कि प्रत्येक व्यक्ति इस ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकता।। इसके लिए साहिब जैसा दमदार व्यक्तित्व अपेक्षित है।
इसे हिन्दुत्व पर चोट कहने वाले गुनहगार है कलयुग में जब आदमी मशीन बन गया हो तो फिर संवेदनाओं का क्या काम ? साहिब जी ने जो किया वह कल की ज़रूरत है।उनकी दूरगामी कार्य पद्धति पर शकोसुबह करना बेमानी है।जब हम जानते हैं उनकी रगों में व्यापार का लहू दौड़ रहा है वहां संवेदनशीलता का क्या काम। जहां फायदा देखना ही कायदा है।