Vivek Mehta |
सत्य, अहिंसा और साधन की पवित्रता आदमी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा बना देती हैं कि गोली से मारने के बाद भी लोगों को लगता है कि वह छाती पर मूंग दल रहा है। विचारों में वह जिंदा है। उसे कितना भी मिटाने की कोशिश करो, खत्म होने के बजाय उजला होकर वह उभर आता है। हर बार,बार-बार। इस बार भी ऐसा ही हुआ। कुजात गांधीवादी डॉ राममनोहर लोहिया की व्याख्यानमाला में फिर से गांधी को नजरों से गिराने की कोशिश हुई। हिंदी से अचानक देसी टोन की अंग्रेजी में बात कर गांधी को अनपढ़ सिद्ध करने की कोशिश की गई। बतंगड़ खड़ा करने ग्राम भटकाने का यत्न हुआ।
अरे भाई, नेताओं की बात को इतना गंभीरता से लेना चाहिए? कोर्ट ने भी तो एक दो बार इशारों में कहा था कि हंसकर नेता किसी को मारने की धमकी दे तो वह धमकी थोड़ी होती है!
गांधीजी बैरिस्टर थे। विदेश में पढ़े हुए। उनकी यह डिग्री वकालत करने के लिए मान्य थी। विश्वास नहीं हो तो ‘सत्य के प्रयोग’ के पहले भाग के 11 वें अध्याय से पढ़ना चालू कर दीजिए। ‘अनपढ़’ तो वही मतलब लगाएंगे जो उन्हें लगाना है। जो उनके लिए सुविधाजनक है।
पहला सवाल तो यह है कि ‘सत्य के प्रयोग’ होते क्या है? प्रयोग तो असत्य के होते है। असत्य कभी इस तरीके से बोला जाता है, कभी उस तरीके से बोला जाता है। फिर नकारा जाता। फिर बढ़ाया जाता है। प्रचारक लोग अलग-अलग तरीके से बार-बार असत्य बोलते है। विचारक उसके प्रभाव को परखते है। प्रयोगशालाओ में काम करते है। प्रयोग करते हैं कि वह सत्य कैसे लगेगा।
दूसरा सवाल- यह बला क्या है? यह महात्मा गांधी की आत्मकथा है। यह बोलेंगे तो फिलहाल लोग समझ जाएंगे मगर यह प्रयोग इसलिए किये जा रहे है कि लोग पूछे गांधी- बला क्या है?
अशिक्षा की ग्रंथि ने असुरक्षा की भावना मन में भर कर दी है। झूठी, नकली डिग्रीयां भी उससे निकलने में सहयोग नहीं कर रही। अनपढ़ होने के अपने खतरे तो है ही। कभी गलत समय के लिए कंप्यूटर का उपयोग हो जाता। गलत फोंट्स लग जाता है। नया सब्जेक्ट बन जाता। कभी 10 साल की उम्र में दसवीं पास हो जाती है। तो कभी बारहवीं के 1 साल बाद ही एमबीए की डिग्री मिल जाती है। बड़ी पोस्ट या सांसद या विधानसभा का अध्यक्ष बनने के लिए पढ़ाई बिल्कुल जरूरी नहीं है। मगर अपनी कुंठाओं का क्या करें? यह सब घपले करो और लांछन भी झेलो इससे तो अच्छा है कि सामने वाले की लाईन मिटाकर छोटी कर दो। जो पढ़े लिखे हैं उनकी डिग्रियों को ही नकार दो। डॉक्टर लोहिया को तो उनके शिष्यों ने ही निपटा दिया। विचारों से भी और आचरण से भी। जो यह कहते थे कि जिंदा कौम 5 साल का इंतजार नहीं करती। वे आज आफत ही सिद्ध होते। उनको भी निपटाना पड़ता।
दूसरा बतंगड़ खड़ा किया पत्रकार राजकमल झा ने। जब अरुण पुरी, (अरे वही इंडिया टुडे,आजकल वाले) को जता दिया गया कि तुम्हारा धंधा मैं चला देता हूं। नासमझ इंडियन एक्सप्रेस वाले यह संपादक अपनी रीढ़ को तान कर खड़े हो गए। बंद लिफाफे वाले इशारों को तो लोगों ने समझ लिया। राज्यसभा के कृषि बिल संबंधित हादसे के वक्त डिवीजन वोट वाला इशारे को समझने में डेरेक को भी देर लगी। दूसरे लोग क्या समझते! हां, विडम्बना है कि उस दुर्घटना के मुखिया हरिवंश भी पत्रकार रहे। अखबारों, पत्रकारों के चरित्र को इससे क्या फर्क पड़ता। मोटी चमड़ी पर नेताओं का ही हक नहीं है।
आज कल की फास्ट लाइफ में घटनाएं इतनी जल्दी घटती है की पुरानी भूल जाते है। व्हाट्सएप के जमाने में पढ़ता भी कौन है? चिन्ता, चिन्तन और दिमाग पर जोर देना तो दूर की बात है! प्रकृति का नियम भी है कि जिस चीज का उपयोग नहीं करते वह सुप्त होने लगती है या नष्ट होने लगती है। शायद दिमाग के साथ भी यही हो रहा।