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कोणार्क का सूर्यमंदिर : ईस्ट इंडिया कम्पनी के एहसानमंद हैं हम

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सुधा सिंह

      पाौराणिक कथाओं में सूर्य उपासना का केन्द्र रहा मैत्रेयवन का ये कोणादित्य ही कोणार्क नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हृआ। अर्क और कोंण का संयुक्ताक्षर है कोणार्क , अर्क सूर्य को कहते हैं और कोंण हुआ कोना।

      जिस कोणार्क को आज हम देखते हैं उसका इतिहास तेरहवीं शताब्दि से शुरू होता है । इस मंदिर का निर्माण गंगवंश नरेश नरर्सिह देव (प्रथम) (1238-64 ई.) ने अपने एक विजय स्मारक के रूप में कराया था। इसके निर्माण में 1200 कारीगर 12 वर्ष तक निरंतर लगे रहे।

     अबुल फजल ने आइने-अकबरी में इस मंदिर का जिक्र करते हुए लिखा है कि कोणार्क मंदिर के निर्माण में  उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की समुची आय लगी थी।

मंदिर का पूरा ढांचा बन जाने के बाद अंत में शिखर के निर्माण की एक समस्या उठ खड़ी हुई। कोई भी कारीगर उसे पूरा कर न सका तब मंदिर के मुख्य वास्तुकार बिसु महारणा के बारह वर्षाीय पुत्र धर्मपाद  ने यह साहसपूर्ण कार्य कर दिखाया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला।

       कलिंग शैली में निर्मित इस मन्दिर में सूर्य देव(अर्क) को रथ के रूप में विराजमान किया गया है तथा पत्थरों को उत्कृष्ट नक्काशी के साथ उकेरा गया है। सम्पूर्ण मन्दिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुये निर्मित किया गया , जिसमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया था । परन्तु वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है।

 मन्दिर के आधार पर उकेरे गये ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को परिभाषित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है,ये अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।स्थानीय लोग सूर्य-भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे।

      मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। इस मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं थीं  पहली, बाल्यावस्था-उदित सूर्य- 8 फीट, दूसरी युवावस्था-मध्याह्न सूर्य- 9.5 फीट और तीसरी प्रौढ़ावस्था-अपराह्न सूर्य- 3.5 फीट !

   कोणार्क के इस भव्य  मंदिर के बारे में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि ” कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। “

     वास्तुकला  की इस श्रेष्ठतम रचना का अपना दुर्भाग्य  है कि ये बनने के सााथ ही उजडना शुरू हो गया, राजा नरसिंह देव की मृत्यु के बाद इस मंदिर की किसी ने सुध न ली।

कालाचंद राय जो एक वैष्णव ब्राह्मण था और कलिंगराज मुकुन्द देव का सेनापति था, उसको बंगाल के सुल्तान सुलेमान खान कर्रानी की बेटी गुलनाज से मोहब्बत हो गयी । इसी मोहब्बत में उसने मुस्लिम धर्म अपना लिया और  तब कलिंग के बजाय बंगाल के सुल्तान का सेनापति बन गया। 

      बंगाल के सुल्तसान का सेनापति बनने के बाद कालाचंद राय कालापहाड़ नाम से जाना गया। 1568 ई0 में इसी कालाचंद राय ने कोणार्क पर हमला कर मंदिर का कलश तोड दिया और मंदिर के मेहराब के पत्थर हिला दिये । इसने कामाख्या मंदिर पर भी हमला कर उसे नष्ट कर दिया था। 

       कल तक जो कोणार्क को बचाने के लिये लडता था पाला बदलकर उसने खुद ही कोर्णार्क को तहस नहस कर दिया । इस विध्वंसक हमले से पहले हुसैन शाह ने भी कोणार्क में उत्पात मचाया था।

      मंदिर के मेहराब के पत्थर हिल जाने के कारण मंदिर का बड़ा हिस्सा धीरे धीरे ढह गया । कोर्णाक तब पूर्व का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह भी था। जनश्रुति है कि मुख्य मंदिर के शिखर पर  एक चुम्बकीय पत्थर लगा था। इसके प्रभाव से कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत इस ओर खिंचे चले आते थे, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती थी। 

तब पुर्तगाली व्यापारियों ने अपने पोतों को बचाने के लिये पत्थर को निकाल दिया। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे।

      इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामतः वे गिर पड़ीं। परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता।

    1568 ई में  कोणार्क के सूर्य मंन्दिर के पंडों ने प्रधान देवताओं की मूर्तियों को हटा कर, वर्षों तक रेत में दबा कर छिपाये रखा। बाद में इन मूर्तियों को पुरी भेज दिया गय और वहां जगन्नाथ मन्दिर के प्रांगण में स्थित इंद्र के मन्दिर में रख दिया गया। सूर्य देव की मूर्ति, जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है, वही कोणार्क की प्रधान पूज्य मूर्ति है।

कोणार्क से मूर्ति के हटने के बाद तीर्थयात्रियों का आना जाना बंद हो गया। कोणार्क का बंदरगाह भी डाकुओं के हमले के कारण, बंद हो गया। कोणार्क सूर्य वंदना के साथ ही एक बड़ा व्यापारिक नगर भी था, परन्तु इन गतिविधियों के बन्द हो जाने के कारण, यह एकदम बियावान हो चला और वर्षों तक एक गहन जंगल से ढंक गया।

      1626 में, खुर्दा के राजा नृसिंह देव सूर्यदेव की अन्य मूर्ति को दो अन्य सूर्य और चन्द्र की मूर्तियों सहित पुरी ले गये। अब वे पुरी के मंदिर के प्रांगण में हैं।

      कोणार्क की मुखशाला के सामने, एक बड़ा प्रस्तर खण्ड नवग्रह पाट था। खुर्दा के राजा ने वह खण्ड हटवा दिया, साथ ही कोणार्क से कई शिल्प कृत पाषाण भी ले गया, और पुरी के मंदिर निर्माण में उनका प्रयोग किया।

मराठा काल में मराठा शासकों ने  पुरी के मंदिर की चहारदीवारी के निर्माण में कोणार्क के पत्थर प्रयोग किये।   कोणार्क  का नट मंदिर  जो तब तक अपनी मूल अवस्था में था उसे मराठा शासन के दौरान उजाड दिया गया।

     सन 1779 में एक मराठा साधू ने कोणार्क के अरुण स्तंभ को हटा कर पुरी के सिंहद्वार के सामने स्थापित करवा दिया।

       अठ्ठारहवीं शताब्दी के अन्त तक, कोणार्क ने अपना, सारा वैभव खो दिया और एक जंगल में बदल गया। इसके साथ ही मंदिर का क्षेत्र भी जंगल बन गया,  इतना विशाल मंदिर रेत से दब कर टीले में बदल गया।

         साल 1900 के आस पास अंग्रेजी हुकूमत में जब  लार्ड कर्जन कारोबार की खोज में उड़िशा पहुंचे, तो उन्हें इस जगह पर पुराने मंदिर के होने का पता चला, जिसे लार्ड कर्जन ने  ब्रिटिश खोजकर्ता अधिकारियो को बुला कर मंदिर को निकाला, तो 229 फिट विशाल मंदिर को देख सभी ब्रिटिश अधिकारी चैंक गए।

       जैसे जैसे मंदिर के आस पास के रेत और बालुओं को को हटाया जा रहा था वैसे वैसे और भी मंदिर से जुड़े कलाकृति के अंश मिलते जा रहे थे, पूरी तरीके से रेत और बालुओं को निकाले जाने के बाद मंदिर का क्षेत्रफल 857 फिट लम्बाई और 540 फिट चैड़ाई थी। 

      अंग्रेजो ने मंदिर के भव्यता को देख मंदिर की मरम्मत करवाई, परन्तु निरंतर मंदिर के अवशेषों के ग़ायब होने और प्राकृतिक आपदाओं से मंदिर के क्षति पहुंचने पर गवर्नर जॉन उडवर्ड ने मुख्य कोणार्क सूर्य मंदिर के चारों दरवाजों को दीवालों से बंद करवा दिया था, ताकि मंदिर सुरक्षित रहे।

    फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1954 में पं0 जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से कोणार्क को विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित कर लिया गया। 

      तब से इंडियन आयल और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण मिल कर इसका रख रखाव कर रहे हैं।

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