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और क्या चाहिए बुड़बक!

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आरती शर्मा

यात्राओं को प्यार किया
शहरों और बस्तियों से
गुज़रते हुए
बार-बार बसते
और उजड़ते हुए.
शहरों को प्यार किया
उन्हें रचने वाले और उनमें
ज़िन्दगी की धड़कनें भरने वाले
लगातार दरबदर होते
लोगों के बीच
जीते हुए
और उनसे
जीने का सलीका
सीखते हुए.

नदियों, पहाड़ों और
समंदरों को
प्यार किया
उन्हें अपने अव्यक्त दुखों
और रहस्यों में
साझीदार बनाते हुए.
धरती को प्यार किया
उसके अलग-अलग
भूभागों के अलग-अलग
भूदृश्यों,
मिट्टी के अलग-अलग रंगों
और अलग-अलग
वनस्पतियों से
जान-पहचान और
संवाद करते हुए.
उनमें जीवन के व्यापक
वर्णक्रम का
सादृश्य ढूँढ़ते हुए.

लोगों को प्यार किया
उनके दुखों और स्मृतियों को
सहेजते हुए.
उनके खोये हुए सपनों को
उनके साथ मिलकर
खोजते हुए.
संघर्षों को प्यार किया
क्योंकि जीवन में मनुष्यता
और थोड़ी सी कविता
बचाये रखने का
दूसरा कोई भी
रास्ता नहीं था.

ऋतुओं और रंगों
और सपनों से,
और अलग-अलग
समयों में कुछ व्यक्तियों से
भी प्यार किया
दिल की पूरी गहराई,
पूरी ईमानदारी के साथ,
इन सबसे जीने का,
सपने देखने का और
रचने का सलीका
सीखते हुए.
बर्दाश्त करने की माद्दा
हासिल करते हुए.

अब कुछ दु:खों,
कुछ उदासियों,
कुछ अधूरेपन,
कुछ विश्वासभंजनों,
कुछ असमाप्त प्रसंगों,
अनकही रह गयी कुछ बातों,
कुछ निर्वासनों,
कुछ जुदाइयों
और कुछ पश्चातापों का
सिलसिला तो
लगा ही रहता है
बेहतर से बेहतर ढंग से
जिये गये
किसी जीवन में भी.
अब क्या चाँद चाहिए
आरती शर्मा बुड़बक दि ग्रेट !
और चाँद मिल भी जाये
तो ऐसा भला क्या
मिल जायेगा बकलोल.

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