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मुगलों के बनाए भव्य स्मारकों की तारीफ करने में कोई बुराई नहीं

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बदले जा रहे हैं ब्रिटिश और मुगल शासन से जुड़े स्मारकों के नाम

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित राष्ट्रपति के मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान कर दिया गया है। इस पर एक वर्ग की आपत्तियां सामने आ रही हैं तो दूसरा वर्ग इसे भारत के पुनर्जागरण से जोड़कर देख रहा है। हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (ToI) में कॉलमिस्ट स्वपन दासगुप्ता ने लिखा है कि मुगल गार्डन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे मुगल कहा जा सकता है। इसी तरह औरगंजेब रोड का भी औरंगजेब से कोई लेना-देना नहीं था। मुगल गार्डन और औरंगजेब रोड जैसे नाम लंबे समय से बोले जा रहे थे, बस इतना ही। ये दोनों नाम तो भारत की गुलामी के वक्त से ही जुड़े हैं।

वैसे भी नाम तो बीजेपी शासन से पहले भी बदले जाते थे। तभी तो बॉम्बे, मुंबई हो गया और मद्रास, चेन्नै। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के शहर इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया गया। वहीं, महाराष्ट्र में औरंगाबाद को संभाजी नगर कर दिया गया। गुजरात के अहमदाबाद का नाम बदलकर कर्णावती करने की मांग बहुत लंबे समय से हो रही है। ऐसी कई और मांगें भविष्य में भी उठ सकती हैं क्योंकि भारत औपनिवेशिक मानसिकता से उबरने को उत्सुक है।

स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि बीटिंग रीट्रीट सेरेमनी समेत ब्रिटिश शासन के तमाम प्रतीकों से छुटकारा पाने की ललक मुगलों से पीछा छुड़ाने की चाहत के मुकाबले कम विवादास्पद है। पश्चिम के देशों में औपनिवेशिक विरासत से मुक्ति पाने की जोर पकड़ती प्रथा से स्पष्ट है कि इससे भारत-यूके के संबंध में भी कोई खराबी नहीं आएगी। हालांकि, दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य के प्रतीक चिह्नों को ध्वस्त किया जाना शायद ही कभी सवालों के घेरे में नहीं आता हो।

इन सबके बीच एक सवाल जो केंद्र में है, वह है कि आखिर भारत ने अपनी संप्रभुता कब खोई थी? कुछ लोगों का कहना है कि 1757 में प्लासी की लड़ाई में क्लाइव की की जीत और बंगाल पर ब्रिटिशों के कब्जे को भारत के उपनिवेश बनने की शुरुआत मानते हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 जून, 2014 को लोकसभा में अपना शुरुआती भाषण देते हुए एक अलग नजरिया पेश किया। उन्होंने कहा था, ‘बारह सौ साल की गुलामी की मानसिकता हमें परेशान कर रही है। बहुत बार हमसे थोड़ा ऊंचा व्यक्ति मिले, तो सर ऊंचा करके बात करने की हमारी ताकत नहीं होती है।’ पीएम का गुलामी की अवधि बारह सौ साल बताना महत्वपूर्ण है।

स्वतंत्रता संग्राम के वक्त मुस्लिम लीग ने आजाद भारत में हिंदुओं के साथ रहने से इनकार कर दिया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शासन काल की राजनीतिक बाध्यताओं के कारण भारत की संप्रभुता के प्रश्न को नहीं छेड़ा गया। बल्कि इसका जोर-शोर से प्रचार किया गया कि अफगानिस्तान, मध्य एशिया और तुर्की से आए आक्रांताओं ने तो हिंदू राजाओं के साथ सत्ता की साझेदारी की। इस तरह, दारा शिकोह के खिलाफ उत्तराधिकार युद्ध और अन्य सैन्य अभियानों में औरंगजेब का हिंदु राजाओं का साथ लिए जाने को यह बताया गया कि दरअसल मुगलों ने हिंदुओं के खिलाफ जो कुछ भी किया, उसका आधार राजनीतिक था, नस्लीय या धार्मिक नहीं। वैसे तो ब्रिटिश उपनिवेश में भी भारतीय राजाओं को संरक्षण दिया गया, लेकिन वो संप्रभु और स्वतंत्र नहीं थे।

11वीं-12वीं सदी से उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर विदेशी आक्रांताओं का शासन हो गया था। तब हिंदू राजा उनके अधीन हुआ करते थे। यह मुगल और ब्रिटिश काल में भी नहीं बदला। मराठा और सिख राजाओं के साथ अलग तरह के संबंध स्थापित करने की कोशिशें हुईं, लेकिन यह टिकाऊ साबित नहीं हो पाई। बहादुर शाह जफर ब्रिटिशों के खिलाफ 1857 के पहले संग्राम के अगुवा इसलिए बने क्योंकि मुगल भी ब्रिटिश उपनिवेश में आ गए थे, इसलिए नहीं कि उनकी पहचान भारतीय हो गई थी।

भारत को लंबे समय तक विदेशी शासन की दासता झेलनी पड़ी। इसने सामूहिक आत्मविश्वास को तहस-नहस कर दिया। इसका यह मतलब नहीं है कि मुगल स्मारकों की प्रशंसा या उनका प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। यह बताना नहीं होगा कि मुगल और भारतीय होना, एक बात नहीं है। इस कड़वी सच्चाई को लोग अच्छे से समझते हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करना चाहते। लेकिन जो सच है, उसे स्वीकार तो करना होगा।

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