अग्नि आलोक
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प्रसंगवश : बलात्कार पोषक न्याय-तंत्र

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आरती शर्मा

    _मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज माननीया पुष्पा गनेडीवाला ने यह फैसला दिया है कि एक बारह साल की बच्ची के बिना कपड़े उतारे स्तनों को दबाना पोक्सो एक्ट (Protection of Children from Sexual Offences) के अंतर्गत sexual assault की श्रेणी में नहीं आता है क्योंकि इसमें ‘skin to skin contact’ नहीं हुआ. यह सिर्फ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ( the offence of outraging a woman’s modesty) का ही केस बनता हैI_

      यह फैसला जज महोदया ने एक मामले में सेशन कोर्ट के फैसले को पलटते हुए दिया. मामला एक ऐसे अपराधी का था जो एक 12 साल की बच्ची के स्तनों को दबोचकर उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा था, तबतक उसकी माँ आ गयी I

       यानी जज महोदया के हिसाब से, बिना कपड़े उतारे कोई दरिंदा किसी स्त्री के साथ चाहे जितना भी बर्बर यौन-अत्याचार करे, उसे sexual assault नहीं माना जाएगा, क्योंकि उसमें skin to skin contact नहीं हुआ. या अगर कोई यौन-रुग्ण अपराधी दस्ताने पहनकर किसी बच्ची को निर्वस्त्र करके उसपर चाहे जितना अत्याचार करे, इसे भी skin to skin  contact न होने के कारण sexual assault नहीं माना जाना चाहिए.

       *थोड़ी बेशर्म होकर मैं अपने तर्क को और आगे बढाती हूँ. हालाँकि यह बेशर्मी तो जज महोदया की निर्मम बेशर्मी के आगे कुछ नहीं है. फ़र्ज़ कीजिए, कोई मर्द अपने पूरे बदन पर प्लास्टिक चिपका ले और कंडोम पहनकर किसी स्त्री का बलात्कार कर दे तो इसे भी sexual assault नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि इसमें भी skin to skin contact नहीं हुआ. या कोई मनोरोगी किसी बच्ची या स्त्री को निर्वस्त्र जंज़ीरों से बाँधकर चाहे जितनी भी परपीडनकारी यौन-यंत्रणा दे और उसे अगर छुए भी तो दस्ताने पहनकर, तो यह भी sexual assault की श्रेणी में नहीं आयेगा.*

       जिस समाज का कोई क़ानून ऐसी भीषण दुर्व्याख्या की गुंजाइश देता है, उसके घोर मानवद्रोही, घोर स्त्री-विरोधी, मर्दवादी चरित्र के बारे में हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं.

    और फिर स्त्रियों से घृणा तो फासिज्म की एक अभिलाक्षणिक विशिष्टता है.

 आज के भारत में  ऐसे घृणास्पद और बर्बर न्याय से भिन्न हम और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं. हर बुर्जुआ सिस्टम पितृसत्तात्मक भी होता हैI

     वह समाज के ताना-बाना में सर्वव्याप्त पितृसत्तात्मकता से बल पाता है और फिर अपनी पारी में, उलटकर उसे बल प्रदान करता है.

 एक औरत भी अगर इस व्यवस्था में राजनीति, न्यायतंत्र या प्रशासन का एक पुर्जा होती है तो वह दरअसल औरत रह ही नहीं जाती है, पितृसत्ता का ही अंग और उपकरण बन जाती हैI मुमकिन है कि निजी जीवन में वह एक अभिजनवादी नारीवादी हो, लेकिन पूरे स्त्री समुदाय के जीवन में व्याप्त यंत्रणा और घुटन भरे अँधेरे से उसका कोई सरोकार नहीं हो सकता.

       अभिजन समाज की अत्याधुनिका, अग्निमुखी नारीवादी स्त्रियाँ भी अधिकांशतः  इस व्यवस्था की पहरेदार कुतिया ही होती हैं.

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