प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड
गोस्वामी तुलसीदास (1511-1623) कृत ‘रामचरितमानस’, उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार, में जातिगत संघर्ष का सबब बन गई है। इस इलाके के ब्राह्मण और क्षत्रिय इस कृति के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं और इसे धार्मिक ग्रंथ ‘रामायण’ के समकक्ष मानते हैं। लेकिन शूद्रों और दलितों को यह स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इस पुस्तक में उनके बारे में अनेक अपमानजनक बातें कहीं गईं हैं। दो शूद्र यानी ओबीसी नेताओं – बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर और उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी नेता स्वामीप्रसाद मौर्य ने ‘रामचरितमानस’ पर हल्ला बोल दिया है। उनकी मांग है कि इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया जाये, क्योंकि यह शूद्रों, दलितों और महिलाओं का अमानवीयकरण करती है।
यद्यपि मैं किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने या उसे जलाने का समर्थक नहीं हूं, लेकिन यह ज़रूरी है कि साधु-सन्यासियों द्वारा लिखी पुस्तकों का समालोचनात्मक अध्ययन किया जाए। इन पुस्तकों के लेखक शिल्पकारों को नीची दृष्टि से देखते हैं और अनाज उत्पादन को शूद्रों की ज़िम्मेदारी मानते हैं। तुलसीदास, शूद्रों को पशुओं के समकक्ष रखते हैं। ऐसे में, क्या कोई शूद्र, दलित या आदिवासी उनकी कृति ‘रामचरितमानस’ के प्रति सम्मान का भाव रख सकता है?
यह अच्छा है कि शूद्र और दलित राजनेताओं ने उत्पादक वर्गों के विरोधी और उन्हें अपमानित करने वाले लेखकों की कृतियों की पड़ताल शुरू की है और वे इन पुस्तकों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते हैं। इससे पूरे देश के शूद्र, आदिवासी और दलित युवाओं को अपने आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा मिलेगी।
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव, जो स्वयं शूद्र हैं, ने भी इस मसले को गंभीरता से लिया है। गत 29 जनवरी, 2023 को एक पत्रकारवार्ता को संबोधित करते हुए अखिलेश यादव, जो कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, ने कहा कि “मैं शूद्र हूं या नहीं हूं? मैं राम या किसी भी अन्य हिंदू दैवीय व्यक्तित्व के खिलाफ नहीं हूं, परंतु क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, ‘रामचरितमानस’ में शूद्रों के बारे में जो कुछ कहा गया है, उसे दोहरा सकते हैं?” जब एक पत्रकार ने उनसे इस मुद्दे पर प्रश्न पूछना जारी रखा तो अखिलेश ने पत्रकार से कहा, “अगर आपको पता हो तो क्या आप वह पंक्ति सुना सकते हैं?”
इस पर पत्रकार ने यह पंक्ति सुनाई : “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी”
फिर अखिलेश ने पूछा कि ये पंक्ति शूद्रों, दलितों और महिलाओं का अपमान करती है या नहीं। अखिलेश ने पत्रकार की जाति जानने के लिए उसका पूरा नाम पूछा, लेकिन पत्रकार ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। इसके बाद अखिलेश ने कहा कि वे मुख्यमंत्री से इस पंक्ति को विधानसभा में दोहराने का अनुरोध करेंगे।
इसके पहले आरएसएस और भाजपा कार्यकर्ताओं ने अखिलेश को एक मंदिर में जाने से रोकने का प्रयास किया। उनकी मांग थी कि अखिलेश को अपनी पार्टी के नेता स्वामीप्रसाद मौर्य के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए। भगवा ब्रिगेड हाथ धोकर मौर्य के पीछे पड़ गई है। उनके खिलाफ पुलिस में मुकदमे भी दर्ज करवाए गए, लेकिन मौर्य अपने इस मांग से टस से मस नहीं हुए कि शूद्रों, दलितों और महिलाओं का अपमान करने वाली ‘रामचरिमानस’ को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
अखिलेश का कहना है की भाजपा सभी पिछड़ों और दलितों को शूद्र मानती है और ‘रामचरिमानस’ सभी शूद्रों और महिलाओं का अपमान करती है – उनका भी, जो भाजपा के सदस्य हैं और उनका भी, जिन्होंने भाजपा को वोट दिया है। भाजपा-संघ के द्विज नेता शूद्रों और दलितों को अपने समकक्ष नहीं मानते।
इसी तरह बिहार के शिक्षा मंत्री और राजद नेता चंद्रशेखर ने कहा कि ‘मनुस्मृति’ और संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर द्वारा लिखित ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ की तरह ‘रामचरिमानस’ भी लोगों को बांटने वाली कृति है।
यह कदाचित पहली बार है कि उत्तर भारत के शूद्र और दलित राजनेता, प्राचीन और मध्यकाल में ब्राह्मणों के जातिवादी (कथित हिंदू) लेखन के विरुद्ध बौद्धिक स्तर पर संघर्ष कर रहे हैं। संघ और भाजपा इसी तरह की कृतियों का उपयोग कर ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की अवधारणा का निर्माण करना चाहती है। इनमें से अधिकांश पुस्तकें बढ़ई, कुम्हार, किसान, पशु चराने वालों, चमड़े का काम करने वालों आदि जैसे उत्पादक वर्गों को शूद्र, चांडाल आदि बताती हैं तथा उन्हें सम्मान का पात्र नहीं मानतीं। इन वर्गों को शिक्षा पाने और राज्यतंत्र का हिस्सा बनने के योग्य भी नहीं माना जाता। उन्हें उन मंदिरों में प्रवेश की इजाजत भी नहीं है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आराधना करते हैं।
इन वर्गों को अब ओबीसी और दलित कहा जाता है। इसके पहले तक ओबीसी और दलितों ने ब्राह्मणवादी साहित्य का गहराई से अध्ययन नहीं किया और ना ही यह जानने की कोशिश की कि इन ग्रंथों में उनका क्या स्थान है। शूद्र वर्ग इन कृतियों में सीमित है और इसका आज के ओबीसी से संबंध को लेकर स्पष्ट समझ विकसित नहीं हुई है। यह भ्रम और गहरा इसलिए हुआ क्योंकि शिक्षित शूद्रों जैसे जाट, पटेल, मराठा, कम्मा, रेड्डी, लिंगायत, नायर आदि ने स्वयं को क्षत्रिय कहना शुरू कर दिया।
ऋग्वेद काल से लेकर मध्यकाल तक, ब्राह्मण लेखकों और संतों ने इन मेहनतकश वर्गों के लिए शूद्र और चांडाल जैसी संबोधनों का प्रयोग किया। ये वर्ग स्वयं को हिंदू नहीं मानते थे। ‘हिंदू’ शब्द तो भारत में अलबरूनी (973– 1053) की पुस्तक ‘अल-हिन्द’ के साथ आया। लेकिन आज संघ और भाजपा की गोदी में बैठा मीडिया, तुलसीदास को महान हिंदू संत बताता है। इस बीच आज के एक तथाकथित संत ने स्वामी प्रसाद मौर्य को जान से मारने की हिंसक घोषणा कर दी है। मौर्य ने जवाब में कहा है कि ऐसे व्यक्ति को संत नहीं, बल्कि आतंकवादी कहा जाना चाहिए।
गत 29 जनवरी, 2023 को लखनऊ में अखिल भारतीय ओबीसी महासभा के सदस्यों ने सार्वजनिक रूप से ‘रामचरितमानस’ के पन्नों को जलाया। उनका कहना था कि तुलसीदास उन अन्न उत्पादकों और शिल्पकारों का घोर अपमान करते हैं, जिनके श्रम के दम पर ही आज आरएसएस और भाजपा के नेता भारत के महाशक्ति बनने का दंभ भर रहे हैं। भारत आज जहां खड़ा है, उसके पीछे शूद्र, दलित और आदिवासी श्रमजीवियों की मेहनत है न कि उन्हें अपमानित करने वाले तुलसीदास जैसे लेखक।
हम सब जानते हैं कि किसी किताब को जलाने या उसे प्रतिबंधित करने से भारत की यह नकारत्मक साहित्यिक विरासत समाप्त नहीं हो सकती। इसके लिए ज़रूरी है इन पुस्तकों की गंभीर समालोचना, और शूद्रों और दलितों की भूमिका और योगदान पर नए विमर्श और नए लेखन की शुरुआत। इस बहस से आम लोगों को जोड़ना भी ज़रूरी है।
बहरहाल, अगर यह विवाद और आगे बढ़ता है तो देश को हिंदुओं और मुसलमानों में बांटने की भाजपा-आरएसएस की साजिश धरी की धरी रह जाएगी और एक नए विमर्श की शुरुआत होगी, जिसमें एक ओर होंगे शूद्र व दलित और दूसरी ओर तुलसीदास को श्रद्धेय मानने वाले द्विज।
आज सत्ताधारी ताकतें, ‘रामचरितमानस’ जैसी जातिवादी कृतियों को सामाजिक और राजनैतिक विमर्श पर थोपना चाहतीं हैं। दूसरी ओर, शूद्रों / ओबीसी और दलितों को यह अहसास हो चला है कि यह दरअसल एक जाल है जिसमें फंसस कर वे अपना वर्तमान और भविष्य दोनों खो बैठेंगे।
अब तक ओबीसी और दलितों का संघर्ष मुख्यतः आरक्षण के मुद्दे के इर्दगिर्द रहा है। तेजी से बढ़ते निजीकरण के चलते यह मुद्दा अब अप्रासंगिक हो चला है। सत्ताधारी ताकतों की योजना यह है कि मुसलमानों का डर दिखाकर शूद्रों और दलितों को द्विजों के नेतृत्व और उनके नियंत्रण में गोलबंद किया जाए। शूद्रों को यह समझ आ रहा है यह उन्हें कमज़ोर और लाचार बनाने की चाल है।
शूद्र-दलित बनाम द्विज संघर्ष आरएसएस-भाजपा के चालों पर पानी फेर देगा। यह इसलिए भी क्योंकि बंगाल और ओडिशा को छोड़कर, देश भर में अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों का नियंत्रण मंडल क्रांति के बाद उभरे शूद्र नेताओं के हाथों में है।
अखिलेश यादव और शूद्र और दलित नेताओं को याद होगा कि योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में प्रवेश करने से पहले, उसे गाय के दूध और गौ-मूत्र से धुलवाया था, क्योंकि इस भवन के पिछले किरायेदार – अखिलेश यादव – शूद्र थे। अगर अगले चुनाव के बाद आदित्यनाथ देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो क्या वे प्रधानमंत्री आवास को भी शुद्ध करवाएंगे। आखिर वहां भी तो एक शूद्र ही रह रहा है।
कुल मिलाकर, ‘रामचरितमानस’ पर शुरू हुई बहस उत्तर भारत में एक सांस्कृतिक संघर्ष की शुरुआत कर सकती है।
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया,)