मकसद मनु और गोलवलकर को बचाना है
बादल सरोज
जैसे इधर मदारी का इशारा होता है और उधर जमूरे का काम शुरू होता है, ठीक उसी तरह इधर संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने “अपने हिन्दुओं” के युद्धरत होने की बात कही और युद्धकाल में उनके द्वारा आँय-बाँय-साँय कुछ भी बोलने को जायज ठहराया, उधर उनकी पूरी भक्त पलटन ने युद्ध का नया मोर्चा खोल लिया। इस बार उन्हें बिहार के शिक्षामंत्री चंद्रशेखर सिंह का सिर – असल में जीभ – चाहिए। एक सुर में इस कुटुंब के हाहाकारी शोर के बीच इन्हीं के कुनबे के एक कथित संत, स्वयंभू जगद्गुरु परमहंस आचार्य ने बिहार के शिक्षा मंत्री की जीभ काटकर लाने वाले के लिए 10 करोड़ रुपयों का ईनाम भी घोषित कर मारा। बकौल इस गिरोह के, बिहार के शिक्षा मंत्री ने जो बोला है, वह “सनातनियों का अपमान है।” इसी को थीम बनाकर सिर्फ बिहार के ही नहीं, देश भर के भाजपा नेता टूट पड़े, आर्तनाद की लहरों के ज्वार आ गए, भड़काऊ बयानों की झड़ी लग गयी। आखिर ऐसा क्या बोल दिया बिहार के शिक्षामंत्री ने कि देश में असमानता की भयानक सच्चाई सामने लाने वाली ऑक्सफैम की ताजी रिपोर्ट, विदेश नीति का बाजा बजने वाले चिंताजनक मुद्दों की बजाय यह एक बयान ही धरा के इधर वाले हिस्से के लिए सबसे जरूरी और संगीन हो गया?
नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए बिहार के शिक्षा मंत्री ने कहा कि “नफरत देश को महान राष्ट्र नहीं बना सकती है। प्रेम से ही देश महान बनेगा।” इसके बाद उन्होंने अलग-अलग युग के नफरतियों की शिनाख्त करते हुए बताया कि “पहले युग में मनुस्मृति ने यह काम किया, दूसरे युग में रामचरितमानस ने और तीसरे युग में गोलवलकर के बंच ऑफ थाट्स ने नफरत फैलाने का काम किया।”
देखा जाए तो चंद्रशेखर कोई नई बात नहीं कह रहे थे, यह बातें और भी ज्यादा तल्ख़ शब्दों में देश के अनेक विचारक, सामाजिक और राजनीतिक नेता कह चुके हैं। इनमें से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर भी हैं, जिनका इन मंत्री महोदय ने अपने भाषण में भी जिक्र किया और जिन्होंने बाकायदा अभियान चलाकर इस मनुस्मृति को जलाया भी था। उन्होंने कोई नई बात नहीं बोली थी। बाकियों का जिक्र छोड़ भी दें, तो जिस विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में वे बोल रहे थे, उसी नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे, भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र के संस्थापक आचार्य धम्मकीर्ति, सातवीं शताब्दी में ही, इससे भी ज्यादा दो टूक शब्दों में “त्रय वेदस्य कर्तारः, धूर्त, भंड, निशाचरः” कह चुके थे। मगर भक्तों को इस सबसे क्या! — उन्हें मदारी ने जिधर छू किया, वे उधर की तरफ लपक लिए। लपकने में भी चुनिंदा होना मदारियों की चतुराई और अपढ़ भक्तों की विवशता है। अब संघी और भाजपाई इन शिक्षा मंत्री द्वारा गिनाई गयी तीन युगों की सभी तीनों किताबों की हिमायत में तो, फिलहाल, कूद नहीं सकते। उन्हें पता है कि मनुस्मृति का खुलेआम पक्ष लेना महँगा पड़ सकता है, सो उसके बारे में वे एक शब्द नहीं बोले। उनके आराध्य, जिन्हे वे परमपूज्य गुरु मानते हैं, उन गोलवलकर की “बंच ऑफ़ थॉट” तो इतनी ज्यादा नफरती और विषैली है कि खुद मौजूदा सरसंघचालक भागवत को भी — भले फिलहाल के लिए ही — उसके “कुछ अंशों से” पल्ला झाड़ने का एलान करने के लिए विवश होना पड़ा था। सो मंत्री द्वारा इस किताब का जिक्र करने पर भाजपा के बड़के नेताओं से लेकर छुटके मोदी, सुशील मोदी तक, किसी को भी उज्र नहीं है। उन्होंने सारी भद्रा 16वी शताब्दी में लिखी गयी तुलसी की रामचरितमानस पर केंद्रित करके निकाल दी।
तुलसी होते तो बहुतई प्रमुदित होते। उन्हें मजेदार लगता कि जिन ब्राह्मणवादियों ने उनको ब्राह्मण न होने,अवधी और लोकभाषा में रामचरितमानस लिखने, यहां तक कि उसमें उर्दू के भी कुछ शब्द वापरने की वजह से अयोध्या के मंदिरों से बाहर खदेड़ दिया था, धर्मशालाओं तक में उनके रहने पर रोक लगवा दी थी, जिसके चलते खुद तुलसी को अपनी माँग के खाने, मस्जिद में रहकर रामकथा लिखने की व्यथा बयान करते हुए लिखना पड़ा था कि “तुलसी सरनाम, गुलाम है रामको, जाको चाहे सो कहे वोहू / मांग के खायिबो, महजिद में रहिबो, लेबै को एक न देबै को दोउ।” (मेरा नाम तुलसी है, मैं राम का गुलाम हूँ, जिसको जो मन कहे कहता हूँ, मांग के खाता हूँ, मस्जिद में रहता हूँ, न किसी से लेना, न किसी को देना), उन्हें अचरज हुआ होता कि आज वे ही “बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥” (खुद को राम का भक्त कहला कर लोगों को ठगने वाले, धन लोभ, क्रोध और काम के गुलाम, धींगाधींगी करने वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले) आज उनकी हिमायत में उछले उछले घूम रहे हैं। तुलसी को सचमुच का आश्चर्य मिश्रित कौतुक हुआ होता कि जिन स्त्री और शूद्रों के ऊपर कुछ तो भी लिख-लिखकर उन्होंने पूरी जिंदगी गुजार दी थी, ये बंचक भगत उस अरक्षणीय का भी रक्षण करने पर आमादा है । उन्हें अचरज होता कि आज के स्वयंभू सनातनिये उनके तबके लिखे को “मानवता की स्थापना करने वाला ग्रन्थ और भारतीय संस्कृति का स्वरूप” बताकर अपना असली रूप उजागर कर रहे हैं।
तुलसी का अचरज लाजिमी है। ये वही थे, जिन्होंने न केवल “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी” लिखा बल्कि कोई कसर न रह जाए, इसलिए खुद शबरी के मुंह से स्वयं राम के समक्ष भी कहलवाया कि “केहि बिधि अस्तुति करूँ तुम्हारी| अधम जाती मैं जड़मति भारी/ अधम ते अधम अधम अति नारी| तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारि ||” (जाति से भी नीच हूँ, और नीच जाति की स्त्री की होने की वजह से मंदबुध्दि और नीच से भी ज्यादा नीच हूँ, ऐसी स्त्री आपकी स्तुति किस तरह कर सकती है।) यही तुलसी अपनी कुंठा का परिचय देते हुए लिखते हैं “महावृष्टि चली फूट किआरी / जिमि सुतंत्र भये बिगड़ें नारी।” (बहुत तेज हुयी बारिश से क्यारियाँ फूट गई हैं और उनमें से इस तरह पानी बह रहा है जैसे स्वतंत्रता मिलने से नारियाँ बिगड़ जाती हैं। तुलसी ने किष्किंधाकाण्ड में सीता वियोग में प्रकृति वर्णन करते हुए खुद राम के मुंह से कहलवाया है।) तुलसी की रामचरित मानस, जिसे “भारतीय संस्कृति का स्वरुप और मानवता की स्थापना करने वाला ग्रन्थ” बताने का तूमार खड़ा किये हुए हैं, वह ऐसी ही आपराधिक और अपमानजनक उक्तियों से भरा हुई है। इसी में लिखा है कि “अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए।” (जिस प्रकार से सांप को दूध पिलाने से वह और जहरीला हो जाता है, वैसे ही शूद्रों और नीच जाति वालों को शिक्षा देने से वे और खतरनाक हो जाते हैं।) यह भी कि “पूजहि विप्र सकल गुण हीना / शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा” (ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, शूद्र चाहे कितना भी गुण ज्ञान वाला हो, वेदों का जानकार हो, लेकिन कभी पूजनीय नही हो सकता।) यही तुलसीदास हैं जो लिखते हैं कि “शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ ब्राह्मण भी पूजनीय है।” स्त्रियों के बारे में वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि “नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं। साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।”
इससे भी ज्यादा विद्रूप और विकृत वचन संघ के प.पू. गुरु गोलवलकर के बंच ऑफ़ थॉट में हैं। वे इतने घृणित हैं कि खुद मौजूदा सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को उनसे किनारा कर लेने का एलान करना पड़ा, इसलिए उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं। लिहाजा यह बात स्पष्ट है कि तुलसी की मानस तो बहाना है, असल में मनुस्मृति और बंच ऑफ़ थॉट की आपराधिकता को छुपाना है, उन्हें भी आलोचना से परे बताना है।
असल में यही वे किताबें हैं, जिनमें आने वाले दिनों में भारत को ढालने और एक बार फिर से अँधेरे युग में धकेल देने का संघ परिवार और भाजपा का ‘हिडन एजेंडा’ छुपा हुआ है। नागार्जुन ने कहा था कि “रामचरितमानस में हमारी जनता के लिए क्या नहीं है? सभी कुछ है। दकियानूसी का दस्तावेज है…. नियतिवाद की नैया है …जातिवाद की जुगाली है। सामंतशाही की शहनाई है। ब्राह्मणवाद के लिए वातानुकूलित विश्रामागार…..पौराणिकता का पूजामंडप … वहां क्या नहीं है। वहां सब कुछ है, बहुत कुछ है। रामचरितमानस की बदौलत ही उत्तर भारत की लोकचेतना सही तौर पर स्पंदित नहीं होती। रामचरितमानस की महिमा ही जनसंघ (अब संघ-भाजपा) के लिए सबसे बड़ा भरोसा होती है।” यही इनका इस देश से उसके कुछ हजार वर्षों की प्रगति और आने वाली प्रगति की संभावनाओं को हमेशा के लिए छीन लेने का बीजक और नक्शा है।
इसके लिए भले जिस हिन्दू धर्म की ये दुहाई देते हैं, उसे और उसके अब तक के स्वरुप को ही क्यों न मिटाना पड़े। मुस्लिम और ईसाईयों के अंध विरोध में वे यहां तक आ पहुंचे हैं कि वे व्यापक हिन्दू धार्मिक परम्परा को एक किताब पर आधारित सेमेटिक धर्मो – अब्राहमी धर्मों – में तब्दील कर देना चाहते हैं। भारतीय धार्मिक परम्परा में, यहां तक कि खुद हिन्दू धर्म की परम्परा में कोई एकमात्र सर्वोपरि किताब नहीं है। सबसे पुराने वेद हैं वे भी एक नहीं चार हैं, इनमें भी पूरा मतैक्य नहीं है। उनके बाद 108 उपनिषद् हैं, जिनमें से 18 तो ईश्वर के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करते ; पदार्थवादी हैं। एक किताब कौन सी होगी, उसे कौन तय करेगा? यह सवाल तो अभी हाल में 16वीं शताब्दी में सामने आया था, जब उपनिवेशवादी न्याय प्रणाली आयी और अदालतों में शपथपूर्वक बयान देने से पहले बाइबिल या कुरान पर हाथ रखकर कसम खाने के समांतर किसी हिन्दू ग्रन्थ की तलाश शुरू हुयी और गीता, जो खुद महाभारत का हिस्सा है, उसे कथित पवित्र ग्रंथ मानकर चुन लिया गया।
सबसे मजेदार तर्क तो रामचरित मानस को सनातन धर्म का पवित्र ग्रन्थ बताने का है। जिस तुलसीकृत मानस को महान और पवित्र सनातनी ग्रन्थ बताकर यह गिरोह उन्माद भड़काने में लगा है, वह तो बहुत आधुनिक है और इसे खुद तबके और बाद के भी सनातनियों ने कभी पवित्र तो दूर की बात है, उत्कृष्ट ग्रन्थ तक नहीं माना। यह महाकाव्य जिस रामकथा का बखान करता है वे रामायणें न जाने कितनी हैं। “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता” की तरह रामायणें भी अनन्त हैं और उनकी कथाएं भी अनन्ता हैं। हरेक रामायण एक नया ही आख्यान और उसके मुख्य पात्रों के एकदम अलग-अलग यहां तक कि विपरीत रिश्ते भी प्रस्तुत करती है। संस्कृत भाषा में ही अभी तक 25 रामायणें खोजी जा चुकी हैं। फादर कामिल बुल्के ने 300 रामायणें बताई थीं। कुछ विद्वानों के अनुसार अकेले कन्नड़ और तेलगु भाषाओं में एक-एक हजार रामायण हैं। इनमें भी कमाल की विविधता हैं। वाल्मीकि की जिस रामायण को आरंभिक और प्रतिष्ठित माना जाता है, उसमे राम ईश्वर नहीं है, वे मानवीय रूप में हैं। जैन रामायणों में भी राम भगवान नहीं हैं, उन्नत जैन पुरुष हैं। बौद्ध जातक कथाओं में जितने रामायण हैं, उनमे भी वे एक अच्छे मनुष्य हैं। दुनिया की बीस से ज्यादा भाषाओं की रामायणों की कहानियां ही निराली हैं। राम के प्रति आस्था रखना एक बात है, लेकिन किसी एक विशेष रामायण को ही पवित्र और एकमात्र मानना अलग ही बात है। और फिर इसे तय कौन करेगा? इनमें से भक्त कौन-सी रामायण को पवित्र मानते हैं? बाकी सब को अपवित्र मानते हैं क्या?
हिंदुत्ववादी गिरोह की समस्या इनकी अपढ़ता और भारत की धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं के प्रति इनका अज्ञान है। बिहार के इस प्रसंग के बाद झांसी में संघी हिन्दू संगठनों के एक प्रदर्शन में यह साफ़-साफ़ दिखा, जब पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर न वे प्रदर्शन की वजह बता पाये, न बिहार के शिक्षा मंत्री के कथित विवादित बयान में उल्लेखित किताबों का नाम ले पाये। अब इनसे यह उम्मीद करना इनकी बुद्धिहीनता के प्रति ज्यादती होगी कि इन्होने वाल्मीकि रामायण पढ़ी होगी या कम्ब रामायण का नाम तक सुना होगा। समस्या यह है कि यह गिरोह बाकी के पूरे देश को भी इसी तरह का अपढ़, अज्ञानी और उन्मादी बना देना चाहता है। उन्हें अज्ञानीकरण की अपनी इस तिकड़म की कामयाबी पर पूरा विश्वास है।
वे तुलसी और राम की, अपने अनुकूल व्याख्या के शोर में मनुस्मृति और गोलवलकर को छुपाना चाहते हैं। तुलसी की कृति के बारे में एकबारगी यह माना भी जा सकता है कि वे जाने-अनजाने अपने कालखण्ड की विकृतियों को चंदन मानकर उसका लेप कर रहे थे। उन्हें उस समय के सामाजिक पूर्वाग्रहों से आसक्त व्यक्ति का उन्हें साहित्य में दर्ज करने वाला कवि माना जा सकता है। मगर मनुस्मृति तो साहित्यिक कृति नहीं है, वह स्पष्ट रूप से बर्बर शासन विधान और हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता का संविधान है। गोलवलकर की बंच ऑफ़ थॉट (विचार नवनीत) उससे भी आगे का मामला है, मुसोलिनी की “डॉक्ट्रिन ऑफ़ फासिज्म” और हिटलर की “मीन कॉम्फ” जैसी फासीवाद के भारतीय संस्करण का घोषणापत्र। इतना बर्बर की, जैसा कि ऊपर लिखा है, मौजूदा सरसंघचालक को भी उसके कई अंशों से पल्ला झाड़ना पड़ा है।
कुल मिलाकर यह कि यह बिहार के शिक्षामंत्री पर नहीं, भारत की तार्किकता की समझ और विवेक पर हमला है। इसके प्रति ढुलमुल या निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता। इस मामले में जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध!!
*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)* संपर्क : 94250-06716,
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