सुधा सिंह
कब्रिस्तान का वह कोना, जहाँ भिखारी दफ़नाये जाते हैं। पत्तों से छितरे, बारिश से बहे और आँधियों से जर्जर कब्रों के ढूहों के बीच, दो मरियल-से बर्च वृक्षों के जालीदार साये में, जिघम के फटे-पुराने कपड़े पहने और सिर पर काली शॉल डाले एक स्त्री एक कब्र के पास बैठी थी।
सफ़ेद पड़ चले बालों की एक लट उसके मुरझाये हुए गाल के ऊपर झूल रही थी, उसके महीन होंठ कसकर भिचे थे और उनके छोर उसके मुँह पर उदास रेखाएँ खींचते नीचे की ओर झुके थे, और उसकी आँखों की पलकों में भी एक ऐसा झुकाव मौजूद था जो अधिक रोने और काटे न कटने वाली लम्बी रातों में जागने से पैदा हो जाता है।
वह बिना हिले-डुले बैठी थी – उस समय, जबकि मैं कुछ दूर खड़ा उसे देख रहा था, न ही उसने उस समय कुछ हरकत की जब मैं और अधिक निकट खिसक आया। उसने केवल अपनी बड़ी-बड़ी चमकविहीन आँखों को उठाकर मेरी आँखों में देखा और फिर उन्हें नीचे गिरा लिया। उत्सुकता, परेशानी या अन्य कोई भाव, जोकि मुझे निकट पहुँचता देख उसमें पैदा हो सकता था, नाममात्र के लिए भी उसने प्रकट नहीं किया।
मैंने अभिवादन में एकाध शब्द कहा और पूछा कि यहाँ कौन सोया है।
‘मैरा बेटा,” उसने भावशून्य उदासीनता से जवाब दिया।
“बड़ा था?”
“बारह बरस का।”
“कब मरा?”
“चार साल पहले।”
उसने एक गहरी साँस ली और बाहर छिटक आयी लट को फिर बालों के नीचे खोंस लिया। दिन गरम था। सूरज बेरहमी के साथ मुर्दों के इस नगर पर आग बरसा रहा था। कब्रों पर उगी इक्की-दुक्की घास तपन और धूल से पीली पड़ गयी थी। और धूल-धूसरित रूखे-सूखे पेड़, जो सलीबों के बीच उदास भाव से खड़े थे, इस हद तक निश्चल थे मानो वे भी मुर्दा बन गये हों।
“वह कैसे मरा?” लड़के की कब्र की ओर गरदन हिलाते हुए मैंने पूछा।
“घोड़ों से कुचलकर,” उसने संक्षेप में जवाब दिया और अपना झुर्रियाँ-पड़ा हाथ फैलाकर लड़के की कब्र सहलाने लगी।
“यह दुर्घटना कैसे घटी?”
मैं जानता था कि इस तरह खोदबीन करना शालीनता के खि़लाफ़ है, लेकिन इस स्त्री की निस्संगता ने गहरे कौतुक और चिढ़ का भाव मेरे हृदय में जगा दिया था। कुछ ऐसी समझ में न आने वाली सनक ने मुझे घेरा कि मैं उसकी आँखों में आँसू देखने के लिए ललक उठा। उसकी उदासीनता में कुछ था, जो अप्राकृतिक था, और साथ ही उसमें बनावट का भी कोई चिह्न नहीं दिखायी देता था।
मेरा सवाल सुनकर उसने एक बार फिर अपनी आँखें उठाकर मेरी आँखों में देखा। और जब वह सिर से पाँव तक मुझे अपनी नज़रों से परख चुकी तो उसने एक हल्की-सी साँस ली और अटूट उदासी में डूबी आवाज़ में अपनी कहानी सुनानी शुरू की।
“घटना इस प्रकार घटी। उसका पिता गबन के अपराध में डेढ़ साल के लिए जेल में बन्द हो गया। इस काल में हमने अपनी सारी जमा पूँजी खा डाली। यूँ हमारी वह जमा पूँजी कुछ अधिक थी भी नहीं। अपने आदमी के जेल से छूटने से पहले ईंधन की जगह मैं हार्स-रेडिश के डण्ठल जलाती थी। जान-पहचान के एक माली ने ख़राब हुए हार्स-रेडिश का गाड़ीभर बोझ मेरे घर भिजवा दिया था। मैंने उसे सुखा लिया और सूखी गोबर-लीद के साथ मिलाकर उसे जलाने लगी। उससे भयानक धुआँ निकलता और खाने का जायका ख़राब हो जाता। कोलुशा स्कूल जाता था। वह बहुत ही तेज़ और किफायतशार लड़का था। जब वह स्कूल से घर लौटता तो हमेशा एकाध कुन्दा या लकड़ियाँ – जो रास्ते में पड़ी मिलतीं – उठा लाता। वसन्त के दिन थे तब। बर्फ पिघल रही थी। और कोलुशा के पास कपड़े के जूतों के सिवा पाँवों में पहनने के लिए और कुछ नहीं था। जब वह उन्हें उतारता तो उसके पाँव लाल रंग की भाँति लाल निकलते।
तभी उसके पिता को उन्होंने जेल से छोड़ा और गाड़ी में बैठाकर उसे घर लाये। जेल में उसे लकवा मार गया था। वह वहाँ पड़ा मेरी ओर देखता रहा। उसके चेहरे पर एक कुटिल-सी मुस्कान खेल रही थी। मैं भी उसकी ओर देख रही थी और मन ही मन सोच रही थी – ‘तुमने ही हमारा यह हाल किया है, और तुम्हारा यह दोज़ख़ मैं अब कहाँ से भरूँगी? एक ही काम अब मैं तुम्हारे साथ कर सकती हूँ, वह यह कि तुम्हें उठाकर किसी जोहड़ में पटक दूँ।’ लेकिन कोलुशा ने जब उसे देखा तो चीख़ उठा, उसका चेहरा धुली हुई चादर की भाँति सफ़ेद पड़ गया और उसके गालों पर से आँसू ढुरकने लगे। ‘यह इन्हें क्या हो गया है, माँ?’ उसने पूछा। ‘यह अपने दिन पूरे कर चुका’, मैंने कहा। और इसके बाद हालत बद से बदतर होती गयी। काम करते-करते मेरे हाथ टूट जाते, लेकिन पूरा सिर मारने पर भी बीस कोपेक से ज़्यादा न मिलते, सो भी तब, जब भाग्य से दिन अच्छे होते। मौत से भी बुरी हालत थी, अक्सर मन में आता कि अपने इस जीवन का अन्त कर दूँ। एक बार, जब हालत एकदम असह्य हो उठी, तो मैंने कहा – ‘मैं तो तंग आ गयी इस मनहूस जीवन से। अच्छा हो अगर मैं मर जाऊँ – या फिर तुम दोनों में से कोई एक ख़त्म हो जाये!’ – यह कोलुशा और उसके पिता की तरफ़ इशारा था। उसका पिता केवल गरदन हिलाकर रह गया, मानो कह रहा हो – ‘झिड़कती क्यों हो? ज़रा धीरज रखो, मेरे दिन वैसे ही करीब आ लगे हैं।’ लेकिन कोलुशा ने देर तक मेरी ओर देखा, इसके बाद वह मुड़ा और घर से बाहर चला गया। उसके जाते ही अपने शब्दों पर मुझे बड़ा पछतावा हुआ। लेकिन अब पछताने से क्या होता था? तीर हाथ से निकल चुका था। एक घण्टा भी न बीता होगा कि एक पुलिसमैन गाड़ी में बैठा हुआ आया। ‘क्या तुम्हीं शिशेनीना साहिबा हो?’ उसने कहा। मेरा हृदय बैठने लगा। ‘तुम्हें अस्पताल में बुलाया है’, वह बोला – ‘तुम्हारा लड़का सौदागर आनोखिन के घोड़ों से कुचल गया है।’ गाड़ी में बैठ मैं सीधे अस्पताल के लिए चल दी। ऐसा मालूम होता था जैसे गाड़ी की गद्दी पर किसी ने गर्म कोयले बिछा दिये हों। और मैं रह-रहकर अपने को कोस रही थी – ‘अभागी औरत, तूने यह क्या किया?’
“आखि़र हम अस्पताल पहुँचे। कोलुशा पलंग पर पड़ा पट्टियों का बण्डल मालूम होता था। वह मेरी ओर मुस्कुराया, और उसके गालों पर आँसू ढुरक आये…. फिर फुसफुसाकर बोला – ‘मुझे माफ़ करना, माँ। पैसा पुलिसमैन के पास है।’ ‘पैसा….कैसा पैसा? यह तुम क्या कह रहे हो?’ मैंने पूछा। ‘वही, जो लोगों ने मुझे सड़क पर दिया था और आनोखिन ने भी’, उसने कहा। ‘किसलिए?’ मैंने पूछा। ‘इसलिए’, उसने कहा और एक हल्की-सी कराह उसके मुँह से निकल गयी। उसकी आँखें फटकर ख़ूब बड़ी हो गयीं, कटोरा जितनी बड़ी। ‘कोलुशा’, मैंने कहा – ‘यह कैसे हुआ? क्या तुम घोड़ों को आता हुआ नहीं देख सके?’ और तब वह बोला, बहुत ही साफ़ और सीधे-सीधे, ‘मैंने उन्हें देखा था, माँ, लेकिन मैं जान-बूझकर रास्ते में से नहीं हटा। मैंने सोचा कि अगर मैं कुचला गया तो लोग मुझे पैसा देंगे। और उन्होंने दिया।’ ठीक यही शब्द उसने कहे। और तब मेरी आँखें खुलीं और मैं समझी कि उसने – मेरे फ़रिश्ते ने – क्या कुछ कर डाला है। लेकिन मौका चूक गया था। अगली सुबह वह मर गया। उसका मस्तिष्क अन्त तक साफ़ था और वह बराबर कहता रहा – ‘दद्दा के लिए यह ख़रीदना, वह ख़रीदना और अपने लिए भी कुछ ले लेना।’ मानो धन का अम्बार लगा हो। वस्तुतः वे कुल सैंतालीस रूबल थे। मैं सौदागर आनोखिन के पास पहुँची, लेकिन उसने मुझे केवल पाँच रूबल दिये, सो भी भुनभुनाते हुए। कहने लगा – ‘लड़का ख़ुद जान-बूझकर घोड़ों के नीचे आ गया। पूरा बाज़ार इसका साक्षी है। सो तुम क्यों रोज़ आ-आकर मेरी जान खाती हो? मैं कुछ नहीं दूँगा।’ मैं फिर कभी उसके पास नहीं गयी। इस प्रकार वह घटना घटी, समझे युवक!”
उसने बोलना बन्द कर दिया और पहले की भाँति अब फिर सर्द तथा निस्संग हो गयी।
कब्रिस्तान शान्त और वीरान था। सलीब, मरियल-से पेड़, मिट्टी के ढूह और कब्र के पास इस शोकपूर्ण मुद्रा में बैठी यह मनोविकारशून्य स्त्री – इन सब चीज़ों ने मुझे मृत्यु और मानवीय दुख के बारे में सोचने के लिए बाध्य कर दिया।
लेकिन आकाश में बादलों का एक धब्बा तक नहीं था और वह धरती पर झुलसा देने वाली आग बरसा रहा था।
मैंने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उन्हें इस स्त्री की ओर बढ़ा दिया जो, दुर्भाग्य की मारी, अभी भी जी रही थी।
उसने सिर हिलाया और विचित्र धीमेपन के साथ बोली –
“कष्ट न करो, युवक। आज के लिए मेरे पास काफ़ी है। आगे के लिए भी मुझे अधिक नहीं चाहिए। मैं एकदम अकेली हूँ। इस दुनिया में एकदम अकेली!”
उसने एक गहरी साँस ली और अपने पतले होंठ एक बार फिर उसी शोक से बल-खाई रेखा में भींच लिये।