नई दिल्ली: पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावी नतीजे आ चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इसमें शानदार प्रदर्शन किया है। त्रिपुरा में उसने दोबारा सत्ता में वापसी की है। नगालैंड में भी वह आसानी से सरकार बना लेगी। मेघालय में सरकार का हिस्सा बनने के लिए एक बार फिर बीजेपी एनपीपी से हाथ मिला सकती है। त्रिपुरा में बीजेपी की जीत काफी अहम है। राज्य में भगवा पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के लिए कांग्रेस और लेफ्ट ने हाथ मिला लिया था। 2016 से पहले बीजेपी एक भी पूर्वोत्तर राज्य में सत्ता में नहीं थी। इसके उलट आज की तारीख में गठबंधन या अपने बूते वह क्षेत्र के सात राज्यों में छा गई है। इनमें अरुणाचल प्रदेश, असम, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम और मेघालय शामिल हैं। पूर्वोत्तर कभी कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था। लेकिन, कुछ सालों में तस्वीर ही बदल गई है। आखिर ये करिश्मा कैसे हुआ है? कभी बीजेपी पर हिंदी पट्टी (काउ बेल्ट) की पार्टी होने का तमगा जड़ा हुआ था। उसे बनियों की पार्टी कहा जाता था। बीजेपी हेडक्वार्टर में गुरुवार को समर्थकों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसका जिक्र किया। बीजेपी ने गैर-हिंदी भाषी पूर्वोत्तर राज्यों में क्या चमत्कार कर दिया है? हिंदुत्व ब्रांड की पॉलिटिक्स करने वाली बीजेपी ने पूर्वोत्तर में कैसे रास्ता बना लिया है? आइए, यहां इन बातों को समझने की कोशिश करते हैं।
बीजेपी ने ‘मिशन पूर्वोत्तर’ के तहत त्रिपुरा में सत्ता बरकरार रखी है। सत्ता विरोधी लहर और टिपरा मोठा के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद वह ऐसा करने में कामयाब रही। इसने पार्टी का मनोबल बढ़ाने का काम किया है। नगालैंड में नेफ्यू रियो की अगुआई वाली नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (NDPP) के साथ मिलकर भी उसने कामयाबी हासिल की है। जहां तक मेघालय का सवाल है तो बीजेपी फिर से पार्टनर के रूप में सत्तारूढ़ सरकार का हिस्सा बनने को तैयार है। सीएम कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP) 60 सदस्यीय विधानसभा में 26 सीट जीतकर भी बहुमत से दूर है।
पूर्वोत्तर में बीजेपी के मजबूत होने के कई कारण हैं। इसके लिए सबसे बड़ा श्रेय पार्टी के रणनीतिकारों को जाता है। इस क्षेत्र में रास्ता बनाने के लिए उन्होंने पार्टीलाइन से इतर काम किया। इसके तहत क्षेत्रीय मुद्दों और नेताओं को वरीयता दी गई। यह सबकुछ बड़ी सूझबूझ और चतुराई के साथ किया गया। नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (NEDA) का गठन इसका उदाहरण है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही क्षेत्र में पैर फैलाने के लिए बीजेपी ने स्ट्रैटेजी बनानी शुरू कर दी थी।
मजबूत रणनीति के साथ लिया काम
बीजेपी ने इसके लिए एक सफल कॉरपोरेशन या कंपनी की तरह काम किया। पार्टी ने विलय और अधिग्रहण को तरजीह दी। इसके तहत दूसरी पार्टी के प्रतिभाशाली लोगों को तलाशा गया। प्रतिस्पर्धा के मौके देखे गए। असम के सीएम हिमंत बिस्व सरमा इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं। सरमा कभी कट्टर कांग्रेसी थे। एक लंबा अरसा उन्होंने इस पार्टी के साथ बिताया। सरमा की बीजेपी में एंट्री 2015 में हुई थी। एक साल बाद उन्हें NEDA का संयोजक बना दिया गया। इसके अन्य सदस्यों में सर्बानंद सोनोवाल, पवन कुमार चामलिंग, कलिखो पुल और टीआर जीलियांग थे। NEDA का मकसद पूर्वोत्तर को ‘कांग्रेस मुक्त’ करना था। बीजेपी ने पूर्वोत्तर में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए करीब 10 राजनीतिक दलों के साथ हाथ मिलाया।
हिमंत बिस्व सरमा साबित हुए तुरुप का इक्का
पूर्वोत्तर की राजनीति में बीजेपी को बढ़ाने का श्रेय सरमा को काफी हद तक जाता है। उनकी अगुआई में NEDA ने नई ऊंचाइयां छुईं। इसके जरिये अरुणाचल प्रदेश के 43 कांग्रेसी विधायकों को तोड़ लिया गया। वे सभी पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (PPA) का हिस्सा बन गए। पीपीए एनडीए की सहयोगी है। इसने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया। इसके कारण बीजेपी को 2016 में अरुणाचल में एनडीए सरकार बनाने में कामयाबी मिली। इसके एक साल बाद बीजेपी ने एन बिरेन सिंह के नेतृत्व में मणिपुर में सरकार बनाई। इसके लिए उसने नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP) और नगा पीपुल्स फ्रंट (NPF) के साथ गठबंधन किया। फिर 2018 में बीजेपी एनडीपीपी के साथ मिलकर नगालैंड में सत्ता में आई। उसी साल बीजेपी ने अपने सहयोगी इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ त्रिपुरा फतेह किया। यह जीत बेहद अहम थी। इसने 1993 के बाद से त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) की सत्ता खत्म की थी। मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) के साथ बीजेपी ने 2018 में मिजोरम में भी अपना पताका फहरा दिया। इसके साथ ही आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस ने पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों में सत्ता गंवा दी थी। पिछले साल बीजेपी ने मणिपुर में दोबारा वापसी की। इसके करीब एक साल पहले असम में भी उसने दूसरी बार राज्य में सरकार बनाई थी।
बीजेपी का स्थानीय दलों के साथ गठबंधन करना उसके लिए लगातार फायदे का सौदा साबित हुआ। असम में पहले बीजेपी ने एजीपी और बीपीएफ के साथ गठबंधन किया। फिर दूसरी बार उसने एजीपी और यूपीपीएल के साथ गठजोड़ किया। मणिपुर में उसने एनपीपी, एनपीएफ और एलजेपी के साथ अलायंस बनाया। मेघालय में उसने यूडीएफ, पीडीएफ और एचएसडीपी संग गठबंधन किया। नगालैंड में उसकी पार्टनरिशप एनडीपीपी के साथ हो गई।
केंद्र से पूर्वोत्तर के लिए फंडिंंग बढ़ी
केंद्र में बीजेपी की सरकार होने से पूर्वोत्तर के लिए फंडिंग के रास्ते खुले। क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र ने तिजोरियां खोल दीं। 2014-15 से लेकर अब तक केंद्र की फंडिंग में लगातार इजाफा हुआ है। इसके कारण पूर्वोत्तर में बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाया गया। लोगों को ये बदलाव साफ नजर आए। देश के अन्य हिस्सों के साथ पूर्वोत्तर राज्यों की कनेक्टिविटी में इजाफा हो गया।
बीजेपी को कभी बनियों की पार्टी बताया जाता था। उसके बारे में कहा जाता था कि उसकी पहुंच शहरों तक है। गांवों में पार्टी का कोई आधार नहीं है। वह काउ बेल्ट यानी हिंदी पट्टी की पार्टी है। पूर्वोत्तर के राज्यों में शानदार नतीजों के बाद गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समर्थकों को संबोधित करते हुए भी इसका जिक्र किया। उन्होंने यह भी कहा कि समय गुजरने के साथ बीजेपी ने इन मिथकों को तोड़ दिया है। उसने यह भी दिखा दिया है कि आदिवासी इलाकों में भी उसकी पैठ है। आदिवासी ही नहीं, दलित और दूसरी पिछड़ी जाति के लोग भी पार्टी से जुड़ गए हैं।
बीजेपी के बारे में एक और बात कही जाती है। वह यह है कि पार्टी ‘हिंंदू’ और ‘हिंदुत्व’ के नाम पर जीतती है। हालांकि, पूर्वोत्तर में बीजेपी के राजनीतिक गणित ने जाति, धर्म, भाषा सबको पीछे छोड़ा है। असम इसका उदाहरण है। कश्मीर के बाद इस प्रांत में आबादी में मुस्लिमों का अनुपात सबसे ज्यादा है। ऐसे ही नगालैंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल में ईसाई बड़ी संख्या में हैं। लेकिन, इसका कोई फर्क नहीं पड़ा है।