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आधारभूत चिंतन : वैदिक योग और तान्त्रिक योग

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डॉ. विकास मानव

      साधारणतः प्रचलित जिन योग पथों का वर्णन किया गया है , जरा विचार कर देखने से हमें पता लगेगा कि उन सबके पीछे एक ही मूल भाव है। देखने में चाहे वे कितने भी विभिन्न क्यों न प्रतीत हों , जिस मूल , वस्तु का आश्रय लेकर हम इन सब साधन – पथों पर चलते हैं वह मूल वस्तु है ज्ञान , और इसीलिये इनको ‘ वेदान्तिक मार्ग ‘ कहा जा सकता है।

        ज्ञान योगी हो , भक्तियोगी हो , कर्मयोगी हो , सब साधकों का अवलम्बन ज्ञान है , मूलतः ज्ञान को ही लक्ष्य और उपायरूप से धारण कर वे अग्रसर होते हैं। ज्ञानी का विचार – वितर्क ज्ञान का एक रूपमात्र है। इस ज्ञान की प्रतिष्ठा तो बुद्धि में है ही। किन्तु भक्त या कर्मी का ज्ञान तर्कबुद्धि से उत्पन्न नहीं होने पर भी ज्ञान ही है।

         भक्त के ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है हृदय में , वह ज्ञान प्रस्फुटित हुआ है प्रेम , श्रद्धा और विश्वास के भीतर होकर। कर्मो का ज्ञान उसकी इच्छा शक्ति के पीछे चलता है. यह ज्ञान ही इच्छाशक्ति के भीतर होकर कर्म में मूर्तिमान हो उठता है. राजयोग और हठयोग के पीछे भी इसी ज्ञान की प्रधानता है।

       इन सभी योगों में पुरुष ही साधक – आत्मा ही द्रष्टा , ज्ञाता , अनुमन्ता , भर्त्ता और भोक्तारूप में साधना कर रहा है. वही विधि और निषेध का निश्चय करता है और वही आधार को किस तरह सजाना होगा – यह बतलाता है।

      वास्तव में वह पुरुष ही लक्ष्य है , इस चैतन्यमय आत्मसत्ता के साथ मिलना ही योगसिद्धि है। किन्तु भारतवर्ष में एक दूसरे प्रकार का योग भी प्रचलित है , उसकी प्रतिष्ठा ज्ञान के ऊपर नहीं है . पुरुष उसका नियन्ता नहीं है। यह है तंत्रयोग.

      तान्त्रिक योग में साधक होती है प्रकृति , और उपाय होता है शक्ति। जिस साधना में पुरुष साधक और ज्ञान उपाय होता है , उसका प्रधान कथन है उदासीनता , जगत के खेल से अपने को विच्छिन्न करना , हटा लेना ; किन्तु तान्त्रिक इस खेल को ही जोर से पकड़े हैं।

     प्रकृति में छिपी हुई जो आद्यशक्ति , जो तपःशक्ति है , उसी के अदम्य बल में उसी के ही स्वप्रेरित पथ में वे चलते हैं। वेदान्तिक प्रकृति को समझते हैं , ‘ मायामयी ‘। वे कहते हैं कि प्रकृति अन्ध , और उच्छृङ्खल है , इसमें जो कुछ चेतना की छाया है वह पुरुष के संस्पर्श से है। इसलिये वेदान्तिक साधक अपने को प्रकृति के हाथ में छोड़ देना नहीं चाहते। प्रकृति को अपनी सहज स्वच्छन्द गतिसे दौड़ने और विकसित होने देना उनका लक्ष्य नहीं है।

     किन्तु तान्त्रिक प्रकृति को मानते हैं ‘ चिन्मयी ‘। अतएव उसी की प्रेरणा पर सम्पूर्णरूपेण निर्भर करके चलने में तान्त्रिक तनिक भी आनाकानी नहीं करते। वेदान्तिक का उद्देश्य है प्रकृति की छाया से पुरुष को क्रम – क्रम से मुक्त करना। परन्तु तान्त्रिक प्रकृति को , जगत् – शक्ति के सारे खेल को सत्य समझकर आनन्द पूर्ण बतलाकर उसका आलिङ्गन करते हैं।

  इसी से उन्होंने प्रकृति को पुरुष से उच्च स्थान दिया है , शक्ति को ही अध्यात्म – जीवन में साम्राज्ञी रूप से वरण किया है । साधारण जीवन की जो खण्डता – असम्पूर्णता , आधार की जो असमर्थता , मलिनता है , उसको कर , उसका नाश कर , उसकी ओर से अपना सारा मनोयोग हटाकर जीवन के आधार के पीछे , अतीत में जो एक कूटस्थ नित्य शुद्ध , पूर्ण अद्वैत वस्तु है , वेदान्तिक योगी ध्यान में , मनकी एकाग्रता में उसी को प्रकाशित करना चाहता है , पर तान्त्रिक कहते हैं , जीवन की पर्णता का निर्भर जीवन के अन्दर ही है। आधार की शुद्धि का कारण आधार के अन्दर ही है , अन्यत्र कहीं नहीं।

     तान्त्रिकों ने प्रकृति के अन्दर ही एक ऐसे मौलिक तत्व को पाया है जिसके प्राण अदम्य बल , अनन्त शक्ति , अव्याहत कर्म प्रेरणा हैं। साथ ही वह शुद्ध पूर्ण चेतना से दीप्त है। जीवन के आधार की इस अधिष्ठात्री देवी के अंगुलिनिर्देश के अनुसार , जीवनकी कर्मप्रचुर और भोगप्रचुर विक्षुब्धता के – आधार की समस्त प्राकृत प्रेरणाओं के अन्दर से चलाकर ही उन्होंने अपने जीवन को – आधार को बना लिया है।

    वेदान्तिक साधना का विषय है सत् और उपाय है वैराग्य। तान्त्रिक साधना का विषय है तपःशक्ति और उपाय है भोग। वेदान्तिक ने जैसे पुरुष को ही अतिमात्रा में ग्रहण किया है वैसे ही तान्त्रिक ने प्रकृति को किया है। किन्तु इस प्रकार वेदान्तिक और तान्त्रिक ने जो सत के विरुद्ध शक्ति को और शक्ति के विरुद्ध सत को खड़ा कर दिया है , इससे उन दोनों को सत्य का अर्द्धांशमात्र ही प्राप्त हुआ है।

       वेदान्तियों ने शक्ति को खोकर सृष्टि के भोग के आनन्द से रहित साधु – संन्यासियों की सृष्टि की. उसी प्रकार तान्त्रिकों ने भी सत को खोकर प्रकृति के उन्मार्गगामी स्रोत के साथ अपने को बहाकर अनाचार से कलुषित भैरव – भैरवियों को उत्पन्न कर दिया।

       वेदान्तियों ने जिस प्रकार त्याग को त्याग समझकर ही उसे महान् माना , उसी प्रकार तान्त्रिकों ने भी भोग को भोग समझकर ही उसका महत्त्व बढ़ाया। जो उपाय या सहायमात्र है , उसी को दोनों ने अपने लक्ष्य से भी ऊँचा मान लिया।

      वस्तुतः सत् और शक्ति , पुरुष और प्रकृति , यहाँ तक कि त्याग और भोग में कोई विरोध नहीं है। इनमें एक श्रेष्ठ और दूसरा निकृष्ट नहीं है , दोनों ही समानभाव से पर्याय हैं।

      पूर्णयोगी की दृष्टि में  आत्मा या पुरुष है ईश्वर और प्रकृति उनकी अपनी कर्म-निष्पादिनी शक्ति है। पुरुष अथवा सत् है शद्ध अखण्ड असीम आत्मसत्ता और शक्ति है चिच्छुक्ति – उस शुद्ध आत्मसत्ता के चेतना की प्रेरणा , लीला स्थिति और गति तथा विराम और कर्म में जो सम्बन्ध है सो एक ही सम्बन्ध है।

      शक्ति या कर्मप्रेरणा जब अकेली रहती है , केवल ‘ अस्ति ‘ की चेतना के आनन्द में ही विलीन रहती है तब उसे स्थिति या विश्राम कहते हैं। इसी का दूसरा नाम त्याग है। ज़ब पुरुष अपनी शक्ति के नाना प्रकार के कर्म में अपने को फैला देता है , तभी कर्म होता है , तभी सृष्टि होती है , और तभी ‘ अस्ति ‘ का नहीं , सृष्टि का आनन्द होता है , इसी का नाम भोग है।

      यह आनन्द ही सृष्टि की , जागतिक प्रकाश की प्रसूति है , मूल कारण है। जिसकी सहायता से जिस उपाय का अवलम्बन कर आनन्द वस्तुमात्र की सृष्टि करता है , एक ही बहुत हो जाता है उसे ही कहते हैं तप।

      यह तपःशक्ति पुरुष की ही चित् – शक्ति है अर्थात् जब चिन्मय पुरुष अपनी शुद्ध सत्ता के अन्दर छिपी हुई अव्यक्त अनन्त रूप – सम्भावनीयता के ऊपर अपनी चेतना का विकास कर देता है , तभी वस्तु का भावमय स्वरूप , व्यष्टि का – विशिष्ट का ऋतमय सत्यमय अन्तरात्मा – प्रकट होता है , जिसे विज्ञान कहा जाता है।

        यही विज्ञान अथवा सत्य भाव , सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण शक्ति के आधाररूप आत्मसत्ता से निःसृत होने के कारण अपने को अव्यर्थरूप से परिपूर्ण करके चलता है।

    हम सबके देह प्राण और मन के पीछे यही विज्ञान का धर्म रहता है , फिर यही विज्ञान एक नैसर्गिक प्रेरणा के बल से देह प्राण और मन के अन्दर रूप ग्रहण करके अपने को जागरुक कर ग्रहण करना चाहता है।

     वस्तुतः सम्पूर्ण योग साधना की प्रतिष्ठा इसी चिद्भाव , इसी विज्ञान , इसी सत्यं ऋतं वृहत की अप्रत्याहत कार्यकरिता के ऊपर है। सम्पूर्ण  योगपथ इसी को मानकर चलते हैं। गीता में श्री भगवान ने इसी सत्य को लक्ष्य करके कई बार कहा है – ‘श्रद्धान्वित , भावसमन्वित ‘ होकर जो जिसकी कामना करता है वह उसे पावेगा ही , जिसकी जैसी श्रद्धा , भाव है , वह वैसा ही है।

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