अग्नि आलोक
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समाधानशून्य देवमंडल

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(‘उत्तर-सत्य’ उद्घाटक परायथार्थवादी कथा)_

                 *~ सुधा सिंह*

आज मैं आपको एक रोचक से भी अधिक, उपयोगी कथा सुनाऊँगी जो इस जीवन के अनंतर जीवनोत्तर काल में भी आप सबके काम आवेगी.

       यूँ समझ लीजिये कि सत्य का उद्घाटन तो बहुतेरे चिन्तक करते रहे हैं, इस कथा के माध्यम से मैं एक ‘उत्तर-सत्य’ का उद्घाटन करने जा रही हूँ ! 

       बात तो बहुत पुरानी है लेकिन त्रिकालदर्शी होने के कारण केवल मुझे ही पता है, इसलिए मैं जनकल्याणार्थ बता रही हूँ ताकि यह जानकारी मृत्योपरांत आप सबके काम आवे !

         मर्त्यलोक में जब आधुनिक काल प्रारम्भ हुआ तो देवलोक, गोलोक और ब्रह्मलोकादि में भी बहुतेरी नयी-नयी समस्याएँ उठ खड़ी हुईं और पूर्व से चली आ रही व्यवस्था में अनेकशः परिवर्तन करने पड़े ! उनमें से एक परिवर्तन की कथा सुनाती हूँ !

           मर्त्यलोक से अपनी नश्वर देह त्यागने के बाद कुछ ऐसे मानव ऊपर पहुँचने लगे जो न स्वर्ग की नागरिकता पाने की अर्हता पूरी करते थे, न ही नरक की I यमराज ने पर्याप्त चिंतन और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र,अग्नि, वरुण, मरुत आदि देवों से विचार-विमर्श के बाद स्वर्ग और नरक के बीच के ‘नो मैन्स लैंड’ में विश्वकर्मा से  एक कॉलोनी तैयार करवाई जिसमें ऐसे सभी अनोखे मनुष्यों को स्थान दिया गया I     

         अब आपकी सहज ही उत्सुकता होगी कि ये अनोखे लोग कौन थे जिनके लिए यह नया लोक तैयार करना पड़ा था स्वर्ग और नरक के बीच !

       ये सभी लोग लंबा पारंपरिक वैवाहिक जीवन जीने के बाद देह त्यागने वाले सद्गृहस्थ जन थे I इनमें से नब्बे प्रतिशत भूलोक स्थित आर्यावर्त देश के निवासी थे !

      ये मातृभक्त-पितृभक्त लोग थे जिन्होंने अपने पिता और माता की इच्छा और आदेशानुसार किसी भी अपरिचित कन्या से परिणय किया था, कर्तव्य-भाव से संतानोत्पादन किया था और गार्हस्थ्य के सभी कर्त्तव्यों का श्रेष्ठ रूपों में निर्वाह करके जगत्प्रसिद्ध और बहुप्रशंसित होने के बाद नश्वर शरीर का त्याग करके ऊपर आये थे I

ऐसे लोगों की पाप-पुण्य गणना के बाद भी चित्रगुप्त यह निर्णय नहीं ले पाए कि उन्हें स्वर्ग में स्थान दिया जाए या नरक में ! समस्या जब उन्होंने यमराज को बताई तो वह भी किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए I

      समस्या यह थी कि ऐसे कर्त्तव्यपरायण सद्गृहस्थों को अपने दाम्पत्य-जीवन की दैनंदिनी के दौरान कभी कोई ऐसा अवसर मिला ही नहीं था कि वे जन-कल्याणार्थ कोई काम करना तो दूर, उसके बारे में सोच भी सकें ! और परिवार की उन्नति-प्रगति और सुख-आनंद के लिए उन्होंने उत्कोच (घूस) ग्रहण करने, अधिकारियों और सत्ताधारियों के अन्यायपूर्ण कार्यों में सहायक बनने, निर्धन असहाय लोगों को सताने आदि जैसे जो पाप-कर्म किये थे, उनका समुचित दंड से भी अधिक दंड वे मर्त्यलोक में ही नारकीय दाम्पत्य जीवन बिताते हुए भोग चुके थे I

       कई तो वैवाहिक जीवन की ऐसी मर्मान्तक यंत्रणा झेलकर आये थे कि उन्हें कुम्भीपाक, रौरव, महारौरव, कालसूत्र, अंधतामिस्र या लौहशंकु आदि-आदि  –किसी भी नरक में भेजा जाता, तो भी वे मर्त्यलोक में बिताये गए जीवन की अपेक्षा उसे  सुखकर ही पाते I

इन्हीं कारणों से घनघोर चिंतन-मंथन और ‘पोलेमिकल डिबेट’ के बाद देवगण ने आम सहमति से स्वर्ग और नरक के बीच के ‘नो मैन्स लैंड’ पर एक विशेष कॉलोनी का निर्माण कराया थाl

     इस कॉलोनी के निवासियों को दुःख या सुख, हर्ष या विषाद, कष्ट या आनंद, नींद या जागृति, ऊब या प्रफुल्लता, भय या निर्भयता, मान या अपमान, सम्मान या तिरस्कार, आशा या निराशा  — किसी भी भाव की कोई अनुभूति नहीं होती थी I

       सभी निवासी सोचने और सपना देखने के गुणों से पूरी तरह वंचित होते थे I पर ऐसे जीवन और परिवेश से किसी को कोई शिकायत नहीं थी, क्योंकि सभी मर्त्यलोक में ही ऐसे जीवन के आदी हो चुके थे I

           अब, इधर, नूतनतम सूचना यह प्राप्त हुई है कि ‘नो मैन्स लैंड’ की इस कॉलोनी की जनसंख्या कलियुग का चतुर्थ चरण आते-आते स्वर्ग और नरक की संयुक्त जनसंख्या से भी अधिक हो चुकी है और इस जनसंख्या-विस्फोट का कोई समाधान अभी यमराज तो क्या, समस्त देवमंडल को भी नहीं सूझ रहा हैI

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