शशिकांत गुप्ते
सीतारामजी को शायरी पढ़ने का भी शौक है। वे व्यंग्यकार हैं,इसीलिए वे तंज़-ओ-मज़ाह
(हास्य व्यंग्य) की शायरी पसंद करते हैं।
इनदिनों हरएक समस्या का समाधान सिर्फ और सिर्फ ज़बानी जमा-खर्च से प्रस्तुत किया जा रहा है।
ज़बानी जमा-खर्च भी सिर्फ इश्तिहारों में ही दर्शाया जाता है। ऐसा महसूस होता है कि,उम्मीद की रात लंबी हो रही है।
एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत जानबूझकर दिन के उजाले को लुभावने वादों के बादलों से ढाक कर रखने की साज़िश रची जा रही है।
इस मुद्दे पर शायर अज़हर इनायती
ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है
(इख्तियार का मतलब सामर्थ्य,शक्ति)
इसी सामर्थ्य को बनाएं रखने लिए,जागरूग लोगों को अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ेगी।
इस मुद्दे पर शायर निदा फ़ाज़ली का ये शेर सटीक है।
हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए
क्रांति करने वाले कभी किसी पर अवलंबित नहीं रहते हैं।
ऐसे लोग शायर मजरूह सुलतानपुरी ये शेर पर अमल करते हैं।
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
क्रांति का जुनून जिन लोगों के मानस पर हावी होता है,वे लोग शायर मशहर बदायुनी के इस शेर को पढ़ते हैं।
अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
वैचारिक क्रांति के पक्षघरों के कदम कभी डगमगातें नहीं है, उल्टा वे लोग तो शायर आबिद अदीब के इस शेर को अपने जहन में दौहरते हैं।
जहाँ पहुँच के क़दम डगमगाए हैं सब के
उसी मक़ाम से अब अपना रास्ता होगा
अंत में यही गीत गाएंगे।
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
शशिकांत गुप्ते इंदौर