अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

रामचरित मानस अनुकूल नहीं सही, लेकिन उसे रहने दो

Share

पुष्पा गुप्ता

      अच्छी भाषा अच्छा साहित्य उसके बोलने और लिखने वालों पर निर्भर करता है. भाषाएँ तो सब ज़ुबान से ही निकलती हैं, लेकिन चल वही पाती है, जिसमें लय हो, रागात्मकता हो और उसे उसको बोलने वालों ने एक रिदम (गेयता) दी हो. नागार्जुन ने लिखा है, कि बिना लय के न भाषा चलती है न कविता. रामायण और रामचरित मानस इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, कि वे वैष्णव हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ हैं बल्कि इसलिए वे जन-जन तक व्याप्त हैं क्योंकि वे गेय शैली में हैं.

      वे न भी लिपिबद्ध किये जाते तो भी उनकी गेयता उन्हें अमर बनाये रखती. यह गेयता आती है पीड़ा से, दुःख को आत्मसात् कर लेने से और तब यही कवि की वाणी को सुर के अनुकूल ढालती है.  जब प्रणयरत एक क्रौंच पक्षी को बहेलिये ने मार गिराया तो महर्षि वाल्मीकि के स्वर से कविता फूटी- “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः, यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्”.

      अर्थात् ऐ निषाद तू युगों-युगों तक प्रतिष्ठा को नहीं पा सकेगा, क्योंकि तूने काम किल्लोल कर रहे पक्षियों के जोड़े में से एक को मार गिराया है.  

सोचिये, कितना करुण दृश्य होगा, जब काम में रत युगल में से एक को कोई शिकारी अचानक मार दे.  कभी भी प्रणयरत पशुओं को मारने की हिमाक़त कोई जाँबाज़ शिकारी भी नहीं करता. इस दृश्य को देख कर महर्षि की वाणी से करुण स्वर फूट पड़े. इसके बाद तो महर्षि वाल्मीकि ने करुणा से भरा एक महाकाव्य ही लिख डाला. 

     ध्यान रखियेगा, रामायण महाकाव्य है, वह वेद या गीता नहीं, जिन्हें धार्मिक ग्रंथ कहा गया है. इन्हीं महर्षि वाल्मीकि की राम कथा से प्रेरित हो कर हर भारतीय भाषा में राम के कथानक को अलग-अलग ढंग से रचा गया. इनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय तमिल में कम्बन की रामायण हुई तो हिंदी में रामचरित मानस. इस रामचरित मानस की चौपाइयों और दोहों को वे लोग भी गुनगुनाते मिल जाएँगे, जो लिखना-पढ़ना नहीं जानते.

        लेकिन रामचरित मानस की गेयता और लय ने इसे घर-घर तक पहुँचा दिया. उत्तर भारत ही नहीं बल्कि पश्चिमी और पूर्वी भारत में भी रामचरित मानस की चौपाइयाँ गाते लोग मिल जाएँगे. यह है भाषा और उसे बरतने वालों का प्रसार तथा उसकी पहुँच. मालूम हो कि रामचरित मानस आज की हिंदी में नहीं बल्कि एक बोली अवधी में लिखी गई है. 

इसी तरह विद्यापति ने मैथिल में काव्य रचे हैं, लेकिन उनकी कविताओं की मिठास ने मैथिल को मिथिला क्षेत्र के बाहर बंगाल में भी लोकप्रिय बनाया हुआ है. आलम यह है, कि विद्यापति को बांग्ला में भी पढ़ाया जाता है. भाषा कम्युनिकेट करने का साधन है, यानी उसमें प्रमुख है संचार भाव. जो भाषा जितना अधिक आसानी से कम्युनिकेट कर लेती है, वही समाज में लोकप्रिय बनती है.

      यह रामायण और रामचरित मानस की ही देन है कि पहले संस्कृत और अब हिंदी आसानी से दो विभिन्न भाषाओं के बीच सेतु बनती है. अगर एक तमिल भाषी और बाँग्ला भाषी परस्पर मिलें तो किस भारतीय भाषा में परस्पर संवाद करेंगे? ज़ाहिर है आज वह भाषा हिंदी होगी. अतीत में वह संस्कृत थी. अद्वैतवाद के सारे आचार्य दक्षिण के थे लेकिन उन्होंने अपने भाष्य संस्कृत में लिखे.

       यही हाल आज है, किसी भी भाषा की पुस्तक को तब तक विशाल पाठक वर्ग नहीं मिलता, जब तक कि उसका भाष्य या अनुवाद हिंदी में न हो. 

ऐसा इसलिए नहीं है कि हिंदी फ़िल्मों ने उसे फैलाया बल्कि ऐसा इसलिए है, कि हिंदी में सर्वाधिक छंदबद्ध और लयबद्ध ग्रंथ रामचरित मानस है, जो सदियों पहले पूरे भारत में आदृत हो गया था. रामचरित मानस की चौपाइयाँ और दोहे तो याद रहते ही हैं, उसमें जो भाव हैं, वे एक साहित्यकार की लय है, उसके सुर हैं, जो भाषा में माधुर्य लाती है.

      यही स्थिति वाल्मीकि कृत रामायण की थी. उसके हर श्लोक में गीतात्मकता है. इसलिए वह महर्षि के बाद भी लोगों के दिमाग़ में रही. लिखा तो उसे बहुत बाद गया है.  

       रामचरित मानस लिखने वाले तुलसीदास तो स्वयं ही कहते हैं, कि ‘गिरा अनयन, नयन बिनु बानी!’ अर्थात् वाणी के पास आँखें नहीं है और आँखों के पास वाणी नहीं. इसलिए मैं कैसे सीता की सुंदरता का वर्णन करूँ!

अब इस तरह की भाव विह्वलता रघुपति सहाय फ़िराक़ में देखने को मिलती है, जब वे लिखते हैं- “तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो, तुम को देखूँ कि तुमसे बात करें!” भावों के माध्यम से अपनी विह्वलता व्यक्त करना एक ऐसी कला है, जो समृद्ध करती है भाषा को. इसकी वजह है, ऐसी कविता का कंठस्थ हो जाना और जहां भाषा न हो वहाँ भावों के ज़रिए बात करना. भाषा में संगीत देने का काम हिंदी में तुलसीदास ने किया है. अकेले रामचरित मानस में ही नहीं वे अपने हर ग्रंथ में अपनी विह्वलता को कभी गीत के ज़रिए तो कभी भावों के ज़रिए व्यक्त करते हैं. उनकी कवितावली, विनय पत्रिका या गीतावली आदि सब में शब्दों को लय में पिरोया हुआ मिलेगा. यह तुलसीदास की ख़ासियत है. 

       अभी पिछले दिनों प्रख्यात ओड़िया साहित्यकार प्रतिभा राय ने एक समारोह में कहा, कि साहित्य संगीत के बिना पूरा नहीं होता और संगीत बिना साहित्य के अधूरा है. कितनी सुंदर बात कही उन्होंने. संगीत और साहित्य परस्पर पूरक हैं. साहित्य के हर शब्द से जब संगीत की ध्वनियाँ निकलती हैं तो वह साहित्य लोक मानस में गहरे पैठ जाता है.

       फिर न धर्म आड़े आता है न जाति न कोई समुदाय या पंथ. सब मिल कर एक हो जाते हैं. यह एकात्मकता और रागात्मकता ही इतना व्यापक असर डालता है, कि सदियाँ उसे भुला नहीं पातीं. आज रामचरित मानस और तुलसीदास दोनों पर हमले हो रहे हैं. कुछ जाति-पोषकों को लगता है, कि तुलसी ने ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए शूद्रों को भला-बुरा कहा है.

       लेकिन वे लोग इसके विपरीत रूपकों को नहीं देख पाते, जब तुलसीदास कई जगह ब्राह्मणों को ही अधम बताते हैं. मज़े की बात जिन जातियों को लगता है, कि तुलसी ने उनका अपमान किया है, उन्हीं की बड़ी संख्या तुलसी के समर्थन में खड़ी है.

       राजनीति को साहित्य से नहीं मिलाया जा सकता. आप राजनीति करो, लेकिन उसमें रामचरित मानस या तुलसीदास को घसीटने का क्या अर्थ?

 कार्ल मार्क्स के सहयोगी और उनके अति निकटस्थ मित्र फ़्रेडरिख एंगेल्स ने अपनी पुस्तक ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य का उदय’ में ग्रीक पुराणों की अकल्पनीय बातों पर लिखा है, कि आज के युग की नैतिकता से और आज की वैज्ञानिकता से हम अतीत को भला-बुरा नहीं कह सकते. अगर हम आज के नैतिक मूल्यों के आधार पर अतीत को मापेंगे तो यह हमारे दिमाग़ में भरी अनैतिकता का प्रदर्शन है. लेकिन अब रामचरित मानस और उसके रचयिता के विरुद्ध यही हो रहा है. राजनीति जो न कराए वह कम है. 

       हर पुरानी चीज को जलाने या नष्ट करने का अर्थ है, कि हम अपने अतीत को ख़त्म कर देना चाहते हैं. मिथक में बहुत सारी कल्पनाएँ होती हैं और उस समय के मनुष्यों की सोच को भी अतीत के साहित्य ही सामने लाते हैं. उनको ख़त्म कर देने से तो हम कभी नहीं समझ पाएँगे कि पुराना समाज कैसा रहा होगा.

       आज के समाज में नई नैतिकताएँ हैं और नई सामाजिक पृष्ठभूमि भी. अब समाज में वे पुरानी मान्यताएँ नहीं आ सकती हैं और न कोई उनके अनुसार चलने का हामी होगा. किंतु कुछ लोग अतीत की बातों के अर्थ बदल कर समाज को नष्ट कर रहे हैं, उनसे ज़रूर संभलना होगा.

   तुलसी के समय एक कवि की कल्पना कैसा समाज चाहती थी, इसका एक उदाहरण है रामचरित मानस. माना की यह आज के समाज के अनुकूल नहीं है, लेकिन उसे रहने तो दो. अतीत से ही हम आगे बढ़ने का सबक़ लेंगे. इसलिए काव्य को काव्य ही रहने दो.

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें