,मुनेश त्यागी
आजादी के 75 साल बाद हम देख रहे हैं कि आज हमारी न्याय व्यवस्था चरमरा गई है। वह पूर्ण रूप से अव्यवस्था और सरकारी बेरुखी का शिकार है। आज सरकार न्यायपालिका की आजादी पर सबसे बड़ा हमला कर रही है। इसी के साथ साथ कानूनी पेशा बेकारी का अड्डा बन गया है। कानूनी पेशा बिल्कुल दुर्दशा में है। जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देना सरकार की नीतियों और एजेंडे से बिल्कुल बाहर हो गया है।
जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने में सरकार की ना तो कोई इच्छा है और ना ही वह जनता के साथ हो रहे अन्याय से विचलित या परेशान दिखाई देती है। हालात यहां तक खराब हैं कि सरकार द्वारा लागू की गई नीतियों के कारण निजी लॉ कॉलेजों में शिक्षा की बिल्कुल दुर्दशा व्याप्त है और यह सारे के सारे संस्थान पैसा कमाने, बनाने के संस्थान बन गए हैं। वहां पर ना तो योग शिक्षक हैं, ना ही विद्यार्थियों को पर्याप्त और आधुनिक न्यायिक शिक्षा देने का इंतजाम है। बस ये कॉलेज पैसा कमाने के संस्थान बन गए हैं, जिस कारण पर्याप्त नॉलेज ना होने के कारण न्याय व्यवस्था का स्तर गिरता जा रहा है।
सरकार न्यायपालिका को निजी तोता बनाने पर आमादा है। आज हालत यह हो गए हैं कि सरकार को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की नही, संविधान के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने वाली न्यायपालिका की नहीं, बल्कि एक पिछलग्गू और सरकार की हां में हां मिलाने वाली न्यायपालिका की जरूरत है। इसलिए न्यायपालिका और सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली में सरकारी दखलअंदाजी लगातार बढ़ती जा रही है और आज न्यायपालिका की आजादी पर सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में वर्तमान में पांच करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इन पांच करोड़ मुकदमों के शीघ्र निस्तारण का सरकार के पास कोई ब्लूप्रिंट नहीं है। न्याय कक्ष बढ़ाने और जजों, कर्मचारियों, स्टेनों की पर्याप्त नियुक्तियां करने का सरकार का कोई इरादा या योजना नहीं है। मुकदमों के समय से निस्तारण की सरकार की कोई नीति नहीं है। उच्च न्यायालयों में लाखों मुकदमें 20-20, 25-25 सालों से मुकदमे लंबित हैं। सरकार की इन मुकदमों को समय से निपटाने की कोई मंशा नहीं है। हालात इतने खराब हैं कि वादकारी न्याय मिलने की आशा में अपने प्राण त्याग देते हैं, मगर उन्हें समय से इंसाफ नहीं मिलता।
ईमानदार और एक्सपर्ट वकीलों को सरकारी चयन से बाहर कर दिया गया है। सरकार अपनी नीतियों के अनुसार, जाति, पांति, धर्म और सांप्रदायिक सोच के आधार पर अपने वकीलों को सरकारी वकील बनाती है जिनमें से अधिकांश वकीलों को कानूनों की पर्याप्त जानकारी नहीं होती। इस बारे में कई उच्च न्यायालय अपनी प्रतिकूल टिप्पणियां भी कर चुके हैं, मगर सरकार इन टिप्पणियों को सुनने को तैयार नहीं है और इसे लेकर उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
एक के बाद एक कानून बनाकर वकीलों की भूमिका को सीमित किया जा रहा है। उन्हें न्यायालय में वकालत करने से रोका जा रहा है क्योंकि जागरूक वकील सरकार की मनमानी नीतियों और फैसलों का विरोध करते हैं। लेटेस्ट उदाहरण सरकार द्वारा लाई गई चार श्रम संस्थाओं का है, जहां वकीलों की पहल कदमी पर पूर्ण रोक लगा दी गई है और उन्हें मजदूरों की ओर से वाद दायर करने से पूर्णतया रोक दिया गया है। यह सब पूंजीपतियों के इशारे पर किया जा रहा है।
सरकार अमीरों, धन्ना सेठ साहूकारों और पूंजीपतियों की सबसे बड़ी पक्ष पोषक बन बैठी है। उसने कानून की निष्पक्षता पर भी पाबंदियां थोप दी हैं जिसे जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिलना लगभग नामुमकिन हो गया है। भारत में न्यायपालिका पर जीडीपी का केवल 0.08% खर्च किया जाता है, जबकि पश्चिमी देशों में जीडीपी का 3 परसेंट न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। इस प्रकार पर्याप्त धन न होने के कारण भारत में न्याय व्यवस्था चरमरा गई है।
भारत में मुकदमों के अनुपात में न्यायालय नहीं हैं, कर्मचारी और स्टेनो नहीं हैं, पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश नहीं हैं। भारत के उच्च न्यायालयों में 40% जजों के पद खाली पड़े हुए हैं और निचली अदालतों में 25 परसेंट से ज्यादा जजों के पद खाली पड़े हुए हैं। मगर लगातार मांग करने के बावजूद, इन खाली पड़े हुए पदों को पिछले 10-15 सालों से भी ज्यादा समय से नहीं भरा जा रहा है और सरकार इस ओर से बिल्कुल आंखें बंद किए हुए हैं।
अनेक न्यायालयों में सरकार, निपुण न्यायिक अधिकारियों और विषय के जानकार न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियां नहीं कर रही हैं। यहां पर भी सरकार अपने चहेतों और कई अयोग्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियां कर रही हैं जिन्हें अपने विषय का कोई ज्ञान नहीं होता, जिस कारण वे मनमाने और कानून विरोधी फैसले दे रहे हैं, जिस कारण वादियों के साथ सबसे ज्यादा अन्याय हो रहा है और शिकायत करने के बावजूद भी, सरकार इस समस्या को दूर करने के लिए कतई भी तैयार नहीं है।
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिलने में सरकारी बेरुखी और सरकारी पक्षपातपूर्ण रवैया, सबसे बड़ी बाधा हमारे सामने है। सरकार के इस न्याय विरोधी रुख और रवैया ने सस्ता और सुलभ न्याय जनता की पहुंच से बिल्कुल दूर कर दिया है। जनता को सस्ता और सुलभ न्याय, केवल और केवल सरकार की न्याय विरोधी नीतियों और रवैया के कारण नहीं मिल पा रहा है। सस्ते और सुलभ न्याय का सपना अब एक दिवास्वप्न बनकर ही रह गया है।
सरकार के इस सस्ते और सुलभ न्याय विरोधी रवैये और रुख को बदलने की आज वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है और इसमें वकीलों को महान पहल करनी होगी, तभी जाकर सरकार के न्याय विरोधी रवैया पर रोक लगाई जा सकती है और केवल तभी जाकर, जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल सकता है और संविधान में उल्लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।