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भूकम्प विषयक वैदिक’ज्योतिष-दर्शन का विज्ञान

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 ज्योतिषाचार्य पवन कुमार

     वैदिक ज्योतिष के प्राचीन संहिताकारों ने अपने ग्रन्थों में ‘मेदिनी ज्योतिष’ से सम्बन्धित विषयों पर अनेकानेक सूत्र एवं सिद्धान्तों का सारगर्भित विवेचन किया है।

     इन ऋषि- मनीषियों में गर्ग, नारद एवं वराहमिहिर ने अपनी संहिताओं क्रमशः गर्गसंहिता, नारदीय संहिता एवं बृहत्संहिता में भूकम्प के परिप्रेक्ष्य में जिन महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तृत विश्लेषण किया है, उन्हें हम यहाँ साररूप में देखेंगे.

आचार्य गर्गकी संहितामें वर्णित तिथियोंका भूकम्पसे निश्चित सम्बन्ध वैज्ञानिक शोधमें सटीक एवं महत्त्वपूर्ण पूर्वसूचकके रूपमें प्रतिस्थापित हुआ है।

      प्राकृतिक आपदाओंमें सबसे भयावह एवं व्यापक क्षतिकारक है भूकम्पकी त्रासदी । भारतवर्षमें सम्भावित भूकम्पक्षेत्रके रूपमें एक बड़ा भाग पूर्वनिश्चित किया गया है।

      भूकम्प से सम्बन्धित वैदिक ज्योतिषीय सूत्र एवं सिद्धान्त वर्तमान वैज्ञानिक शोधों में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हुए हैं।

      *वैज्ञानिक शोध संबंधी मद्रास विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्रियों का निष्कर्ष :*

     १ – जब पृथ्वी, सूर्य एवं चन्द्रमा भचक्र-परिक्रमाकी अपनी स्वाभाविक स्थितियोंमें ०-१८०° का कोण निर्माण करते हैं तो पृथ्वीपर गुरुत्वाकर्षणका दबाव क्रमशः बढ़ने लगता है।

     २- फलस्वरूप पृथ्वी अपनी स्वाभाविक परिभ्रमण गतिमें परिवर्तन करनेको बाध्य हो जाती है, जिसके कारण टेकटानिक पतका सरकना सम्भव होता है। 

    ३- शोधमें समस्त विश्वमें विगत १०० वर्षोंके भूकम्पोंकी परीक्षा की गयी एवं यह निष्कर्ष निकला कि भूकम्पके साथ क्षेत्रविशेषकी अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओंका एवं झटकेके रिक्टर स्केलपर मापी गयी तीव्रताका उस क्षेत्रविशेषके सन्दर्भमें ग्रहों की स्थिति महत्त्वपूर्ण रही है। 

     ४ इस बातकी सम्भावनाको भी स्वीकार किया गया कि ग्रह स्थितियोंका समय-समयपर किया गया अवलोकन एवं भूगर्भसम्बन्धी ज्ञानका समुचित प्रयोग भूकम्पके होनेसे एक मास पहले भूकम्पके बारेमें पूर्वसूचनाका माध्यम बन सकता है।

 *महर्षि गर्ग, बराहमिहिर आदि के सिद्धान्त :*

     अमावस्या अथवा पूर्णिमा तिथियों एवं इन तिथियोंकि पहले अथवा बादकी दो तिथियाँ भूकम्पके परिप्रेक्ष्यमें महत्त्वपूर्ण होती हैं। इस सन्दर्भमें लगातार अनुसन्धान करते हुए विश्व के महत्त्वपूर्ण देश सोवियत रूसने इन सिद्धान्तोंका सफल परीक्षण किया। उनके तथ्यपूर्ण शोधमें निष्कर्ष निकला कि- 

(क) विश्वमें होनेवाले ५५.८ प्रतिशत भूकम्प इन तिथियोंमें ही हुए।

 (ख) चतुर्दशी एवं प्रतिपदा तिथियोंपर विश्वमें ३३.५ प्रतिशत भूकम्प आये।

 (ग) १७ प्रतिशत भूकम्प पूर्णिमा एवं प्रतिपदा तिथियोंपर घटित हुए हैं। 

एक अन्य शोधमें शनि ग्रह एवं भूमध्यरेखाकी दूरीको एक निश्चित डिग्रीमें ग्रहों की स्थितियोंको भूकम्पका कारण पाया गया।

     शोधप्रकरणमें क्रूर ग्रहोंका प्रभाव, वृष एवं वृश्चिक राशियोंमें ग्रहोंका स्थित होना, चन्द्रमाका पीड़ित होना, चन्द्रमा एवं बुधका एक नक्षत्रगत होना,वायु एवं पृथ्वी तत्त्वोंकी विवेचना आदि महत्त्वपूर्ण पूर्वसूचक पाये गये हैं।

      महर्षि वराहमिहिर ने अपनी चिर-परिचित रचना ‘बृहत्संहिता’ में नक्षत्रोंके समूहको चार मण्डलोंमें बाँटा है :

 (१) वायव्यमण्डल, 

(२) आग्नेयमण्डल,

 (३) इन्द्रमण्डल एवं 

(४) वरुणमण्डल। 

इन मण्डलोंमें अलग-अलग नक्षत्रोंके समूहका वर्णन नारदीय संहितामें किये गये वर्गीकरणसे पूर्णरूपेण मिलता है।

    नक्षत्रोंका ग्रहोंसे सीधा सम्बन्ध होता है एवं प्रत्येक राशिमें ९ नक्षत्रचरणों यानि २.१/४ नक्षत्रका मान निर्धारित  किया गया है।

 भूकम्पकी वेलामें जिन ग्रहों की स्थितियाँ इस विपदाका कारण बनती हैं, उन ग्रहोंकी स्थितिमें नक्षत्रोंकी स्थिति भी उतनी ही विपदाके कारणमें योगदान करती है।

     चन्द्रमाको ‘नक्षत्रराज’ के नामसे भी जाना जाता है एवं भूकम्पकी स्थितिमें पीड़ित चन्द्रके ज्योतिषीय निर्णय में सम्बन्धित नक्षत्रोंका महत्त्वपूर्ण योगदान है।

     एतदर्थ भूकम्पके कारणोंकी मीमांसामें इन नक्षत्र- मण्डलोंकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है, जिसका विवेचन भारतीय वैदिक ज्योतिष ग्रन्थोंमें किया गया है। 

     भूकम्पसे सम्बन्धित पूर्व सूचनासम्बन्धी विषयोंकी जानकारी प्राप्त करने हेतु सूर्य ग्रहके केन्द्र स्थानोंमें (१, ४, ७, १०) भ्रमणसे सम्बन्धित कुण्डली बनाना एक आवश्यक कार्य माना गया है। 

सूर्यग्रह अपनी निश्चित परिक्रमाके क्रममें ‘रविमार्ग’ पर चलते हुए मेष, कर्क, तुला एवं मकर राशियोंकी कक्षाओंमें प्रवेश करता है। इन ४ राशियोंमें सूर्यप्रवेश- कुण्डली भूकम्पसम्बन्धी पूर्वसूचनाका महत्त्वपूर्ण निर्देशक माना गया है। 

       भारतवर्ष या वर्तमान भारतका जन्म लग्न ‘मकर’ सर्वसम्मति से मान्य है। आचार्य वराहमिहिर, महर्षि गर्ग,एवं महर्षि नारदने अपनी संहिताओंमें नक्षत्र-मण्डलोंका विवेचन करते हुए कतिपय राज्योंके प्राचीन नामोंका भी उल्लेख किया है।

       महर्षियोंने अपनी संहिताओंमें नक्षत्रमण्डलमें होनेवाले भूकम्पके सम्बन्धमें सात दिवस पूर्व सूचनाके बारेमें चर्चा की है। वैज्ञानिक उपलब्धियोंके आधारपर इस समय सीमाका विस्तार सम्भव है, ऐसा माना गया है। वैदिक ज्योतिष ग्रन्थोंमें भूकम्पसे सम्भावित आक्रान्त क्षेत्रोंके बारेमें भी चर्चा की गयी है, जिसे साधारण रूपमें ग्रहण- दृश्य क्षेत्रकी संज्ञा दी गयी है; क्योंकि भूकम्पोंका सीधा सम्बन्ध सूर्य एवं चन्द्रग्रहणसे जुड़ा हुआ है एवं ग्रहण-दृश्यताके आधारपर ही सम्भावित क्षेत्रका निर्णय अपेक्षित है।

 भारतीय वैदिक ज्योतिष के वे सूत्र एवं सिद्धान्त,जो भूकम्प से जुड़े हैं, उनका वैज्ञानिकों द्वारा विस्तृत विश्लेषण किया गया है।

      पाश्चात्य ज्योतिषीय ग्रन्थोंमें एवं प्रकृत व्यवहारमें भी इनका समुचित प्रयोग किया गया है । समस्त विश्वमें इन सिद्धान्तों एवं सूत्रोंको सारगर्भित पाया गया है। वैज्ञानिक शोध-प्रक्रियामें ग्रहों की स्थितियोंका पूर्ण विवेचन किया गया है, किंतु नक्षत्र-मण्डलोंके प्रभावके सम्बन्धमें विस्तृत अथवा पर्याप्त चर्चा नहीं की गयी है।

       महर्षियोंने अपनी संहिताओंमें पुनः भूकम्प अथवा ‘आफ्टर शॉक’ की भी चर्चा की है एवं उनकी विशिष्ट 4 अवधियाँ भी पूर्वनिश्चित की हैं। प्रत्येक नक्षत्रका समय-मान लगभग निश्चित किया गया है एवं भूकम्पकी पूर्व-सूचनाके परिप्रेक्ष्यमें यह समय काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। (चेतना विकास मिशन).

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