केसी त्यागी
जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के साथ ही उसके विघटन की भी गाथा लिखी जाने लगी थी। अवसर था पार्टी के युवा संगठन के गठन का। जनता पार्टी के सभी घटकों के युवा संगठनों की एक बैठक मई 1977 में सारनाथ (उत्तर प्रदेश) में बुलाई गई। इसमें लोकदल, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस (सं.), भारतीय जनसंघ और बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व वाले CFD के कार्यकर्ता भी मौजूद थे। पार्टी के वरिष्ठ नेता सुरेंद्र मोहन वहां पर्यवेक्षक के रूप में आए थे। सभी अपने पूर्ववर्ती संगठनों के विघटन, नए संगठन के स्वरूप और नाम को लेकर सहमत थे। लेकिन राम बहादुर राय और प्रमोद महाजन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने की बात कहकर सभी को अचंभित कर दिया। उनका कहना था कि वे ‘युवा जनता’ में काम करने को तैयार हैं। लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का इसमें विलय असंभव है क्योंकि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का वर्ग संगठन है और इस विषय में निर्णय लेने का अधिकार RSS को है। ऐसा कहकर दोनों जनता पार्टी की अधिकृत बैठक से वॉकआउट कर गए।
सारनाथ में युवा नेताओं में सर्वाधिक उपस्थिति युवजन सभा से जुड़े लोगों की थी। समूचे उत्तर भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों के छात्र संघों पर इनका वर्चस्व था। समस्या नेतृत्व के चयन को लेकर थी। शरद यादव जबलपुर लोकसभा से दोबारा जीतकर सबसे लोकप्रिय और पसंदीदा नेता बन चुके थे, लेकिन राजनारायण के नेतृत्व वाले समाजवादी जमावड़े का संख्या बल उनके साथियों से ज्यादा था। काफी रस्साकशी के बाद आखिरकार कांग्रेस संगठन के नेता वी. मायाकृष्णन को युवा जनता का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया।
राजनारायण की ललकार
आपातकाल की तीसरी बरसी पर शिमला में एक शिविर आयोजित करने की योजना बनी। इसका प्रभारी मुझे बनाया गया। 23, 24, 25 जून (1978) की तारीखें चुनी गईं। 23 और 24 जून को संगठन के विस्तार और वैचारिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श चला। 25 जून को आपातकाल विरोधी दिवस मनाने का निर्णय किया गया। इस अवसर पर समाजवादी नेता राजनारायण को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया। सभास्थल के लिए शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान को चुना गया। राम मंदिर में आयोजित शिविर स्थल की दूरी रिज मैदान से लगभग 1 किलोमीटर रही होगी। हजारों की संख्या में युवजन आपातकाल विरोधी नारे लगाते हुए सभास्थल की ओर बढ़ रहे थे। अचानक SP शिमला ने रास्ता रोककर बताया कि वहां धारा 144 लागू है, लिहाजा वहां सभा संबंधी कोई आयोजन संभव नहीं है। हिमाचल युवा जनता अध्यक्ष राजेंद्र हांडा संबंधित अधिकारियों को पहले ही सभा के आयोजन की सूचना दे चुके थे। इससे पहले उसी जगह मोरारजी भाई और अटल जी की सभा का आयोजन हो चुका था। सभी साथियों ने संयुक्त रूप से फैसला किया कि वे सभास्थल पर स्थित गांधी मूर्ति के पास इकट्ठा होकर सभा करेंगे। राजनारायण जी ने अपना संबोधन इसी संदर्भ से शुरू किया कि आज के दिन ही आपात स्थिति की घोषणा की गई, जिसमें सभी लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त हो गए, जिसमें सभा करने की आजादी भी शामिल है। अफसोस है कि मुख्यमंत्री शांता कुमार खुद भी जेल में बंद रहे हैं। फिर उन्होंने ऐसा निर्णय क्यों किया?
इस सभा के आयोजन को जनता पार्टी की विभाजन रेखा मान लिया जाएगा, ऐसा जानकर हमें आश्चर्य हुआ। दिल्ली लौटते ही चौधरी चरण सिंह और राजनारायण को मंत्रिपरिषद से हटाने के समाचार मिले। रिज मैदान में संपन्न हुई युवा जनता रैली को इसका आधार माना गया। वी. मायाकृष्णन की अध्यक्षता में पदाधिकारियों की बैठक हुई, जिसमें मेरे अलावा राज कुमार जैन, मार्कंडेय सिंह, जेडके फैजान, कुलवंत सिंह मौजूद थे। तय हुआ कि प्रधानमंत्री को रैली से संबंधित सभी घटनाक्रम से अवगत कराया जाए। वी. मायाकृष्णन (अध्यक्ष) मोरारजी भाई के विश्वस्त साथियों में गिने जाते थे। इससे पहले राजनारायण सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष प्रस्तुत कर चुके थे कि जिला प्रशासन के किसी अधिकारी ने उन्हें धारा 144 लगने और सभा की अनुमति न दिए जाने के बारे में नहीं बताया। प्रशासन का रुख कितना भेदभावपूर्ण था, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि केंद्रीय मंत्री होते हुए भी राजनारायण को राजकीय अतिथि नहीं बनाया गया था जबकि एक सप्ताह पहले ही सोलन में हुए जनता युवा मोर्चा के सम्मेलन में डॉ. स्वामी का स्वागत राजकीय सम्मान के साथ किया गया था।
पीएम मोरारजी का रवैया
29 जून को प्रधानमंत्री कार्यालय में दोपहर डेढ़ बजे का समय हमारी मीटिंग के लिए तय किया गया। स्थान ग्रहण करने के तुरंत बाद ही प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अपना पक्ष रखना प्रारंभ कर दिया कि जब आप लोगों को सभा करने की अनुमति नहीं थी तो क्यों सभा की गई? आप लोगों ने भयंकर गलती की और अपनी ही सरकार को कटघरे में रखने का प्रयास किया। मीटिंग में साथियों ने अपना पक्ष रखने की कोशिश की तो प्रधानमंत्री ने कड़े शब्दों में कहा कि वह हम लोगों को अच्छी तरह जानते हैं। जब मोरारजी भाई ने कहा कि वह जानते हैं कि सारी उम्र डॉ. लोहिया किस प्रकार आरोपों की राजनीति करते रहे तो हमारे साथियों ने कड़ी आपत्ति की। विद्रोही तेवर के लिए प्रसिद्ध युवजन प्रधानमंत्री को खरी खोटी सुनाने लगे, ‘लोहिया के अनुयायी हैं इसलिए अन्याय सहना हमारे स्वभाव में नहीं है।’ प्रधानमंत्री बहस का तापमान भांप गए और उन्होंने सभी को बाहर निकलने का आदेश दे दिया। फिर सब यह बोलते हुए निकले कि ‘जिस कुर्सी पर आप आसीन हैं, वह हमारे संघर्ष और त्याग का नतीजा है, लिहाजा आपके आचरण की हम निंदा करते हैं।’ इस प्रकरण से यह साबित हो गया कि उस समय के युवा नेता अपने नेतृत्व से भी भिड़ने की हिम्मत रखते थे। आज तो अपनी पार्टी के नेताओं के आवभगत में ही सारी तरुणाई खप जाती है।
(लेखक पूर्व सांसद हैं)