पुष्पा गुप्ता
पूँजीवादी दुनिया एक बार फिर वैश्विक मन्दी के मुहाने पर खड़ी है। दिन-ब-दिन यह संकट गहरा और व्यापक होता जा रहा है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया की सभी छोटी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ तेज़ी से इसकी चपेट में आ रही हैं। बैंक ऑफ इंग्लैण्ड ने चेताया है कि यह मन्दी ब्रिटेन में 100 वर्षों में सबसे लम्बी होने वाली है।
बुर्जुआ अर्थशास्त्री अपनी वर्गीय पक्षधरता के मुताबिक मन्दी के कारणों की पड़ताल पूँजीवादी उत्पादन के क्षेत्र में करने की जगह भू-राजनीति, शेयर बाज़ार, कर्ज़ों में वृद्धि, पर्यावरणीय बदलावों आदि में कर रहे हैं। बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की एक अच्छी-ख़ासी तादाद मौजूदा संकट की वजह रूस-यूक्रेन युद्ध को बता रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि युद्ध अपने आप में पूँजीवादी आर्थिक संकट का कारण नहीं होता है बल्कि ज़्यादातर मामलों में संकट की अभिव्यक्ति होता है।
यूक्रेन की धरती पर चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी दंगल, सीरिया समेत मध्यपूर्व में चल रहे छोटे-बड़े युद्ध और यूरोप से लेकर एशिया के तमाम देशों में मजबूत होती दक्षिणपन्थी ताक़तें, निरंकुश फ़ासीवादी ताक़तों का सत्ता पर क़ाबिज़ होना पूँजीवादी संकट की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। दरअसल मन्दी मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक गति से पैदा होने वाली एक लाइलाज बीमारी है।
पूँजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्धा से पैदा होने वाली हर मन्दी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए भयंकर तबाही का कारण बनती है। मन्दी से होने वाले नुकसान का हर्जाना पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग से छँटनी, तालाबन्दी, आसमान छूती महँगाई, भयंकर बेकारी और भुख़मरी आदि के रूप में वसूलता है। यह सिलसिला एक बार फिर बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका है। अल्फ़ाबेट, एप्पल, अमेज़न, मेटा, स्विगी, ज़ोमैटो, बायजूस, अनएकेडमी, ब्लिंकिट जैसी बड़ी कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर छँटनी कर रही हैं। कल तक जिसके पास रोज़गार था वह आज सड़क पर आ चुका है और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।
मन्दी की सुगबुगाहट के बीच पिछले साल जून–जुलाई से ही छँटनी की प्रक्रिया जारी है। दुनियाभर में केवल बड़ी टेक्नोलॉजी कम्पनियों ने ही अबतक दो लाख से ज़्यादा लोगों की छुट्टी कर दी है। नवम्बर 2022 के बाद से इसमें अभूतपूर्व रूप से वृद्धि हुईं है। लागत को कम करके मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के मकसद से अब बहुत-सी कम्पनियाँ अपने कार्यालयों की संख्या कम कर रही हैं।
इस प्रक्रिया में सीधे कम्पनी से ना जुड़ी लेकिन इसपर अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर एक बड़ी आबादी भी उजड़ रही है। ट्विटर अपने कर्मचारियों की संख्या आधी कर चुका है और आने वाले दिनों में इस संख्या में गिरावट के ही संकेत हैं। छँटनी कितने बड़े पैमाने पर हो रही है इसे नीचे दी गयी तालिका से समझा जा सकता है।
*कम्पनी – छँटनी फ़ीसदी में :*
ट्विटर – 50
क्रैकेन – 30
कैमियो – 25
रोबिनहुड – 23
इंटेल – 20
स्नैपचैट – 20
क्वाइनबेस – 18
ओपेनडोर – 18
मेटा – 15
स्ट्राइप – 14
शॉपीफ़ाई – 10
भारत में काम कर रहे ट्विटर के 80 फ़ीसदी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। हाल ही में अमेज़न ने अपने 18000 और एचपी ने 6000 से ज़्यादा कर्मचारियों को निकालने की बात कही है। अमेज़न के नोएडा, गुड़गाँव स्थित कार्यालयों में छँटनी की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। जुलाई 2022 से अब तक माइक्रोसॉफ़्ट तीन बार और नेटफ़्लिक्स दो बार छँटनी कर चुका है।
हार्डड्राइव निर्माता सीगेट 3000 से ज़्यादा लोगों की छँटनी कर चुका है और आने वाले दिनों में इससे भी बड़े पैमाने पर छँटनी की बात कर रहा है। आईबीएम 3900 कर्मचारियों को बाहर कर चुका है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बेरोज़गार हुए लोगों में से 10 फ़ीसदी लोगों को भी दुबारा काम नहीं मिल पा रहा है। इस बार कम्पनियाँ कर्मचारियों को यह बताने की ज़हमत भी नहीं उठा रही हैं कि उन्हें बाहर कर दिया गया है। एक मेल भेजकर कर्मचारियों को कम्पनी सिस्टम की पहुँच से दूर कर दिया जा रहा है।
ये केवल चन्द उदाहरण हैं, वास्तविक हालत इससे भी दयनीय है और आने वाले दिनों में यह संकट और गम्भीर होने वाला है। डिलिवरी बॉय, विज्ञापन के क्षेत्र में लगे, मरम्मत करने वाले, लोडिंग-अनलोडिंग में लगे मज़दूरों की एक बहुत बड़ी संख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष आदि रूप से बिना किसी क़रार के इन कम्पनियों से जुड़ी होती है। जिनकी संख्या क़रारशुदा कामगारों की तुलना में कई गुना होती है लेकिन आँकड़ों के इस खेल में यह आबादी गुम हो जाती है। इस आबादी के पास ना कोई बचत होती है और ना किसी प्रकार की कोई सामाजिक सुरक्षा।
पूँजीपति वर्ग के गुनाहों की क़ीमत यह आबादी भयंकर ग़रीबी, भुखमरी और असमय मृत्यु के रूप में चुकाती है।
*गहराती वैश्विक मन्दी और भारत की स्थिति :*
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शशिकान्त दास ने पिछले दिनों लफ़्फ़ाज़ी करते हुए कहा कि इस वैश्विक संकट का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत कम होगा। शशिकान्त दास यह बताना भूल गये कि भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही रसातल में पहुँच चुकी है। क़रीब 34 करोड़ युवा बेरोज़गारी में धक्के खाने को मजबूर हैं। वैश्विक भूख सूचकांक गवर्नर महोदय की लफ़्फ़ाज़ी को बेपर्द करने के लिए काफ़ी है। सच्चाई यह है कि कोविड के बाद अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था में छोटे-मोटे उभार तो ज़रूर दिखे हैं लेकिन ऐसा कोई दौर देखने को नहीं मिला है जो कोविड के दौरान बेरोज़गार हुए लोगों को खपा सके।
सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत का जॉब मार्केट कोविड के पहले के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाया है, और मन्दी ने भी दस्तक दे दी है।
सीएमआईई के मुताबिक कोविड के बाद देश में कुल रोज़गारशुदा लोगों की संख्या पहले की तुलना में 1.4 करोड़ कम हो गयी है। जनवरी 2020 की तुलना में अक्टूबर ’22 में रोज़गारशुदा महिलाओं की संख्या में 96 लाख और पुरुषों की संख्या में 45 लाख की कमी हुई है। 15-39 वर्ष की आयु वर्ग के कोविड में बेरोज़गार हुए पाँच में से एक नौजवान को अब तक रोज़गार नहीं मिला है। इस समयावधि में इसी आयु वर्ग के नौजवानों में आत्महत्या की दर में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। पहले से जर्जर हो चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्विक स्तर पर हो रही छँटनी-तालाबन्दी का असर भी अब दिखने लगा है।
बायजूस से 2500, ब्लिंकिट से 1600, अनएकेडमी से 1000 कर्मचारियों को निकाला जा चुका है। ई-कामर्स कम्पनी कार्स 24 ने अपने 6.6 फ़ीसदी कर्मचारियों की छँटनी की है। इंजीनियरिंग कम्पनी वेदान्तु ने बीते एक महीने में 2 बार छँटनी की प्रक्रिया चलाकर अपने कार्यबल को 80 फ़ीसदी पर ला दिया है।
मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद से ही मेक इन इण्डिया और स्टार्टअप इण्डिया आदि का जो गुब्बारा फुलाया था, उसकी भी हवा निकल गयी है। ओयो, अनएकेडमी, मीशो, फेर्लेंको, ट्रेल आदि स्टार्टअप्स अब नौकरी देने की जगह लोगों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं वहीं लीडो लर्निंग, उदय, सुपरलर्न, क्वाइनवन जैसे कई सारे स्टार्टअप्स पर ताला लटक चुका है। इतिहासबोध और तर्कणा से रिक्त भारतीय मध्यवर्ग अक्सर बेरोज़गार युवकों को ज्ञान देता है कि नौकरी माँगने वाला मत बनो, दूसरों को नौकरी देने वाला बनो। स्टार्टअप (किसी ख़ास माँग के लिए छोटे स्तर से शुरू की गयी नयी कम्पनी) का भी इधर काफ़ी ढोल पीटा जा रहा है।
लेकिन पूँजीवादी तर्कों से लैस यह आबादी इस बात से अनभिज्ञ है कि पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा में छोटी पूँजी की नियति डूबना ही है। इसे आँकड़ों से भी समझा जा सकता है। भारत में शुरू होने वाले 95 फ़ीसदी स्टार्टअप्स एक साल भी नहीं टिक पाते हैं। जो बच जाते हैं उनमें से 85 फ़ीसदी की औसत मासिक आय 10,000 से कम होती है। ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि ये किसी भी प्रकार का रोज़गार मुहैया करा पाने में असमर्थ हैं।
छँटनी-तालाबन्दी में निकाले गये मजदूरों/कर्मचारियों के जो आँकड़े हम तक पहुँचते हैं वो अनुबन्ध पर काम करने वाले कार्यबल का हिस्सा होते हैं। बिना अनुबन्ध के काम करने वाली देश की बड़ी आबादी के ऊपर आर्थिक तेज़ी के दौर में भी छँटनी की तलवार लटकी रहती है। पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे ऑफ़ इण्डिया, 2021 के मुताबिक देश में लगभग दस करोड़ दिहाड़ी मज़दूर और क़रीब पाँच करोड़ वेतनभोगी मज़दूर बिना किसी लिखित अनुबन्ध के काम कर रहे हैं।
यानी कुल कार्यबल का करीब 30 फ़ीसदी हिस्सा बिना किसी कार्य अनुबन्ध के काम कर रहा है। (वैसे दिहाड़ी मज़दूरों के सम्बन्ध में यह संख्या और भी ज़्यादा हो सकती है।) नियमित मज़दूरों को रखने की जगह आउटसोर्सिंग के ज़रिए काम कराया जा रहा है। 2004 के बाद से आउटसोर्स मज़दूरों की संख्या में 40 फ़ीसदी से ज़्यादा की वृद्धि हुई है।
हर साल 2 करोड़ नौकरी देने का सपना बेचकर सत्ता में आयी मोदी सरकार के दौर में बेरोज़गारी का संकट और गहरा हुआ है।
सार्वजनिक क्षेत्र में सेवानिवृत्ति की वजह से ख़ाली होने वाले पदों को भरने की जगह समाप्त किया जा रहा है। भारतीय रेलवे में वित्तीय वर्ष 1990-91 में 16.52 लाख नियमित कर्मचारी कार्यरत थे जिनकी संख्या वित्तीय वर्ष 2021-22 में घटकर 12.43 लाख रह गयी है। नियमित नौकरियों की जगह बेहद कम वेतन पर बिना किसी सुविधा और सामाजिक सुरक्षा जैसे स्वास्थ्य, पेंशन या अवकाश आदि के लोगों से संविदा पर काम कराया जा रहा है। सरकारी विभागों में भी आठ घण्टे काम का तय फ़ार्मूला नदारद हो चुका है।
पिछले एक दशक में सरकारी संस्थानों में भी नियमित नौकरियों की जगह आउटसोर्सिंग के चलन में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक दशक के भीतर सरकारी विभागों में आउटसोर्स मज़दूरों की संख्या में लगभग 80 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ है। 2011-2021 के बीच में सार्वजनिक उपक्रमों में कुल आउटसोर्स किये गये कर्मचारियों की संख्या 268815 से बढ़कर 4,81,395 हो गयी है।
हालत का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश की कुल मज़दूर आबादी का लगभग 94 फ़ीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में लगा हुआ है जिन्हें नियोक्ता द्वारा कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली हुई है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों में से 94% से अधिक की मासिक आय 10,000 रुपये या उससे भी कम है। भयंकर बेरोज़गारी और भविष्य की अनिश्चितता का दंश झेल रही देश की बड़ी आबादी सब कुछ सहने के लिए अभिशप्त है।
असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का 52.2 फ़ीसदी कृषि क्षेत्र में, 9.93 फ़ीसदी घरेलू कामों में और 9.13 फ़ीसदी निर्माण क्षेत्र में लगा हुआ है। ऊपर के आँकड़ों को देखें तो भारत की संशोधनवादी पार्टियों और नरोदवादी पार्टियों का वैचारिक दिवालियापन और वर्ग सहयोगवादी कार्यक्रम की कलई भी खुल जाती है। ये पार्टियाँ मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक पहलक़दमी को ख़त्म कर खेतिहर पूँजीपतियों की पालकी का कहार बनाने में लगी हुई हैं।
विभिन्न सरकारी और ग़ैर-सरकारी रिपोर्टों से लिये गये उपरोक्त तथ्य इस बात की गवाही दे रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही गर्त में थी, अब पूँजीवाद का यह संकट इस स्थिति को और गम्भीर बना रहा है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में दुनियाभर के बाज़ार एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। उत्पादन प्रक्रिया यानी पूँजी और श्रम भूमण्डलीकृत असेम्बली लाइन में जुड़े हुए हैं।
इसलिए ग्लोबल असेंबली लाइन में किसी भी सम्भावित हलचल से पूरी की पूरी असेम्बली लाइन प्रभावित होती है। 1973 का तेल संकट, 1990 का संकट और 2008 का सबप्राइम संकट इस बात को सत्यापित करता है। इसलिए भारतीय मीडिया और पूँजीपति वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले भाड़े के अर्थशास्त्री कोरी बकवास कर रहे हैं कि इस वैश्विक संकट का असर भारतीय बाज़ार पर या तो नहीं होगा या बहुत कम होगा।
अभी कुछ दिनों पहले तक पूँजीवादी हलकों में इस बात की खूब चीख-चिल्लाहट थी कि आज का युग टेक्नोलाजी का युग है, बौद्धिक श्रम का युग है।
मन्दी बीते दौर की बात है, पूँजीवाद का यह युग पूँजीवादी संकट से परे है। अब काम करने वाला श्रमिक मज़दूर नहीं है बल्कि पार्टनर है। आर्थिक संकट की आहट के साथ ही इस बकवास की भी कलई खुल गयी। हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि पूँजीवाद केवल पूँजीवाद होता है, नया और पुराना पूँजीवाद बकवास है। पूँजीवादी व्यवस्था उजरती श्रम के शोषण पर टिकी मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था होती है। पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा पूँजीपति वर्ग को मजबूर करती है कि वह नयी तकनोलाजी, नयी मशीनों को लगाकर श्रम की उत्पादकता को बढ़ाये और उत्पादन की लागत को कम से कम करे।
लेकिन इस प्रक्रिया में नया मूल्य पैदा करने वाले कारक श्रमशक्ति पर सापेक्षिक ख़र्च कम होता जाता है। चूँकि नये मूल्य का एक हिस्सा मुनाफ़े के रूप में पूँजीपति वर्ग के पास जाता है और जैसे-जैसे श्रमशक्ति पर सापेक्षिक ख़र्च कम होता है और मशीनों इत्यादि पर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसी प्रक्रिया में मुनाफ़े की दर भी नीचे गिरती है। पूँजीवाद का इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि इस व्यवस्था में मुनाफ़े की दर में गिरावट की एक दीर्घकालिक प्रवृत्ति होती है। मुनाफ़े की दर में गिरावट की वजह से पूँजीपति उत्पादक निवेश कम करता है और पूँजी के बड़े हिस्से को शेयर मार्केट और अन्य अनुत्पादक क्षेत्रों में निवेशित करता है। उत्पादक निवेश में कमी फिर ‘औद्योगिक रिज़र्व सेना’ यानी बेरोज़गारों की फ़ौज के आकार को बढ़ाती है।
बढ़ती बेरोज़गारी पूँजीपति वर्ग को औसत मज़दूरी में कटौती करने का मौक़ा देती है जिसकी वजह से मज़दूर वर्ग की ख़रीदने की क्षमता कम हो जाती है। एक तरफ बाज़ार माल से पटे रहते हैं और दूसरी ओर भूखे और नंगे लोग चीज़ों के अभाव में दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर होते हैं। हर सेक्टर में छँटनी, तालाबन्दी, कमरतोड़ महँगाई, बेरोज़गारी और भुख़मरी के कारण मज़दूर वर्ग और जनता के व्यापक हिस्से को यह स्थिति गर्त में धकेल देती है। मन्दी से निजात पाने के लिए पूँजीपति वर्ग दुनिया को युद्ध में धकेलकर बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों का विनाश करता है, पूँजीपति वर्ग पूँजीवादी सरकारों पर सभी श्रम क़ानूनों, जनवादी स्पेस को ख़त्म करने का दबाव बनाता है।
इसके लिए पूँजीपति वर्ग अक्सर फ़ासीवादी शक्तियों को चुनता है। फ़ासीवादी सरकारें औरक पार्टियाँ सबसे निरंकुश तरीके से जनता के प्रतिरोध को कुचलने और मेहनतकशों को आपस में बाँटने-बहकाने की क्षमता रखती हैं। यही काम आज भाजपा अपने देश में कर रही है। उत्पादक शक्तियों के बड़े पैमाने पर विनाश के बाद पूँजीवाद में पुनः सापेक्षिक तेज़ी का दौर आता है लेकिन जल्द ही यह दौर भी गुज़र जाता है और पूँजीवादी व्यवस्था पहले से भी व्यापक और गहरे संकट के भँवर जाल में फँस जाती है।
इस प्रकार पूँजीवाद मज़दूर वर्ग और आम आबादी को केवल भविष्य की अनिश्चितता, बेकारी, भुखमरी आदि ही दे सकता है।