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प्राकृतिक क्रोध रूपी स्पंदन का कोप?

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शशिकांत गुप्ते

एक धार्मिक मठ के आसपास के सम्पूर्ण क्षेत्र में ग्लेशियर के फटने से वहाँ के निवासियों के निवासों में दरारें पड़ गई। मठ की इमारत के साथ पूरे इलाक़े की इमारतें जर जर हो गई।
इमारतों के थरथराने का कारण है ग्लेशियर (Glacier) का फटना। ग्लेशियर का अर्थ होता है,तुषार नदी,या हिम नदी।
उत्तरांचल में स्थित मठ के क्षेत्र में ग्लेशियर फटने से इमारतों में दरारें पड़ गई।
प्रकृति के साथ खिलवाड़ का ही यह नतीजा है। पर्वतों को काटकर मार्ग का निर्माण जनधन के निर्वाण का कारण बन गया।
यह प्रकृति का अभिषाप है।
जहाँ पर्वतों को चीर कर मार्ग बनाने के साथ यह भी ध्यान में रखना अनिवार्य है कि,वहाँ धरती में कम्पन कितना और किस हद तक हो सकता है? यह जानने के लिए विकास करने वालों के दिलों संवेदनाओं का स्पंदन होना अनिवार्य है। मतलब मानवीयता होना जरूरी है।
उत्तरांचल के जोतिर्मठ में के क्षेत्र में प्रकृति का कोप दिखाई दिया उसका मुख्य कारण निम्न शेर में प्रकट होता है।
इस मुद्दे पर युवा शायर अनवर जलालाबादी का यह शेर एकदम सटीक है।
मरासिम के शज़र को बदजनी का घुन लगा जबसे
कोई पत्ता भी जब खींचें तो डाली टूट जाती है
मराशिम का अर्थ आपसी मेलजोल, शज़र का अर्थ वृक्ष।

शेर का भावार्थ आपसी मेलजोल के वृक्ष को जब बुराई का घुन लगता है,तब सारा वृक्ष ही जर जर हो जाता है।
इसी संदर्भ में शायर अनवर जलालाबादी का ही ये शेर भी प्रासंगिक है।
चिरागों कब हवा की दोगली फितरत को समझोगे
जलाती है यही तुमको, यही तुमको बुझाती है

आज यही तो हो रहा है। आमजन भावना वश सिर्फ हवा पर ही विश्वास कर लेतें हैं। यहाँ हवा से तात्पर्य सियासी लहर से है। बार बार,अब की बार नहीं,अब तो प्रश्न है कब तक?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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