अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

वह यज्ञ जिसमें विष्णु एवं शिव के गण वीरभद्र एक दुसरे से टकराए?

Share

नंदकिशोर श्रीमाली

वैदिक धर्म में यज्ञ को विशिष्ट महिमामय स्थान प्राप्त है। देवता एवं मनुष्य के बीच पारस्परिक सम्बन्धों की कड़ी यज्ञ है। यज्ञ के द्वारा देवताओं को हवि प्रदान की जाती थी एवं वे यजमान को इच्छापूर्ति का आशीष देते थे। देवता और मनुष्य के आपस के इस आदान-प्रदान में यज्ञ एक माध्यम है, जिसका उद्देश्य यजमान के कल्याण को सुनिश्चित करना था।

परंतु एक ऐतिहासिक यज्ञ ऐसा भी हुआ जिसमें सब तहस-नहस हो गया, तथा यजमान का सिर यज्ञ कुण्ड में जला दिया गया एवं आज भी वे बकरे का सिर लगाए हैं।

इस भीषण काम को शिव के विशेष गण वीरभद्र ने विष्णु को जिनका प्रधान काम यज्ञ की रक्षा है, उन्हें पराजित करके किया। यज्ञ के रक्षार्थ भगवान विष्णु ने राम अवतार में रावण तथा उसके संबंधियों का प्राणान्त कर दिया था।

कैसा था वह यज्ञ जिसमें विष्णु एवं शिव के गण वीरभद्र एक दुसरे से टकराए एवं क्यों?

इस यज्ञ का आयोजन दक्ष ने किया था एवं उन्होंने सभी गणमान्य जनों, देवता, गंधर्व, ऋषि मुनि, ब्रह्मा जी, विष्णु भगवान को यज्ञ में निमंत्रित किया, परन्तु शिव जो स्वयं भगवान हैं उन्हें उस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया गया।

दक्ष ने ऐसा दुस्साहस क्यों किया? इस की कहानी इससे पहले प्रयाग में शुरू हुई थी। प्रयाग में एक विशाल यज्ञ का का आयोजन हुआ जहां ब्रह्मा, देवतागण, शिव-सती एवं दक्ष आए थे। दक्ष उन दिनों समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बने थे, एवं इस बात का उन्हें बहुत अहंकार था। सभी देवताओं ने आगे बढ़कर, खड़े होकर दक्ष का अभिवादन किया, सिवाय रुद्र के।

लौकिक रूप से दक्ष शिव के श्वसुर थे, एवं उनका सम्मान करना शिव का धर्म, परन्तु गूढ़ रूप से शिव संसार के स्वामी हैं। इस जगत को चलाने वाले महेश्वर एवं सभी प्राणी उनके अधीन है।

अहंकार वश दक्ष की आंखों के आगे पर्दा छा गया एवं वे शिव की लीला समझ नहीं पाएं। उन्होंने शिव के बाह्य रूप को सत्य समझा। उन्हें लगा शिव शमशान वासी हैं, भूत-प्रेतों से सेवित हैं, अतः इन्हें यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाए।

दक्ष के इन कठोर वचनों को सुनकर शिव के प्रमुख गण नन्दी से रहा नहीं गया। उन्होंने दक्ष को शाप दिया, “अहंकारी दक्ष! यहां जो भगवान रुद्र से विमुख दुष्ट ब्राह्मण हैं, उन्हें मैं रुद्र के तेज से शाप दे रहा हूं।’’

अहंकार, आडम्बर में लीन ब्राह्मण गण वेद के ज्ञान से दूर हो जाएं एवं स्वर्ग को सब कुछ समझें। वे दान लेने में लगे रहें एवं आत्मज्ञान से विमुख होकर कर्मकाण्ड को सब कुछ समझें। तथा दक्ष का मुख बकरे सा हो जाय।

प्रयाग की घटना के बाद, दक्ष ने महान यज्ञ का आयोजन किया एवं यज्ञ के ईश्वर, महेश्वर एवं सती को निमंत्रित नहीं किया। सती यज्ञ में फिर भी चली गई और उसके बाद यज्ञ में ऐतिहासिक उत्पात मचा, ऐसा विध्वंस जो न भूतो ना भविष्यति।

दक्ष यज्ञ में सती ने शिव का हिस्सा नहीं देखा एवं गुस्से से भर कर उन्होंने योगाग्नि में अपने को समाप्त कर दिया। सती के स्वयं को समाप्त करने के बाद शिव क्रुद्ध हो गए एवं उन्हेांने अपने सिर से एक जटा उखाड़ा और उसे रोष पूर्वक पत्थर पर मार दिया। उस जटा के आगे के हिस्से से वीर भ्रद उत्पन्न हुए एवं पीछे के हिस्से से महाकाली उत्पन्न हुई।

इनका उद्देश्य दक्ष के यज्ञ एवं वहां उपस्थित सभी देवतागणों को भस्म कर देना था क्योंकि वे शिव की आज्ञा का उल्लंघन करके वहां थे, अतः वे शिव के द्रोही हुए।

वीरभद्र शिव के गणों के अगुआ हैं (अर्थात्‌‍ आगे-आगे चलते हैं) और वे महाकाली एवं करोड़ों गणों की सेना लेकर इस अमंगलकारी यज्ञ को नष्ट करने की भावना से चल दिए।

उनके यज्ञ की ओर प्रस्थान करते ही अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे। दक्ष की बांयी भुजा, बांयी आंख, बांयी जांघ फड़कने लगे जो अमंगल सूचक हैं। दक्ष की यज्ञशाला में धरती डोलने लगी। इन अपशकुनों को देखकर एवं अनुभव करके दक्ष अति दुखी होकर अपने भगवान श्रीविष्णु की शरण में गए एवं उनकी स्तुति करने लगे।

दक्ष ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की, कि “आप यज्ञ के रक्षक है, मेरे यज्ञ की रक्षा करना आपका कर्त्तव्य है। ऐसी कृपा करें कि मेरा यज्ञ नष्ट नहीं हो।’’

भगवान विष्णु ने अपने चरणों में लेटे हुए दक्ष को उठाकर उन्हें समझाते हुए कहा

ईश्वरावज्ञया सर्व कार्य भवति सर्वथा
विफलं केवलं नैव विपत्तिश्च पदे पदे
अपूज्या यत्र पूजनीयो न पूज्यते
त्रीणी तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम्‌

(शिव पुराण)

इस स्थान पर जीवन के परम तत्व का ज्ञान भगवान विष्णु ने दक्ष को दिया। जीवन का परम तत्व ईश्वर हैं। ईश्वर की अवहेलना से सारा कार्य व्यर्थ एवं निष्फल हो जाता है एवं पग-पग पर विपत्ति आती है। जहां अपूज्य पुरुषों की पूजा एवं पूजनीय पुरुषों की पूजा नहीं की जाती है, वहां दरिद्रता, मृत्यु तथा भय, ये तीन संकट आते हैं।

देवताओं के साथ शिवगणों का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ जिसमें देवतागण हार गए एवं स्वर्ग की ओर भागने लगे उस समय केवल महाबली इन्द्र उस संग्राम में खड़े रहे एवं सभी देवता बृहस्पति जी अपने देव गुरु से पूछे कि हमारी विजय कैसे होगी?

बृहस्पति ने कहा कि तुमने ईश्वर की अवहेलना करके काम किया, इसलिए इतना दुख कष्ट मिला।

जैसा कर्म दक्ष ने किया उसका फल उन्हें प्राप्त होगा। अभी, इन्द्र आप इस कठिन समय में यहां है, तब आपको भी इसका परिणाम भुगतना होगा। वीरभद्र ने रोष में भरकर इन्द्र को डांटा एवं यज्ञ भूमि से सभी देवताओं को मार भगाया।

अब वे यज्ञशाला की ओर बढ़ने लगे। डर कर सभी देवता श्री हरि के शरण में गए। भक्तों की रक्षा का भार जिन भगवान विष्णु पर है, वे अनिच्छा से वीरभद्र से युद्ध के लिए गए।

वीरभद्र ने विष्णु भगवान को युद्ध में आता देखा तो वे उन्हें भला-बुरा सुनाने लगे। विष्णु भगवान हंसते हुए बोला कि मैं भगवान शंकर का सेवक हूं। इस यज्ञ में मैं दक्ष के बुलाने पर आया। अब वीरभद्र तुम रुद्र के तेज से उत्पन्न हुए हो। तुम्हारा उद्देश्य यज्ञ का अन्त एवं मेरा उसे बचाना है। दोनों अपना कर्म करते हैं, परिणाम जो होगा, देखा जाएगा।

वीरभद्र तथा विष्णु के बीच युद्ध आरम्भ हो गया। वह युद्ध अति घोर था जिसमें अन्त में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के चक्र को स्तम्भित कर दिया तथा धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। वीर भद्र रुद्र के आशीष से अजेय थे, यह जानकर विष्णु वहां से अर्न्तधान हो गए। ब्रह्माजी भी यज्ञ की यह दुर्दशा देखकर सत्यलोक चले आए। यज्ञ का कोई रक्षक नहीं है यह जानकर वह यज्ञ भी भयभीत होकर मृग रूप में भाग निकला। वीरभद्र ने उस भागते हुए यज्ञ को पकड़ लिया और उसका मस्तक काट दिया। फिर उन्होंने मुनियों एवं देवताओं का अंग-भंग कर दिये।

इतना अधिक मारकाट देखकर दक्ष अर्न्तवेदी में जा छुपे। उन्हें खोजकर वीरभद्र ने अपने तलवार से उनकी गर्दन काटी, पर दक्ष की गर्दन अभेद्य थी।

क्रोधित होकर वीरभद्र ने उनकी गर्दन को हाथों से तोड़ दिया एवं यज्ञ के अग्निकुण्ड में डाल दिया।

यहां पर कथा प्रतीकात्मक माना जा सकता है है। जीवन कर्म रूपी यज्ञ है जहां दक्ष का अर्थ निपुणता है। निपुणता को अभिमान घेर लेता है। ब्राह्मण वह है जिसका मन और बुद्धि ब्रह्म अन्वेषण में अनुरक्त है। वह कर्म काण्ड के लौकिक मर्यादाओं से परे है। स्वर्ग लिमिटेड सुख का प्रतीक है, वहां से पतन होता रहता है एवं शिव शाश्वत सुख है जिसने शिव से मुंह फेर लिया और उन्हें यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया, उसका भला असंभव है। समस्त कर्मों के फल देने वाले ईश्वर,शिव हैैं। वे उसे फल देते हैं जो कर्म करता है। कर्म नहीं करने वाले को ईश्वर फल देने में समर्थ नहीं हैं।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें