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वैदिक दर्शन : काम अजर, अमर, स्वयंभू और सर्वशक्तिमान

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डॉ. विकास मानव

   संसार में राम नाम से ऊपर कुछ है नहीं। इस नाम को अपने हृदय में रखकर मैं सप्तम भाव में ज्ञान की ज्योति जला रहा हूँ। इस ज्योति का दर्शन जिन्हें है वा होगा वे धन्य हैं। इस ज्योति को जलवाने वाले कामदेव तथा उनकी प्रिया रति देवी को मैं प्रणाम करता हूँ। काम से परे तथा काम में मति लगाने वाली सरस्वती देवी को मेरा प्रणाम । उन सज्जनों को नमन करता हूँ जो काम ही रहस्मयता के जिज्ञासु हैं। तस्मै कामपुरुषाय नमः । 
    यह मनुष्य इच्छाओं का पहाड़ लिये हुए जीता है। इसलिये दुःख के दलदल में फँसा रहता है। इस दलदल से निकलने की वह जितनी चेष्ठा करता है, उतना ही उसमें धँसता चला जाता है। इसकी असंख्य कामनाओं में तीन प्रमुख हैं। इनसे छुटकारा मिलना कठिन हैं।

तीन एषणाएं :
१- पुत्रैषणा (पुत्र प्राप्ति की इच्छा) प्रकारान्तर से इसे हम कामैषणा, भोगेपणा, मैथुनेच्छा आदि।
२- वित्तैषणा धनवान होने की इच्छा। इसमें लौकिक एवं अलौकिक दोनों प्रकार की सम्पत्तियों आती हैं।
३- लेकैषणा (यश प्राप्ति की इच्छा)। इस एषणा से बचना अति कठिन है। स्तुति, किसे प्रिय नहीं होती ?
पुत्रैषणा की पूर्ति के लिये, पुरुष, कान्ता / कामिनी के पीछे दौड़ता है, तथा स्त्री, कान्त कुमार के पीछे भागती है।
वित्तैषणा वाले स्त्री-पुरुष काञ्चन (स्वर्ण, धन) के चक्कर में दिन-रात एक किये रहते हैं।
लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि लोग जीवन पर्यन्त अपनी कोर्ति के विस्तार में लगे रहते हैं।

काञ्चन, कामिनी और कीर्ति ये जीवन के तीन ककुर हैं। इन तीनों में कृष्ण (कमल) है। जो इन ककारों में न्यस्तचित्त है, वह केशव है। के शेते केशवः।
के =(काञ्चने कामिन्याम्, कीर्त्यम्/कीर्तौ) ककारे।
केशव नाम शरीर वा शरीरी जीव का है। पुनः केशव नाम आत्मा वा परमात्मा का है। यह शरीरधारी अपनी काया / देह को सदा काञ्चन कामिनी कीर्ति में डुबाए रहता है। इसलिये यह केशव है। इन ककारों में शयन करते-करते यह जीव शव हो जाता है। हर मनुष्य केशव है। कै शब्दे से क की निष्पत्ति है।
अतः क = शब्द। जो शब्द में उसके अर्थरूप से शयन करता है, वह केशव है। आकाश का तन्मात्र शब्द है। अतः क = आकाश। जो आकाश में शयन करता है, वह सूर्य केशव है। शरीर से शब्द होता है। अतः काया इसका नाम पड़ा है। काया में आकाश है। आकाश में शब्द है।
अतः क= काया। जो इस काया में पुरुष / जीव रूप से शयन करता है, वह केशव है। मेरे भीतर केशव। मेरे बाहर केशव में केशव अन्य सभी केशव। इस केशव का उस केशव को सभी दिशाओं से नमस्कार ।

काम कामना कामुकता कामपिपासा :
कान्ता काममयता कामालुता. कमनीयता कामक्रीड़ा कामातुरता.
काममत्ता कामोन्माद से जो सुख वा पीड़ा होती है, उसे कामज्वर कहते हैं। यह ज्वर जिसे पकड़ता है, उसे तोड़ देता है। इसकी मात्र एक औषधि है-राम नाम इस नाम के अनुपान के साथ काम सेवन से दुःख नहीं होता।
【राम + काम वा, काम + राम →सुख।】
इस राम नाम के बल से मैं सप्तम भाव के द्वार की दृढ़ अर्गला तोड़ रहा हूँ। तस्मै रामनाम्ने नमः ।
कामज्वर वैष्णवज्वर है। यह सृष्टि के कण कण में है। चराचर जगत् इससे ओतप्रोत है। जितने भी भाव हैं, सबके मूल में एकमात्र काम ही है। काम में कठोरता कोमलता दोनों हैं।

व्यास उवाच :
‘कामात् क्रोधोऽभिजायते।’
~गीता (२ । ६२)
काम से क्रोध पैदा होता है। क्रोध, कच्छू (कठोर) भाव है और अनर्थ का मूल है। काम से प्रेम की उत्पत्ति होती है। प्रेम, कोमल भाव है। यह समस्त अर्थ (शुभ) का हेतु है।
इस तथ्य के उदाहरण :
१- राक्षसराज रावण की बहन सूर्पणखा ने दण्डकारण्य में विचरते हुए दशरथात्मज राम को देखा तो उनके रूप पर आकर्षित हुई।
अपनी कामपिपासा की शान्ति के लिये उसने राम से निवेदन किया। उसकी कामेच्छा पूरी नहीं हुई। उल्टे उसके नाक, कान और स्तनाग्र (चुचूक) को रामानुज लक्षमण ने काट दिया। शूर्पणखा क्रुद्ध हुई।
उसने स्वधाता दशमुख रावण को सीता के हरण के लिये प्रेरित किया। आगे जो हुआ यह सर्वविदित है।
२- कामासक्त दुर्योधन, पाण्डव पत्नी द्रौपदी को नंगा कर अपनी जाँघ पर बैठाना चाहता था।
कृष्ण ने उसके शील की रक्षा की कामापूर्ति में व्यवधान के फलस्वरूप दुर्योधन में क्रोधादि कृच्छ्र भावों का जन्म हुआ।
उसने पाण्डवों के सन्धि प्रस्ताव को ठुकरा कर युद्धपथ का अनुसरण किया। महाभारत का युद्ध इसी काम का दुर्निवार फल है।
३- देवर्षि नारद को कामव्याल ने डंसा। इसकी औषधि के लिये उन्होंने भगवान् विष्णु से उनका रूप माँगा। विष्णु ने उन्हें अपना रूप न देकर कुरूप कर दिया- बन्दर सा मुँह दिया।
इससे नारद को अभीष्ट सुन्दरी नहीं। नारद ने विष्णु पर कोप किया और उन्हें शाप दिया- स्त्री के वियोग में रोने के लिये।
विष्णु, राम बनकर स्त्री सीता के लिये रोये। इसे कौन नहीं जानता ?

इन उदाहरणों से स्पष्ट है-काम से क्रोध जन्मता है। क्रोध युयुत्सा का मूल है, झगड़े की जड़ है,ईर्ष्या-द्वेष का जनक है, हिंसा का कारक है, उत्पात का हेतु है, अशान्ति-विनाश का आवास है, मद-मात्सर्य का स्रोत है, लोभ-मोह की खान है।
जहाँ क्रोध है, वहाँ ये सब अनर्थकारी भाव हैं। यह क्रोध, काम की प्रतिक्रिया का परिणाम है। इतिहास साक्षी है, सभी लड़ाइयाँ काम (स्त्री) के कारण हुई हैं।

काम दुधारी (दो धार वाली) तलवार :
काम की पूर्ति होने से नयी समस्या का जन्म होता है। भार्या मिल गई। उसके लिये घर बनाओ, वस्त्राभूषण जुटाओ, आमोद प्रमोद के साधन लाओ, बच्चे पैदा करो। आवश्यकाएँ बढ़ती जाती हैं, समस्याएं नये-नये रूप लेती रहती है, हाय हाय मची रहती है। सबकी यही दशा है। सब रोते हैं। राम की कृपा जिस पर है, वही हँसता है। “रामश्शरणं मम।’
काम का दूसरा पक्ष प्रेम मूलक है। जहाँ प्रेम है, वहाँ त्याग है। जहाँ त्याग है, वहाँ भक्ति है। जहाँ भक्ति है, वहाँ ज्ञानरूप ब्रह्म है, समस्त ऐश्वर्य है, परा शान्ति है। काम वहाँ यहाँ सर्वत्र है। इस काम के सम्मुख मैं सतत नत मस्तक हूँ। इस काम ने महापुरुषों द्वारा समाज को उपकृत किया।

उदाहरण के लिये :
१- संत तुलसीदास पहले स्त्री की देह में आसक्त थे। स्त्री ने उन्हें इसके लिये फटकारा। वे राम भक्त हुए। उनके काम का उदात्तीकरण हुआ।
रामचरित मानस नामक कृति इसकी साक्षी है।
२- श्री बाल्मीकि स्त्री परिवार में आसक्त रहकर हिंसा से धन जुटाते थे। संतदर्शन से उनमें परिवर्तन आया। उनके भीतर के काम ने काव्य का रूप धारण किया। फलतः रामायण नामक ग्रन्थ अस्तित्व में आया।
३- व्यास जी कामी थे। उनका यह काम इतिहास पुराण के श्लोकों में स्पष्ट झलकता है। काम का उत्कृष्ट रूप, उनका सारा काव्य है।

सौंदर्य से कामजागरण :
सुन्दरता से सोया हुआ काम जागता है। सौन्दर्य और काम का अनन्य संबंध है। काम में प्रेम प्रेम में श्रृंगार, करुणा, वत्सलता, राग, अनुराग, विराग होता है। अनुराग लौकिक प्रेम तथा विराग अलौकिक प्रेम में पाया जाता है।
अलौकिक प्रेम का नाम भक्ति है। बिना विराग के भक्ति नहीं। वैरागी ज्ञानी होता है। तस्मै ज्ञानिने नमः ।

घृणा मद मत्सर मोह लोभ ईर्ष्या द्वेष कपट युयुत्सा आक्रमण हिंसा अशांति विप्लव विनाश अस्थैर्य वाचालता अपशब्द।
राग अनुराग विराग शान्ति त्याग दान सहयोग संयोग करुणा दया वात्सल्य श्रृंगार सुख आनन्द आँसू रोमाञ्च मौन स्थिरता माधुर्य औदार्य
काम में बल होता है, उत्साह होता है। क्रोध में उत्साह होता है। प्रेम में भी उत्साह होता है। दोनों भावों में युद्ध होता है।
क्रोध में एक दूसरे को मारने व पराजित करने की तत्परता होती है। प्रेम में एक दूसरे से हारने वा समर्पण की ललक होती है। क्रोध में मुष्टि प्रहार वा शस्त्रास्त्र का प्रयोग होता है तो प्रेम में चुम्बन आलिंगन परिरम्भन नखक्षत दन्तक्षत मर्दन मार्जन होता है।
क्रोध का अन्त दुःख में होता है तो प्रेम का विराम सुख वा आनन्द में होता है। क्रोधी जीतने में सुख मानता है। जबकि प्रेमी हारने में सुख को अनुभूति करता है। काम की ये दो धाराएँ अनादि एवं अनन्त हैं।
स्त्री-पुरुष के अंग-अंग में काम विद्यमान है। यह काम कभी क्रोध के रूप में भयभीत करता है तो कभी प्रेम के रूप में आह्लाद देता है। ऐसा काम अनिर्वाच्य है। फिर भी इसके तात्विक स्वरूप के वर्णन की पेश कर रहा हूँ।

  *काम का तात्विक स्वरूप :*

काम ब्रह्मा है, विष्णु है, रुद्र है। उपस्थ (रज-वीर्य) में प्रवेश कर यह सर्जन क्रिया करता है। इसलिये ब्रह्मा है। मुख में अन्न (स्वाद, घाण, शब्द, दृश्य, स्पर्श) बनकर प्रवेश करता है तो पालन क्रिया होती है।
काम उपास्य है। काम कमनीय है। “सर्वान् समश्नुते कामान्.”
~मनुस्मृति (५।५)
अथर्ववेद में काम सूक्त है। इसको समझकर पाठ करने वाला कल्याण का भागी होता है। अथर्ववेदान्तर्गत काण्ड ९ का सूक्त २ ही काम सूक्त है। इसका देवता काम है। इसमें काम की सुब्यापकता विविधता एवं शक्तिमत्ता का वर्णन करते हुए उसकी उपासना की गई है।
१. ‘कामं शिक्षामि हविषाज्येन।”
~अथर्ववेद (९ । २ । १)
“शिक्षति दान कर्मा.”
~निघण्टु (३ । १०)
हविष और आज्य द्वारा मैं अपने को) काम के प्रति देता (समर्पित करता) हूँ।
२. ‘कामं स्तुत्वोदहं भिदेयम्।’
~अथर्व (९ । २ । २)
【स्तुत्वा + उद् + अहम् = स्तुत्वोदहं 】
काम को प्रसन्न कर अच्छी तरह (मैं) उसका भेदन करूँ।
३. ‘दुष्वप्यं काम दुरिनं च काम अप्रजस्ताम् अस्वगताम् अवर्तिम उग्र ईशानः प्रतिमुञ्च। “
~अथर्व (९ । २ । ३)
हे उम ईशान काम ! मेरे दुःस्वप्नों एवं दुरितों को, संतान के अभाव को निष्क्रियता को, द्वन्द्व को हटा दो।
४. ‘नुदस्व काम प्रणुदस्व काम अवर्तिम् यन्तु ये सपनाः।’
~अथर्व (९ । २ । ४)
हे काम मेरी दुर्गन्ध दूर करो। हे काम । मेरे प्रतिपक्षियों को दूर हटा दो मिटा दो।
५. ‘सा ते काम दुहिता धेनुरुच्यते।”
~अथर्व (९ । २ । ५)
हे काम वह तेरी बेटी दुधार गौ कही जाती है। (गोदुग्ध काम कारक वीर्य वर्धक होता है।)
६. “कामस्येन्द्रस्य वरुणस्य राज्ञे विष्णोर्बलेन सवितुः सवेन अनेत्रिण प्रणुदे सलाम्बीय नावमुदकेषु धीरः।।”
~अथर्व (९ । २ । ६)
सव=यज्ञ।सपत्न=शत्रु। शम्बी = नाविक (मल्लाह)। उदक = नदी वा समुद्र का जल।
काम उत्पादक होने से सवित है, जलाने के कारण अग्नि है, स्वामी होने से इन्द्र है, श्रेष्ठ वा वर्य होने से वरुण है, प्रकाशित (व्यक्त) होने से राजा है, व्यापक होने से विष्णु है।
इस मन्त्र में इन्द्र, वरुण, राजा, विष्णु सविता और अग्नि, काम के विशेषण हैं। सबमें पष्ठी है। मन्त्रार्थ- इन्द्ररूप काम, वरुण रूप काम, राजा रूप काम, विष्णु रूप काम के बल से; सविता रूप काम के यजन से; अग्नि रूप काम के हवन से मैं अपने शत्रुओं को पीछे ढकेलते हुए उसी प्रकार आगे बढ़ रहा हूँ जैसे धैर्यशील नाविक पतवार से जल को पीछे हटाता हुआ नाव को आगे बढ़ाता है।
७. “ इदमाज्यं घृतवज्जुषाणाः काम ज्येष्ठा इह मादयध्वम्।
कृण्वन्तो मह्यमसपत्नमेव।।”
~अथर्व (९ । २।७)
【 आज्य = पिघला हुआ घी। घृतवत् = अमृतसदृश ।अमरकोष में घी को अमृत कहा गया है। जुषाणाः = सेवन करते हुए। जुषी प्रीतिसेवनयोः तुदादिगण। कामज्येष्ठा = कामप्रवृद्ध = प्रकामी मादयध्वम् (मुझे) हर्षित / आनन्दित करो। इह इस जीवन में । कृण्वन्तः = करते हुए। मह्यम् = मेरे लिये।
असपलम् = प्रतिपक्ष रहित/विरोध रहित/शत्रुहीन एव ही। इदम् = यह मन्त्रार्थ इस गोघृत का सेवन करते हुए मैं काम प्रवृद्ध होऊं, हर्ष को प्राप्त होऊं तथा शत्रुहीन (बलवान ) होऊं ।]
८.’ अध्यक्षो वाजी मम काम उप्र कृणोतु महामसपलमेव।’
~अथर्ववेद (९/२/८)
【अधि-अ-क्षः = भीतर से कभी भी जिस का क्षय न हो अर्थात् अविनाशी वाजी = बलवान बाजः बलनाम-निघण्टु २ । ९ । उम्र तीक्ष्ण कृणोतु करे। मन्त्रार्थ हे अविनाशी, बली, उप काम मेरे लिये असपल (अविरोध) दो मुझे बाधा रहित करो।]
९. “इन्द्राग्नी काम सरथं हि भूत्वा नीचः सपत्नान् मम पादयाथः।”
~अथर्व (९ । २ । ९)
【रथ = शरीर । ‘शरीरं रथमेव तु (कठोपनिषद् १ । ३ । ३) नीचः पादयाथः = नीचैः पदतले= पैरों के नीचे करो। हे इन्द्र एवं अग्नि रूप काम। सशरीर होकर मेरे शत्रुओं को कुचल दो ।】
१०. ‘जहि त्वं काम मम ये सपनाः।’
~अथर्व (९ । २ । १०)
【हे काम मेरे इन विरोधियों को मार दे।】
११. ‘अवधीत् कामो मम ये सपनाः।’
~अथर्व (९।२।११)
【मेरे इन विरोधियों को मार दिया है, काम ने।】
१२. ‘त्वं काम मम ये सपनास्तानस्मालोकात् प्रणुदस्व दूरम्।’
~अथर्व (९ । २ । १७ ; १८)
【हे काम तू मेरे इन शत्रुओं को इसलोक से दूर फेंक दो।]
१३. ‘कामो जज्ञे प्रथमः।’
~अथर्व (९ । २ । १९)
【सबसे पहले काम प्रकट हुआ।】
१४. ‘ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणेमि।’
~अथर्व (९ । २ । १९, २०, २१, २२, २३, २४ ।)
【[शततः = तन् + क्त फैला हुआ, विस्तृत व्यापक । त्वम् असि = तू है। ज्यायान् = ज्येष्ठ, बड़ा। विश्वहा = विश्व (सम्पूर्ण) + हा अव्ययशब्द आश्चर्य, शोक।= महान् आश्चर्य वा विश्व हन्ता / हर्त्रा।
महान् = पूज्य आदरणीय मह पूजायाम्। तस्मै ते तेरे प्रति कृणोमि = करता हूँ। यद्यपि यह स्वादिगण का रूप है, हिसार्थक है। तथा यहाँ करणार्थक अर्थ है। कृणोमि करोमि मन्त्रार्थ हे काम । तू व्यापक है, बड़ा है, विश्वाश्चर्य है, महान् है। उस तेरे प्रति मैं नमस्कार करता हूँ ।】
१५. “यास्ते शिवास्तन्व: याभिः सत्यं ताभिष्ट्वमस्म भवति यद् वृणीषे। अभिसंविशस्व अन्यत्र पापीरप वेशया धियः।।”
~अथर्व (९/२/२५)
【याः ते शिवाः तन्वः काम भद्राः याभिः सत्यम् भवति यद् वृणीषे । ताभिः त्वम् अस्मान् अभि संविशस्व अन्यत्र पापी: अप वेशय आ धियः॥】
【शिवाः = कल्याणप्रद। तन्वः = स्वरूप। भद्राः = कल्याणकारी। वृणीषे= वृणुषे (वृञ् आ. लट् म.पु. एक व.) = वरण करता है, चाहता है, पसन्द करता है। अभि-सम्-विशस्व= अभिसंविश (विश् लोट परस्मै म.पु. एक. व) = करके। अन्यत्र = भीतर प्रवेश करो। पापीः धियः = पापमय बुद्धियाँ/विचार। अप = (हमसे) अलग दूसरी जगह में।आ वेशय= आरोपित कर।

मन्त्र-अर्थ :
हे काम! जो तेरे सुखप्रद एवं कल्याणकारी स्वरूप हैं, जिनसे सत्य, जो कि तू चाहता है, विद्यमान है, उन स्वरूपों के साथ तू हमारे भीतर प्रवेश कर और जो हमारे पापमय कुविचार हैं, उन्हें हमसे पृथक् कर अन्यत्र ले जाकर आरोपित कर।
इस मंत्र में काम देव से अपने अन्तःकरण की शुद्धि की प्राप्ति के लिये प्रार्थना की गई है। काम सत् है। सत् से ही सत् की प्राप्ति वा सद्यय होने की प्रार्थना करना समीचीन है।
काम, जीव का सखा है, शत्रु नहीं। यह सखा निरन्तर उसके साथ रहता है। जन्म से मृत्युपर्यन्त यह उसका साथ नहीं छोड़ता। काम उसका मित्र है। इसीलिये जीव उसे संबोधित कर अपने हृदय का उद्वार प्रकट करता है, अपने कल्याण की याचना करता है। जीव को काम की सतत अपेक्षा रहती है।
इसी से वह जोव का साथ नहीं छोड़ता। इस काम के बिना जीव अशक्त है, शववत् है, व्यर्थ है, निष्क्रिय है। यह काम ही परमेश्वर है, पराशक्ति है। मैं इसकी शरण में हूँ।

काम अजर है, अमर है, अपर है, आत्मभू है, ब्रह्मभू है, स्वयंभू है। यह सर्वत्र है। यह सबमें है, सभी इसमें हैं। यह सभी कालों में है, अनेक अवस्थाओं में विविध रूपों में है।
यह अचर है, चर है, विषम है, सम है। यह सुख है, दुःख है, कोमल है, कठोर है। यह योग कारक, भोग कारक, राग कारक, विराग कारक है यह अमूर्त है, असूत है, आर्य है अनिवार्य है।
यह सभी में है, पुरुष में है, जड़ में है, चेतन में है, हा में है, भाव में है, प्रकट है, परोक्ष है, दृश्य है, अदृश्य है। यह महानतम, महाबली, महेश्वर है। इसकी महिमा का अन्त नहीं। इसके स्वरूप का पार नहीं। इस अनिर्वाच्य काम के सम्मुख मैं नत मस्तक हूँ

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