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कमजोर फिल्म है पठान, विरोध का मिला लाभ

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दिव्यांशी मिश्रा 

     _पठान फिल्म की रेसिपी आसान है। इसे समझ लीजिए। फिर इसे आप खुद या मेहमानों के लिए घर पर भी बना सकते हैं। इसके लिए आपको हॉलीवुड की कुछ स्पाई फिल्मों की डीवीडी लेनी होंगी। कुछ फास्ट एंड फ्यूरियस टाइप की भी। इन्हें बारीक-बारीक तोड़िए। इसमें थोड़ी मात्रा में भारतीय स्पाई फिल्में जैसे एक था टाइगर, एजेंट विनोद के कुछ टुकड़े मिलाइए।_

       अब इसे 80 और 90 के दशक वाले मेलोड्रामा और इन दिनों की देशभक्ति की आंच में चढ़ा दीजिए। देशभक्ति जब भुन जाए तो उसमें हिंदू मुस्लिम एकता और सेक्लुरिज्म का बारीक पिसा हुआ पेस्ट मिला दीजिए। फिर धीमी आंच में ही पांच ग्राम सोमालिया या सूडान के सीन। दस ग्राम यूरोप के खूबसूरत शहर, दस ग्राम समंदर और दो-चार ग्राम बर्फ के तूफान डालकर पकने दीजिए।

 पाकिस्तान की खूबसूरत आईएसआई एजेंट के बारीक पिसे चूर्ण को पूरी रेसिपी में इत्‍मिनान से फैलाइए। पकने के बाद उतारकर एक दो गानों की गार्निशिंग करके परोस दीजिए। हां, जिस बर्तन में आप इसे पका रहे हैं और फिर परोस रहे हैं वह महंगा हो।

      मतलब डोंगा, भगोना या कढ़ाई यश चोपड़ा या धर्मा प्रोडक्‍शन की हो और प्लेट शाहरुख, सलमान या रितिक के स्टैंडर्ड की।  

        सीधी भाषा में कहें तो पठान हर लिहाज से एक कमजोर फिल्म है।

 फिल्म का कमजोर होना बर्दाश्त होता है उसका नकलची और बनावटी होना नहीं। पठान को देखते हुए हर पल लगता है कि हम ऐसा कुछ देख चुके हैं। इस‌ फिल्म का कोई सीन किसी फिल्म की हूबहू कॉपी नहीं है लेकिन इस फिल्म का एक भी सीन ऐसा नहीं है जो हमें देखा या पहचाना सा ना लगे।

      फिल्म के अप एंड डाउंस ऐसे हैं ‌उनका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। पठान दृश्यों की फिल्म है। इसे देखकर लगता है कि इस फिल्म के सीन लिखे गए हैं पटकथा नहीं। बाद में शुरू से लेकर आखिरी तक के सीन को जोड़ने के लिए एक कहानी उनके बीच में जैसे-तैसे फंसा दी गई हो। 

        इस बीच हमें लगने लगा था कि बचकाना मेलोड्रामा हमारी फिल्मों से चला गया है। पठान बताती है कि मेलोड्रामा गया नहीं है थोड़ा और सिस्टमैटिक हो गया है। ड्रामा ऐसा कि हर एक्‍शन सीन के पहले दो सेकेंड के लिए कैमरा शाहरुख, दीपिका या जॉन के चेहरे पर टिकता।

     मानों उन्हें इस सीन के लिए पोज देना हो। इसके बाद फाइट सीन शुरू होता। दस-दस मिनट के फाइट सीन के बाद भी चेहरा बिल्कुल तरो-ताजा दिखता। खून के छींटे और धब्बे संवारकार चेहरे और शरीर में बिखरा दिए जाते। लड़ने वाले की बॉडी लैंग्वेज वैसी की वैसी रहती।

दृश्यों पर टिके रहने के फलसफे पर चलने वाली यह फिल्म बहुत अच्छे वीएफएक्स का दावा भी नहीं कर सकती। कई सारी भारतीय फिल्‍मों में ही हम इससे अच्छे वीएफएक्स देख चुके हैं। 

      पठान को लेकर शाहरुख निराश तो नहीं करते लेकिन यह साफ दिखता है कि यह उनका जॉनर नहीं है। जॉन अब्राहम के साथ फाइट के सीन में वह जॉन से कमजोर दिखते हैं। हीरो होने के बावजूद हीरो वाला ग्रेस उनमें नहीं दिखता। वह जेम्स बॉड के जासूस की तरह कूल, दिलफेंक और खिलंदड़ भी नहीं लगते। जासूस तो खैर कभी लगते ही नहीं।

      पठान की एक और कमजोरी अपने हीरो को जबरन हीरो बनाने के लिए दर्शक पर बार-बार थोपना है। पूरी फिल्म में सौ से अधिक बार पठान-पठान दोहराया गया है। एक-एक सेंटेंस में दो-दो बार पठान कहा गया है।  पठान ऐसा है, पठान वैसा ही इसके लिए फ्लैशबैक के ऊपर फ्लैशबैक रखे गए हैं, ताकि पठान स्टैबलिश हो जाए।

        पठान की ही तरह फिल्म का विलेन भी थोपा हुआ सा विलेन लगता है। ऐसा लगता है कि किसी भी पल रॉ का बॉगी हुआ यह एजेंट घर वापसी करते हुए तिरंगा थाम लेगा। अपने रोल के अनुसार दीपिका ठीक करती हैं लेकिन उनसे बेहतर भूमिका एक था टाइगर में कैटरीना और एजेंट विनोद में करीना के लिए लिखी गई थी। उन रोल में ग्लैमर कम था पर एक कैरेक्टर को समझने के लिए डेप्‍थ ज्यादा थी। 

लाल सिंह चढ्ढा के बाद पठान दूसरी ऐसी फिल्‍म है जो नाहक ही बायकॉट की भेंट चढ़ गई। लाल सिंह की तरह ही यह फिल्म भी अपने कमजोर होने की वजह से ही डूबेगी, सिनेमा से वास्ता ना रखने वाले बायकॉट गैंग की वजह से नहीं। 

    यदि आप शाहरुख के नहीं अच्छे सिनेमा के फैन हैं तो यह फिल्म आपको पसंद नहीं आएगी। यदि आप शाहरुख के फैन है तो फिर आपको समीक्षा की जरुरत भी नहीं है.!

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