भंवर मेघवंशी
बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर द्वारा तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ के कुछ अंशों को आपत्तिजनक करार देते हुये उनको हटाने की बात क्या कही कि वे विवादों के घेरे में आ गये। मनु धारा की मीडिया को मनमांगी मुराद मिल गई। धार्मिक लोगों की आस्थाएं आहत हो चलीं। लेकिन इसबार यह भी हुआ कि धर्मग्रंथों को ख़ारिज करने की मुहिम भी तेज हो गई।
बिहार के शिक्षा मंत्री ने जिस हिम्मत और बेबाकी से बात कही, हर कोई हतप्रभ रह गया, क्योंकि निर्वाचन की राजनीति में जो लोग हैं, उनसे इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर बात करने की अब उम्मीद नहीं की जाती है। कभी-कभार वे अपने दिल-दिमाग की बात कह भी देते हैं तो कुछ ही घंटों में पलट जाते हैं, लोग ठगा-सा महसूस करते हैं। लेकिन इस मामले में बिहार के शिक्षा मंत्री ने अपनी बात पर कायम रहते हुए हिंदू धर्माचार्यों को बहस की चुनौती देकर अपने हौसले के बारे में अवगत करवा दिया।
प्रोफेसर चंद्रशेखर की सपाट बयानी और कटु सत्य कहने और उस पर टिके रहने के बाद इस विमर्श ने जोर पकड़ा और लोग तुलसीदास की वैचारिकी और काव्य के पक्ष तथा विपक्ष में खुल कर बोलने लगे। प्रसिद्ध साहित्य समालोचक वीरेंद्र यादव ने नागार्जुन द्वारा सन् 1970 में तुलसीदास पर की गई कड़ी टिप्पणी को साझा करके इस बहस को धार दी है। इसके जवाब में लोग बाबा नागार्जुन द्वारा सन् 1934 में तुलसीदास पर लिखा गया एक आलेख ले आए हैं। सोशल मीडिया पर इस तरह की तीखी बहस जारी है। बहुत सारे साहित्यकार जाति के आधार पर विभक्त हो कर तुलसीदास के समर्थन और विरोध में लिखते नज़र आ रहे हैं।
वैसे तो ब्राह्मणवादी धर्म ग्रंथों और वैदिक देवी-देवताओं को ख़ारिज करना कोई नई बात नहीं है। यह निरंतर चला आ रहा है। श्रमण धारा के लोगों ने न केवल खुल कर वेदों को नकारा, बल्कि उन्होंने पुरोहितों की श्रेष्ठता के झूठ की भी पोल खोली है। महावीर, बुद्ध सहित अनेक आजीवकों के अलावा चार्वाक, कबीर, रैदास, जोतीराव फुले, पेरियार नायकर रामासामी, डॉ. आंबेडकर, पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा तक ने ब्राह्मणी विचारधारा पर लगातार सवाल उठाए व खारिज किया।
मसलन, ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास जब “पूजिए विप्र ज्ञान गुणहीना” लिख रहे थे तो रैदास बेख़ौफ़ कह रहे थे– “ब्राह्मण मत पूजिये …”। जब शास्त्रों को प्रमाण बताया जा रहा था तब कबीर का विद्रोह इन शब्दों में अभिव्यक्त हो रहा था– “तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन-देखी”। एक तरफ़ मुट्ठी भर ब्राह्मण ज्ञान पर कुंडली मार कर बैठे थे, दूसरी तरफ़ श्रमण की कंठी परंपरा के लोग एक-दूसरे को मौखिक सुनाकर ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। यह ज्ञान को गोपनीय रखने की ब्राह्मणवादी परंपरा के बरअक्स ज्ञान के लोकतांत्रिकरण का काम था, जो श्रमण धारा के साहित्यकारों व विचारकों ने किया है।
ब्राह्मण और श्रमण धाराओं के बीच यह संघर्ष शाश्वत और स्थाई है। इसमें कुछ भी नया अथवा आश्चर्यजनक नहीं है। इतिहास में इसके पर्याप्त उदाहरण मौजूद है कि दोनों धाराओं के मध्य विवाद और संवाद तथा शास्त्रार्थ चलते रहे हैं। श्रमण की इसी विचार सरणी से निर्गुण की धारा प्रवाहित हुई, जिसने मंदिरों, मूर्तियों और धार्मिक ग्रंथों को सरेआम नकारा है।
निस्संदेह एक तरफ़ विज्ञान और दूसरी तरफ़ अज्ञान के प्रति आकर्षण भी सदैव रहा है और उनके मध्य टकराव भी चलते ही रहा है। मान लेने और जान लेने की धाराओं ने एक दूसरे को युगों-युगों तक चुनौती दी है और भविष्य में भी दी जाती रहेगी। इसमें आश्चर्य अथवा अनपेक्षित क्या है?
क्या विभिन्न भाष्य, टीकाएं धर्मग्रंथों की आलोचना नहीं करतीं? आधुनिक भारत के निर्माण के दौर में भी शास्त्रीय मूढ़ताओं की निर्मम शल्यक्रिया की गई। फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर ने तो इसे बखूबी अंाजम दिया।
हम क्यों भूल जाते हैं कि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती का ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश वेद निंदक और ब्राह्मण विरोधी समस्त धाराओं के प्रति बेहद कटु और अपमानजनक टिप्पणीयों का समुच्चय है? इस किताब में जैनों, बौद्धों, मुस्लिमों और ईसाइयों के बारे में तथा उनके ग्रंथों व धर्म प्रवर्तकों के बारे में जिस भाषा में लिखा गया है, क्या वह सहज स्वीकार्य है? अत्यंत अशालीन बातों के बावजूद भी यह पुस्तक आज भी जन सामान्य को सुलभ है तथा सरेआम बिकती है।
ऐसा भी नहीं है कि तुलसीदास के ब्राह्मणवाद की स्थापना के प्रयासों पर किसी ने पहली बार कुछ कहा या लिखा हो? विश्वनाथ ने अपनी संपादित पुस्तक “हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास” के जरिए तुलसीदास के एकतरफ़ा विप्र प्रेम की कलई ही खोल देते हैं।
ऐसे में बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर द्वारा तुलसीदास की रचना ‘रामचरितमानस’ पर उठाया गया सवाल किसी भी रूप में अनुचित नहीं है। जो लोग तुलसीदास के ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ की मानवतावादी व्याख्या करने पर तुले हैं, उनके प्रति दया का भाव ही रखा जा सकता है, क्योंकि वे अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के मारे इतने मतिमंद दिखाई पड़ रहे हैं कि उनको प्रताड़ना भी ताड़ना लगता है।
लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि आज का दौर धर्मग्रंथों के अनुशीलन का नहीं है। यह अंधभक्ति का हिंसक दौर है, जहां पर तर्क-वितर्क एवं असहमति तथा स्वस्थ आलोचना के लिए कोई जगह नहीं बची है। अब गाली और गोली का समय है। हमने तर्कवादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, एम.एस. कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और गौरी लंकेश आदि को गोली से मारे जाते हुए देखा है। हमने रोहित वेमुला जैसे प्रतिभासंपन्न युवाओं को इसी धार्मिक और जातिवादी असहिष्णु व्यवस्था की भेंट चढ़ते देखा है। डॉ. आंबेडकर की बाईस प्रतिज्ञाएं दोहराने के कारण हाल ही में दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रहे राजेंद्र पाल गौतम की कुर्सी छिनते देखा है और उनके ख़िलाफ़ जारी फ़तवों को पढ़ा है। अब हम प्रोफेसर चंद्रशेखर की ज़बान काटने के ब्राह्मणी फ़तवों की खबरें भी पढ़ सुन रहे है।
निस्संदेह वर्तमान में तुलसीदास और उनकी रचना ‘रामचरितमानस’ के इस प्रकरण का सबसे उल्लेखनीय प्रतिरोध दलित-बहुजनों में आ रही श्रमण चेतना के कारण दिखाई दे रहा है, जिसमें तमाम आलोचनाओं, मुक़दमेंबाज़ी और हिंसक धमकियों के बावजूद चंद्रशेखर अपनी कही बात पर क़ायम हैं और साधिकार शास्त्रार्थ हेतु भी प्रतिबद्ध हैं।
बहरहाल, धर्मग्रंथों के पुनर्पाठ को लेकर यह विचार इन दिनों और अधिक मज़बूत हुआ है कि हमें अपनी ऊर्जा ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर खर्चने के बजाय उन्हें सिरे से ही नकार देना चाहिये। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि कुछ अपमानजनक अंशों का हम विरोध कर रहे हैं। हमें संपूर्ण अस्वीकार्यता बरतनी ही होगी।
(भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।)
फारवर्ल्ड प्रेस पोर्टल से साभार