सुधा सिंह
प्रगतिशीलता समग्र जीवनदृष्टि है. बाबा नागार्जुन इसकी ‘केवल जलती मशाल ‘ थे. इन दिनों चल रहे रामचरितमानस विवाद में उनके मत को याद किया जाना जरुरी है, क्योंकि वे जन्मना ब्राह्मण थे, तुलसी साहित्य के अध्येता थे, बौद्ध दर्शन में गहरी पैठ रखने वाले थे, किसान आंदोलन में राहुल सांकृत्यायन के साथ लाठियां खाईं , जेल गए, फिर प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के आधार स्तंभ बने. अपने शुरुआती दौर में जब वे मात्र 22 वर्ष के थे, तब उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास का महिमामंडन करते हुए 1934 में ‘मृत्य्ंजय कवि तुलसीदास’ शीर्षक एक डेढ़ पृष्ठ का लेख लिखा था जो ‘दीपक’ में प्रकाशित हुआ था.
तब तक न प्रगतिशील लेखन आंदोलन की उपस्थिति थी और न लेखकों के बीच डिक्लास व डिकास्ट होने की चेतना. प्रगतिशील सांस्कृतिक दृष्टि ने जब बाबा को बैद्यनाथ मिसिर से बाबा नागार्जुन के रुप में परिवर्तित किया तब वे ‘बलचनमा’, ‘वरुण के बेटे’ सरीखे उपन्यासों द्वारा हाशिये के समाज के कथाकार और ‘हरिजन गाथा’ लिखने वाले महाकवि हो चुके थे.
1970 में जब समूचे उत्तर भारत में मानस चतुश्शती समारोहों की धूम मची तब दिल्ली से प्रकाशित प्रगतिशील वैचारिक पत्रिका ‘मुक्तधारा’ में बाबा नागार्जुन के ‘मानस चतु: शताब्दी समारोह’ शीर्षक लेख का तीन अंकों में धारावाहिक प्रकाशन हुआ था.इस हस्तक्षेपकारी लेख की उन दिनों बहुत धूम और चर्चा रही. वर्तमान रामचरितमानस विवाद में इस लेख की विस्तृत चर्चा प्रासंगिक है इसमें आज के सारे मुद्दे समाहित हैं.
*उस लेख के कुछ अंश :*
“हमनें बड़ी गहराई से ‘मानस चतु:शताब्दी समारोह’ के बारे में सोचा है. कलम उठाने से पहले संत प्रवर तुलसीदास की छवि बार-बार ध्यान में बिठाने की कोशिश की है! जितना कुछ हमें तुलसी बाबा की जीवन- कथा के सिलसिले में मालूम हो सका है, तदनुसार उनका व्यक्तित्व यों तो मुझे काफी आकर्षक लगता है.
वह अकिंचन पिता और बदनसीब माँ के पुत्र थे. जन्मते ही दरिद्रता का अभिशाप तुलसीदास पर मंडराने लगा होगा.
मगर पचास वर्ष की उम्र के बाद? अच्छे खासे महंत की भूमिका में आ गए थे न? वर्णाश्रम (सनातन) धर्म के पुनरुद्धार का बीड़ा उठा लिया था आपने!
लोगों से संत जी ने साफ- साफ कहा -“पूजिय विप्र ग्यान गुन हीना ” यानी शूद्र अगर पठित भी हो तो उसको आगे नहीं बढ़ने दो.. यानी बेचारे तुलसीदास की भाव-भूमिका विवेचन करने नहीं बैठा हूँ इस समय. हाँ, इतना तो जोर देकर के प्रबुद्ध पाठकों को बतलाना ही चाहूंगा कि हमारे करोड़ों करोड़ ‘शूद्र’ भाई ‘रामचरितमानस’ को कभी खुले दिल- दिमाग से अपना नहीं सकेंगे. हिंदी भाषा- भाषी बहुजन समाज को ब्राह्मणशाही प्राचीरों की दुर्लंघ्य-दुर्भेद्य परिधि के अंदर नियतिवाद की पीनक में पड़े रहने का ‘अक्षय-पाठ’ पढ़ानेवाला यह ‘महाकाव्य: शोषण और प्रवंचना की नई-पुरानी बुनियादों को हिला पाएगा क्या?
कबीर और नानक की बराबरी में बिठलाकर तुलसीदास से जवाब-तलब करो तो आपकी असलियत का पता चल जाएगा. तुलसीदास ने ढेर सारी अच्छी-अच्छी बातें ‘लोक-भाखा'(अवधी) में कहने हिम्मत की.. उन्होंने दारिद्र्य को ही दशानन बताया . . कभी किसी नवाब या राजा के दरबार में हाजिरी नहीं बजाई.. और इसलिए संतशिरोमणि तुलसीदास परम प्रगतिशील थे, डाक्टर रामविलास शर्मा का यह रुख हमें कभी नहीं जंचा.
अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज’ तो जाने कब से उसी मूर्तिभंजक औघड़ के पक्ष में रही है, जिसे कबीर कहते हैं.
क्या हम हरिजनों-गिरिजनों और अहिंदू भारतीयों के लिए ‘रामचरितमानस’ का संक्षिप्त तथा सुधरा संस्करण नहीं तैयार कर सकते? क्या रामकथा के गायन-वाचन पर पुराणपंथियों का ही एकाधिकार सदा के लिए कायम रहेगा?
*कुछ आवश्यक सुझाव*
(क) शूद्र की निंदा और ज्ञान-गुणहीन ब्राह्मण की प्रशंसावाले अंशों को हटाकर आज की दृष्टि से उदार मनोवृत्तिवाले लोगों को जंचने-रुचनेवाला संस्करण जनसाधारण के लिए उपलब्ध हो.
(ख) इस अभिनव संस्करण वाले ‘रामचरितमानस’ में कथामूलक सहज स्वाभाविक अंश ही रहेंगे. पौराणिक अतिरंजनावाले , अवांतर प्रसंगोवाले, नामकीर्तन पर अत्यधिक जोर देने वाले, भक्ति का झाग छलकानेवाले अंश इस नए ‘रामचरितमानस’ में नहीं होंगें.
(ग) रामकथा के शैव-शक्त-जैन-बौद्ध या अन्य रुपांतर भी परिशिष्ट के तौर पर ‘संक्षिप्त रामचरितमानस’ में जुड़े हों.
(घ) सरकारों से बहुतेरी सुविधाएं प्राप्त ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर रामकथा प्रेमी ‘शूद्र’ हिंदू परिवारों और ‘विधर्मी’ हिंदीभाषियों को रुचनेवाला ‘संक्षिप्त अभिनव रामचरितमानस’ प्रकाशित प्रचारित करके अपनी व्यापक सदाशयता का परिचय दे.
उत्तर भारत में कोटि कोटि जनों के लिए रामचरितमानस आज भी अपरिहार्य है’ कई मित्रों ने समय समय पर हमसे कहा है.
_मन ही मन लेकिन देर तक सोचता रह गया हूँ :_
रामचरितमानस हमारी जनता के लिए क्या नहीं है? सभी कुछ है! दकियानूसी का दस्तावेज है, नियतिवाद की नैया है.. जातिवाद की जुगाली है. सामंतशाही की शहनाई है! ब्राह्मणवाद के लिए वातानुकूलित विश्रामागार.. पौराणिकता का पूजा मंडप क्या नहीं है! सब कुछ है, बहुत कुछ है!
रामचरितमानस की बदौलत ही उत्तर भारत की लोकचेतना सही तौर पर स्पंदित नहीं होती. ‘रामचरितमानस’ की महिमा ही जनसंघ के लिए सबसे बड़ा भरोसा होती है हिंदीभाषी प्रदेशों में.
तुलसी बाबा के व्यक्तित्व में तनिक भी खोट मुझे नजर नहीं आती है… जन्म तो आखिर ब्राह्मण वंश में ही हुआ था न! नानक या कबीरवाली भला प्रखरता कहाँ से लाते?
रामचरितमानस’ के प्रेमी (अंधभक्त नहीं) बहुजनहित और सत्यशोधन की दृष्टि से इस महाकाव्य की एक एक पंक्ति को वास्तविकता की कसौटी पर कसेंगे-आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों यह ‘अप्रिय कार्य’ उन्हें करना ही पड़ेगा. शूद्र वर्ग और श्र स्त्री वर्ग को सहज अपावन और ‘अति अधम’ बतलाने वाली एक भी पंक्ति जिस संस्करण में छपी हो, रामचरितमानस का वह संस्करण गैर-कानूनी घोषित हो जाए.
हरिजन-गिरिजन विधायक और सांसद इस दृष्टि से सतर्क रहें. ब्राह्मणवादी और सामंतशाही के धूर्त प्रतिनिधि ऊंचे ऊंचे पदों पर जमे बैठे हैं. अब भी मनुस्मृति और रामचरितमानस को ही वे अपने असली ‘नीति ग्रंथ’ मानते हैं. ‘समाजवाद’ और ‘आर्थिक समता’ आदि बहुतेरे शब्द उनके मुख से निकलने पर अपना सही मतलब खो बैठे हैं.
हिंदीभाषी राज्यों के अंदर छोटे- बड़े सैकड़ो शहर हैं, हजारों कस्बे हैं, लाखों गाँव हैं.. सर्वत्र रामचरितमानस के पुराणपंथी अनुशासन का बोलबाला है. परस्पर विरोधी बातों के समर्थन में ‘मानस’ की चौपाइयां और दोहे सुना- सुनाकर नागरिकों की सिट्टी पिट्टी गुम कर देनेवाले निरक्षर देहाती आपको वहाँ एक एक चौपाल में मिल जाएंगे! गरीबी, अज्ञान, जोर जुल्म, प्रवंचना, और बेइंसाफी को ‘विधाता की देन’ ‘नियतिनटी की लीला’ , ‘पूर्वजन्मों के बुरे कर्मो का कुफल’ मानकर सब कुछ बर्दाश्त करते जानेवाले तथाकथित इंसानों की संख्या करोड़ों करोड़ पहुंचा दी है ‘रामचरितमानस’ ने! जी हाँ, सारी जिम्मेदारी इसी पोथे पर डालूँगा मैं!
समाजवाद के हमारे सपने तब तक अधूरे ही रहेंगे, जब तक ‘मानस’ का मोह नहीं टूटता. पिछड़ी जातियों में पैदा होकर भी सौ किस्म की मजबूरियाँ झेलनेवाले साठ प्रतिशत इंसान तब तक सही अर्थों में ‘स्वतंत्र और स्वाभिमानी’ भारतीय नहीं होंगे, जब तक ‘रामचरितमानस’ सरीखे पौराणिक संविधान ग्रंथ की कृपा से प्रभु जातीय भारतीयों की गुलामी का पट्टा उनके गले में झूलता रहेगा.”
(स्रोत : नागार्जुन रचनावली, खंड 6).