अग्नि आलोक
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बात स्वर्गों की, जमीं की, औरों की, हम सभी की

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डॉ. प्रिया

भारत के विषय में कोई भी बात बिना स्वर्ग की चर्चा किए पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि देवता यहां  स्वर्ग से उतरे थे और मनुष्य बने थे। रामायण पर तो चर्चा संभव ही नहीं, राम तो स्वतः विष्णु के अवतार हैं।  

        अवतार की कहानियां दूसरी सभ्यताओं में भी रही हैं।  मिस्र के फिरौन को तो  धरती पर परमात्मा का प्रतिनिधि ही माना जाता था, उस तक किसी की सीधे पहुंच नहीं हो सकती थी। मिस्र बहुदेववादी था।

        कई देवी-देवता कई भूमिकाओं में उसकी सहायता करते थे। मिस्र की स्वर्ग की कल्पना और राजा की भूमिका में भारत से कई समानताएं मिलती हैं, पर उनमें स्वर्ग की भौगोलिक स्थिति के विषय में कोई सूचना नहीं है। 

       सामी कथाओं के आदम स्वर्ग से निकाले गए थे, जबकि भारत में स्वर्ग से उतरे थे। पश्चिमी देशों की स्वर्गभूमि पूरब में थी, भारत का स्वर्ग उत्तर में था। यह हिमालय से परे था, परंतु कितनी दूर, इसकी ठीक जानकारी किसी को नहीं थी, क्योंकि जिस चरण पर इन कहानियों को याद किया और लिपिबद्ध किया जा रहा था, उस समय तक न जाने कितने हजार साल बीत चुके थे।

       पौराणिक भाषा में कही गई कहानी की धुंध में कई युगों का इतिहास छिपा रहता है जिसे व्यवस्थित करते हुए, इतिहासकार का अपनी समझ पर विश्वास डगमगाने लगता है।  भारतीय सामाजिक स्मृति में भी देवों की दिशा पूर्व है। देवलोक पूर्वोत्तर में है जो फैल कर कर पूरे हिमालय को घेर लेता है।

      फिर स्वर्ग भी अनेक हो जाते हैं जिन पर संकट आता रहता है जिसके  निवारण के लिए इन्द्र को रघुवंशी राजाओं की शरण में आना पड़ता है। वे जाते हैं और असुरों से उनकी रक्षा भी करते है। कुछ ऋषि, जैसे नारद स्वर्ग से धरती तक का चक्कर लगाते रहते हैं।

       फिर त्रिदेवों के अपने धाम हैं। देवों पर संकट आता है तो वे दौड़ कर विष्णु के पास समाधान या रक्षा की गुहार ले कर पहुंच जाते हैं। विष्णु उन्हें निराश नही करते। यह सहायता छल-कपट तक पहुंच जाती है। वह ईश्वर हैं पर परमेश्वर नहीं। ब्रह्मा और महेश के सामने उनकी नहीं चलती। 

     ये तीनों देव सगुण और साकार हैं जो परमेश्वर की तीन शक्तियों – सर्जना, रक्षण और विनाश से लैस है। ये सारे विवरण इतने गड्डमड्ड हैं कि इन्हें प्रलाप तक नहीं कहा जा सकता, इसके बाद भी ये न तो न निराधार हैं न ही उपेक्षणीय।

इनमें एक दीर्घ काल-प्रसार के कई चरणों का इतिहास सिमटा हुआ है ।

     हम यहां अत्यंत क्षीण आधार पर एक  एक ऐसी संभावना की बात करने जा रहे हैं जिसकी सत्यता का दावा नहीं करते और गलत मान नहीं पाते। उत्तर की दिशा में स्वर्ग की कल्पना क्या भारतीय समाज के किसी समुदाय में बचे रह गए इस विश्वास  पर आधारित है, कि उसके पूर्वज उत्तर की दिशा में स्थित किसी सुदूर क्षेत्र से भारतीय भूभाग में आए थे? तिलक ने वैदिक जनों  के आदि देश के रूप में उत्तरी ध्रुव  का प्रस्ताव रखा था।

      इसमें कई तरह की गलतियां हैं जिनमें कुछ औपनिवेशिक दबाव में और कुछ उस समय तक की जानकारी के स्रोतों की सीमा के कारण हैं। हम इसमें कुछ सुधार करके आर्यों की जगह मानव समुदायों की बात कर सकते हैं क्योंकि आर्य का प्रयोग कृषि के बाद ही किया जा सकता है।

      इसके लिए हमें आर्कटिक से प्रस्थान के मामले में  तिलक  द्वारा सुझाई गई काल रेखा को भी बहुत पीछे ले जाना होगा।  उस दशा में  हमें  उनकी अपेक्षा अधिक ठोस प्रमाण मिल जाएंगे।  उस क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदायों की यह यात्रा विगत हिमयुग की तीव्रता के दौर में आर्कटिक क्षेत्र से, प्राणरक्षा के लिए,  दक्षिण की दिशा में पलायन करने वाले लोगों के साथ शुरू होती है। परंतु आहार की उपलब्धता और आबादी के दबाव और आपसी टकराव के कारण वे हजारों वर्ष बाद अपनी जगह बदलते रहे। 

यह याद किसी समुदाय की चेतना में कैसे बनी रह गई इसका पता हमें नहीं है यद्यपि यह सच है कि विगत हिमयुग के किसी चरण पर उत्तरी ध्रुवप्रदेश से लोगों का पलायन, दक्षिण की दिशा में, पूरे उत्तरी गोलार्ध में – यूरोप, एशिया, अमेरिका सभी की ओर हुआ था।

      इस दौर में यूरोप से लेकर एशिया तक के कुछ ही ऐसे कोने बच रहे थे, जो हिम युग की उग्रता से उस रूप में प्रभावित नहीं हुए थे, जिस तरह दूसरे। संभव है चारों ओर से घिर जाने के बाद कुछ लोगों ने अपनी जान बचा ली हो और वहां  बाद में भी बने रह गए हों  परंतु शेष आबादी दक्षिण की ओर भारत पर्यंत पलायन करने को बाध्य हुई थी और भारत उस काल का सबसे आकर्षक क्षेत्र था। इसका प्रसार संभवत मकर रेखा तक था।

     सृष्टि की दो तरह की कहानियां प्रचलित है।  पहली ब्रह्मांड की सृष्टि, जीवों-जन्तुओं और मनुष्य की  सृष्टि से संबंधित है और दूसरी कृषि के आरंभ से संबंधित। 

भारत में इन दोनों के कई रूप मिलते हैं। हम दूसरी कोटि की कथाओं  से इतिहास तक – काल्पनिक से वास्तविक तक – पहुंचने का प्रयत्न करें तो पश्चिम का पुराण कहता है कि खेती का ज्ञान उसे पूरब से मिला। 

     जिन देवों के बीच आदम किसी स्वर्ग में  रहता था वह पूर्व में था। भारतीय झूम खेती के अनुभव का सार सत्य यह हैं कि अपने प्रयत्न से अन्न उपजाने वालों को इसलिए प्रताडित करके देश देशांतर में भागने को मजबूर  किया जाता रहा कि उनके इन प्रयोगों से प्राकृतिक साधनों को क्षति पहुंच रही थी।

     उनके इस पलायन के ही कृषिविद्या का प्रसार भूमध्य सागर से लेकर प्रशांत महासागर तक के देशों में जहां तहां हुआ।  भारत में देवों की दिशा पूर्व मानने वाले कुरुक्षेत्र में बसे वैदिक परंपरा के लोग थे और पूरबी का भारतीय आशय भोजपुरी क्षेत्र रहा है क्योंकि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. तक उससे पूरब का क्षेत्र दलदल था।

        कुरुक्षेत्र  में बसने वाले मध्य गंगाघाटी क्षेत्र से आए थे। पर देव भूमि या वह भूभाग जहां उन्होंने स्थाई खेती आरंभ की वह जैसा कि हम आगे देखेंगे, कुरुक्षेत्र से पूर्वोत्तर में वर्तमान नेपाल में था जो कालक्रम से फैल कर  पूरे पर्वतीय  क्षेत्र के लिए प्रयोग में आने लगा। 

भारतीय जनों में एक समुदाय की चेतना में युगों पुरानी याद बनी रही कि धरती पर उनका आगमन सुदूर उत्तर के ऐसे क्षेत्र से हुआ है जहां कभी अंधेरा नहीं होता है, जो स्वर्गोपम है, इस लोक में जाने की कामना भारतीय चेतना में लगातार बनी रही है।

       वीर गति पाने वाले योद्धा की आत्मा जिस स्वर्लोक को जाती है वह यही है। उनका केसरिया बाना उसी लोक के रंग का है। 

इसका सबसे मार्मिक चित्रण ऋग्वेद के नवेंं मंडल की कुछ ऋचाओं में है:

    यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिन् लोके स्वर्हितम्।

तस्मिन् मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्रव।। 

    (ऐ सोम, तुम हमें उस लोक में पहुंचा दो जहां  निरंतर प्रकाश बना रहता है, जिसमें स्वर्ग बसा हुआ है, जो जिस अमृत लोक में कोई बूढ़ा नहीं होता।) 

   यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः।

यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव।।  

    (जहां के राजा विवस्वान है, जो द्युलोक की सीढ़ी है, जहा का जल अमृत है, उस लोक में हमें पहुंचा कर अमर कर दो।) 

   यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः।

लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव।। 9.113.7-9

     (जहां कोई भी कामना पूरी हो जाती, जो तीनो लोक से न्यारा है, जहां के लोग आभादीप्त रहते है, मुझे वहांं पहुंचा कर अमर बना दो, ऐ सोम इन्द्र के लिए स्रवित होओ।)

अति दीर्घ जातीय स्मृति पर अंकित आर्कटिक क्षेत्र का इससे सटीक  चित्रण संभव नहीं। जहां तक सात या नव स्वर्गों की बात है वे वैदिक कालीन व्यापारिक प्रसार के दौर के सुरक्षित प्राकरवेष्ठित अड्डे हैं जहां के नगर सेठ (इंद्र) असाधारण संपन्नता के साथ मुक्ताचार करते थे पर इनकी ( शोर्तुगाई, डैश्ली, सपल्ली, सूसा, वसुकनि, आदि ) सुरक्षा के बाद भी स्थानीय उपद्रवियों से समय-समय पर त्रस्त हो जाते थे और ऐसे अवसरों पर वे भारतीय राजाओं से सहायता का अनुरोध करते थे और रघुवंशी  इस दृष्टि से सबसे साहसी थे। 

         अब पौराणिक मलबे को जब टुकड़े टुकड़े जोडते हुए सही क्रम में रखते हैं तो हमारे सामने एक ऐसा  विस्मयकारी इतिहास आता है जिसका आधुनिक काल से पहले किसी अन्य को पता ही न था।

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