पुष्पा गुप्ता
देशभर में कई स्थानों में आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य स्कीम वर्करों जैसे कि आशाकर्मियों के संघर्ष चल रहे हैं। पिछले दो दशकों में मज़दूर-मेहनतकश आबादी के इस हिस्से के संघर्ष काफ़ी जुझारू रहे हैं। इनमें भी दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का पिछले 7 वर्षों से जारी आन्दोलन विशेष स्थान रखता है।
इस संघर्ष के दौरान ही इन आँगनवाड़ीकर्मियों ने सीटू जैसी दलाल और ग़द्दार यूनियन का अपने बीच से पूर्ण रूप से सफ़ाया कर दिया और अपनी स्वतंत्र क्रान्तिकारी यूनियन ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ की स्थापना की।
यह यूनियन 2015 और 2017 में दो सफल हड़तालें लड़ चुकी है और उनकी 2022 की तीसरी हड़ताल अभी भी जारी है, जिसपर केजरीवाल सरकार और मोदी सरकार द्वारा डरकर हेस्मा नामक काला क़ानून थोपने और उसे छह माह के लिए प्रतिबन्धित करने का काम किया गया है।
इसके बाद यूनियन ने न्यायपालिका की “स्वतंत्रता और निष्पक्षता” को परखने के लिए हेस्मा लगाये जाने के फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है और केवल तब तक के लिए हड़ताल को स्थगित किया है। यूनियन ने स्पष्ट किया है कि यदि न्यायपालिका से न्याय नहीं मिलता तो हेस्मा तोड़ते हुए हड़ताल की फिर से शुरुआत की जायेगी, क्योंकि जब अन्याय ही क़ानून बन जाये तो बग़ावत अधिकार और कर्तव्य बन जाता है।
इस तीसरी हड़ताल ने भी आंशिक जीत पहले ही हासिल कर ली है, क्योंकि केजरीवाल सरकार को मजबूर होकर दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का मानदेय 22 से 24 प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ा है। लेकिन चूँकि केजरीवाल सरकार ने यूनियन से वार्ता नहीं की और साथ ही मानदेय में नाकाफ़ी बढ़ोत्तरी की है और अन्य माँगें नहीं मानी हैं, इसलिए संघर्ष अभी भी जारी है।
एक ऐसे ऐतिहासिक संघर्ष के समय, जिसमें कि तीन ज़बर्दस्त रैलियाँ निकाली गयीं, हड़ताल स्थल पर आर्ट गैलरियाँ बनायी गयीं, बच्चों के शिशुघर चलाये गये और आँगनवाड़ीकर्मी औरतों की नाटक टोलियाँ बनायी गयीं और आम आदमी पार्टी का पूरे शहर में बहिष्कार किया गया, इस बात पर चर्चा करना बेहद मौजूँ होगा कि आँगनवाड़ीकर्मियों के श्रम का पूँजीपति वर्ग के लिए क्या महत्व है, वह उन्हें कैसे लूटता है, उनका किस प्रकार फ़ायदा उठाता है।
आँगनवाड़ीकर्मी कोई वस्तु या सेवा नहीं पैदा करतीं और इसलिए कोई मूल्य नहीं पैदा करतीं। वे एक उपयोगी सेवा देती हैं, लेकिन उस सेवा को बेचा-ख़रीदा नहीं जाता बल्कि एक स्कीम के ज़रिए ग़रीब मेहनतकश आबादी के बच्चों व स्त्रियों में निशुल्क वितरित किया जाता है। चूँकि वे कोई मूल्य नहीं पैदा करतीं, इसलिए वे सीधे पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफ़ा भी नहीं पैदा करतीं।
लेकिन इसके बावजूद वे पूँजीपति वर्ग को अपने मुनाफ़े की दर को बढ़ाने में मदद करती हैं। कैसे? आइए इसे समझते हैं क्योंकि आज स्वयं आँगनवाड़ीकर्मियों के लिए अपने शोषण की सच्चाई को समझना बहुत ज़रूरी है ताकि वे इससे अपने संघर्ष के लिए ठोस नतीजे निकाल सकें।*
पूँजीवादी समाज की बुनियाद में व्यापक मेहनतकश आबादी की श्रमशक्ति का शोषण है। मज़दूरों-मेहनतकशों की श्रमशक्ति के शोषण से ही पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा पैदा होता है। मशीनें कोई नया माल स्वयं नहीं बना सकतीं और इसीलिए वे स्वयं कोई नया मूल्य नहीं पैदा करतीं।
माल में मशीनों का मूल्य टुकड़ों-टुकड़ों में बिना बढ़े रूपान्तरित हो जाता है और मशीनें स्वयं कोई नया मूल्य नहीं पैदा करतीं। मानवीय श्रम ही नया मूल्य पैदा करता है। किसी भी माल के मूल्य में उसमें लगने वाले कच्चे माल मूल्य और मशीन व इमारत आदि का घिसाई मूल्य शामिल होता है जो कि ज्यों का त्यों माल की क़ीमत में स्थानान्तरित हो जाता है।
इसे हम ‘पुराना मूल्य’ या ‘पहले उत्पादित हो चुका मूल्य’ कह सकते हैं क्योंकि उसका उत्पादन पहले ही हो चुका है। लेकिन साथ ही माल की क़ीमत में वह नया मूल्य भी शामिल होता है, जो कि मानवीय श्रम ने पैदा किया होता है। स्वयं कच्चे माल, मशीनों, इमारतों आदि का मूल्य भी मानवीय श्रम से ही पैदा होता है। मूल्य अपने आप में और कुछ नहीं बल्कि माल का रूप ग्रहण कर चुका इन्सानी श्रम है।
मज़दूरों को पूँजीपति उनके कुल श्रम का मोल नहीं देता है। अगर ऐसा होता तो पूँजीपति का मुनाफ़ा ही समाप्त हो जाता। वह मज़दूर की श्रमशक्ति को ख़रीदता है। श्रमशक्ति का अर्थ होता है एक मज़दूर द्वारा एक कार्यदिवस में काम करने की क्षमता। यानी मज़दूर और उसके परिवार के लिए ज़रूरी न्यूनतम भोजन, कपड़े, किराया, ईंधन का ख़र्च, शिक्षा व स्वास्थ्य का ख़र्च।
उसके परिवार का गुज़ारा-ख़र्च भी इसमें शामिल होता है क्योंकि मज़दूरों की नस्ल को आगे जारी रखने का काम आम तौर पर मज़दूर वर्ग ही करता है, न कि धन्नासेठों की औलादें। मज़दूर को मज़दूरी के रूप में अपने और अपने परिवार के गुज़ारे बराबर वेतन मिलता है।
इसी के ज़रिए मज़दूर और उसका परिवार जीवित रह सकता है और इसी के ज़रिए वह अगले दिन फिर से पूँजीपति वर्ग के लिए काम कर सकता है। दूसरे शब्दों में, इसी के ज़रिए उसकी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन होता है।
मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में होने वाले ख़र्च के बराबर ही उसकी श्रमशक्ति का मूल्य होता है। मज़दूर वर्ग अपने संघर्ष के ज़रिए अपनी मज़दूरी को कभी श्रमशक्ति के मूल्य से कुछ ऊपर उठा सकता है, या फिर उसके संघर्षों के कमज़ोर होने की सूरत में मज़दूरी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक न्यूनतम स्तर तक गिर सकती है या कई बार उससे नीचे भी गिर सकती है। लेकिन आम तौर पर लम्बी दूरी में मज़दूरी श्रमशक्ति के मूल्य के ऊपर-नीचे ही मण्डराती रहती है।
यह श्रमशक्ति का मूल्य भी एक सामाजिक व ऐतिहासिक श्रेणी है। भारत में मज़दूर वर्ग की श्रमशक्ति के मूल्य में स्तरीय भोजन, अच्छा मकान, अच्छी स्वास्थ्य व शिक्षा नहीं शामिल है, जबकि कई उन्नत पूँजीवादी देशों में अधिकांश मज़दूर इसके बिना काम करने को तैयार ही नहीं होंगे। इस अन्तर का कारण है इन देशों में राजनीतिक चेतना के स्तर और इन देशों के पूँजीपति वर्ग की आर्थिक ताक़त के बीच का अन्तर। लेकिन मूल बात यह है कि श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन होना और सस्ते में उसका पुनरुत्पादन होना पूँजीपति वर्ग की आवश्यकता होती है।
मज़दूर काम करने की स्थिति में ही नहीं होगा तो पूँजीपति स्वयं तो कारख़ाने में काम करेगा नहीं! उसे मूल्य और बेशी मूल्य (जो कि मुनाफ़े का आधार होता है) के उत्पादन के लिए मज़दूर की ज़रूरत है।
लेकिन पूँजीपति वर्ग चाहता है कि मज़दूरों की श्रमशक्ति सस्ते से सस्ते में पुनरुत्पादित हो जाये। ऐसा पूँजीपति वर्ग कई तरीक़े से करता है।
पहला, लम्बी दूरी में उन उद्योगों की उत्पादकता को बढ़ाकर जो कि मज़दूरों के इस्तेमाल में आने वाली वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, दूसरे शब्दों में, मज़दूरी-उत्पादों को सस्ता करके क्योंकि उत्पादकता बढ़ने के साथ एक दीर्घकालिक प्रवृत्ति के तौर पर माल की क़ीमत घटती है।
दूसरा, घरों के भीतर स्त्रियों के उत्पीड़न और उनके घरेलू श्रम का दोहन करके। यदि घरों में रसोई के काम से लेकर बच्चों के लालन-पालन का काम औरतें न करें तो मज़दूर वर्ग की श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन सुचारू रूप से हो ही नहीं सकता और यह काम भी पूँजीपति वर्ग को स्वयं अपने ख़र्च पर करवाना पड़ेगा, यानी मज़दूरों के लिए रसोइयों को खोलना, बच्चों का लालन-पालन करना आदि। यह बहुत ख़र्चीला होगा। घरों के भीतर औरतों के उत्पीड़न के ज़रिए यह काम बहुत ही सस्ते में हो जाता है। इस प्रकार मज़दूरों की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की औसत लागत गिर जाती है।
अगर औरतों का उत्पीड़न और घरेलू श्रम न होता तो पूँजीपतियों को कहीं ज़्यादा लागत के साथ श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन का काम भी ख़ुद ही करवाना पड़ता।
तीसरा तरीक़ा है आँगनवाड़ी, आशा आदि जैसी सरकारी तथाकथित “सामाजिक स्कीमें”। इन स्कीमों के ज़रिए बच्चों, गर्भवती महिलाओं आदि की देखरेख व पोषण तथा शुरुआती शिक्षा के ज़रिए पूँजीपति वर्ग बहुत-से वे काम बेहद सस्ते में करा लेता है, जो कि बाक़ायदा अच्छा भोजन मुहैया कराने, अच्छी स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने में सरकार को कहीं ज़्यादा ख़र्च होता। इसके लिए उसे बाक़ायदा समस्त सुविधाओं से लैस देखरेख केन्द्र खोलने पड़ते, मैटर्निटी सेण्टर खोलने पड़ते, अच्छे स्कूल व अस्पताल खोलने पड़ते, उनमें बाक़ायदा वेतनमान पर कर्मचारी रखने पड़ते।
लेकिन इस काम को सरकार स्वयं मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी की ही औरतों का कौड़ियों के दाम पर शोषण करके करवा लेती है और अपना ख़र्च कई गुना बचाती है। दूसरी बात, यह भोजन वितरण, देखरेख आदि का ख़र्च देता कौन है? आप कहेंगे कि वह तो सरकार देती है। लेकिन सरकार अपने घर से तो नहीं देती!
केजरीवाल या मोदी अपने और अपने विधायकों के लाखों के वेतन से तो यह ख़र्च नहीं उठाता है! इन स्कीमों का ख़र्च भी सरकारी ख़ज़ाने से आता है। लेकिन सरकारी ख़ज़ाना कहाँ से आता है? जी हाँ, आपके और हमारे द्वारा हर वस्तु या सेवा को ख़रीदने में दिये गये अप्रत्यक्ष कर से, जिन्हें लगातार बढ़ाया जा रहा है।
अगर सरकार ये स्कीमें न चलाये तो आम मेहनतकश घर का ख़र्च अपने बच्चों के पोषण, औरतों की देखभाल और मातृत्व देखरेख में और भी ज़्यादा बढ़ जायेगा। यदि मेहनतकश घरों का यह ख़र्च बढ़ेगा तो फिर श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन का ख़र्च भी बढ़ेगा। यदि श्रमशक्ति का मूल्य बढ़ता है तो समाज में औसत मज़दूरी पर भी बढ़ने का दबाव पैदा होता है और देर-सबेर पूँजीपतियों को मज़दूरी कुछ बढ़ानी ही पड़ती है, हालाँकि यह भी कभी मज़दूरों के संघर्ष के बिना नहीं होता है। लेकिन जब मज़दूरों के लिए अपने घर-परिवार को चलाना मुश्किल हो जाता है, तो वे संघर्ष करते ही हैं और इसका नतीजा कई बार मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के रूप में ही सामने आता है।
इसलिए पूँजीपति वर्ग की सेवा में लगी पूँजीवादी सरकार (चाहे वह भाजपा की हो, आम आदमी पार्टी की हो या फिर कांग्रेस की या किसी और चुनावबाज़ पार्टी की) श्रमशक्ति के मूल्य को कम रखने में अपना योगदान देती है।
यह वह कैसे करती है? जनता से ही अप्रत्यक्ष करों के रूप में पैसा वसूलो! फिर उस पैसे से आम मेहनतकश जनता के घरों की स्त्रियों को कौड़ियों के दाम आँगनवाड़ी कार्यकर्ता या सहायिका या आशा कार्यकर्ता के तौर पर रखो और उन्हें कर्मचारी का दर्जा तक न दो और उनसे जमकर काम करवाओ! और फिर जनता के द्वारा पैदा किये गये खाद्यान्न व अन्य सामग्रियों से इन “सामाजिक स्कीमों” को चलाओ, और उसमें भी ग़रीब घर के बच्चों को और औरतों को गुणवत्ता वाला भोजन, गुणवत्ता वाली शिक्षा, गुणवत्ता वाली मातृत्व देखरेख, गुणवत्ता वाले देखरेख केन्द्र, और गुणवत्ता वाली चिकित्सा देने की बजाय भुखमरी के स्तर पर रखने वाला भोजन, अप्रशिक्षित आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से ही सरकारी शिक्षकों का काम लेकर कामचलाऊ शुरुआती शिक्षा (ताकि सरकारी शिक्षकों की भी छँटनी की जा सके!), और कामचलाऊ मातृत्व देखभाल मुहैया कराओ! यानी आम के आम और गुठलियों के दाम! इस काम में भी सरकार मेहनतकश वर्गों की स्त्रियों की ही श्रमशक्ति का दोहन करती है और उनका शोषण करती है।
यह सच है कि आँगनवाड़ीकर्मी या आशाकर्मी स्वयं कोई माल उत्पादन नहीं करते और इस रूप में वे मूल्य व बेशी मूल्य का उत्पादन नहीं करते हैं। लेकिन वे आम तौर पर मज़दूर वर्ग की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को बेहद कम कर देती हैं और यह लागत भी पूँजीपतियों से नहीं वसूली जाती बल्कि मुख्य तौर पर मज़दूरों-मेहनतकशों द्वारा दिये जाने वाले अप्रत्यक्ष करों के रूप में मज़दूर वर्ग से ही वसूली जाती है। इसके कारण सामान्य रूप में पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा बढ़ता है क्योंकि यदि श्रमशक्ति का मूल्य घटता है और उसके पुनरुत्पादन की लागत कम होती है, तो पूँजीपतियों के मुनाफ़े की औसत दर बढ़ती है।
क्यों? क्योंकि यदि श्रमशक्ति सस्ती होगी, तो मज़दूरों की मेहनत द्वारा उत्पादित कुल नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर कम होता है और इस तरह से पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा बढ़ता है क्योंकि मज़दूरों के श्रम द्वारा उत्पादित नये मूल्य के दो ही हिस्से होते हैं : मज़दूरी और मुनाफ़ा। यदि श्रमशक्ति का मूल्य कम होने के फलस्वरूप मज़दूरी घटती है और मज़दूरों का औसत श्रमकाल समान रहता है (वह तो आज समान रहने की बजाय मोदी सरकार के नये लेबर कोड द्वारा बढ़ाया जा रहा है!) तो फिर मुनाफ़े की दर बढ़ती है।
यही कारण है कि 1976 में जब इन्दिरा गाँधी द्वारा थोपे गये आपातकाल के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था मुनाफ़े की दर के संकट से जूझ रही थी, देश में ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई ने ताण्डव मचा रखा था तो पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका निभाते हुए इन्दिरा गाँधी सरकार ने समेकित बाल विकास योजना यानी आईसीडीएस की शुरुआत की थी, जिसके मातहत आँगनवाड़ी और आशा की पूरी स्कीम आती है। ये सारी स्कीमें श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन की लागत को कम करती हैं और इस प्रकार पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को बढ़ाने में योगदान करती हैं।
ऐसा कैसे होता है, यह हम ऊपर संक्षेप में समझा चुके हैं। लेकिन ये ही आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य स्कीम वर्कर्स को लूटने का तरीक़ा नहीं है। आज अन्य तरीक़ों से भी पूँजीवादी सरकारें इस स्कीम के मज़दूरों व कामगारों के श्रम को निचोड़ रही हैं। उनसे चुनाव, जनगणना, वैक्सीनेशन, व अन्य सरकारी जाँचों का काम भी करवाया जाता है और उसके लिए उपयुक्त भत्ते नहीं तय किये जाते और जितने तय होते हैं उनका भी सरकारें अक्सर भुगतान नहीं करतीं।
इस प्रकार आँगनवाड़ी व आशा कर्मचारियों से एक प्रकार से बेगार कराया जाता है। इसके ज़रिए सरकार अपना ख़र्च कम करती है ताकि अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला जैसे पूँजीपतियों और धन्नासेठों पर हज़ारों करोड़ रुपयों की सौग़ातों की बौछार कर सके।
उपरोक्त आर्थिक लूट के अलावा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए भी आँगनवाड़ी व आशा वर्कर्स का इस्तेमाल सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ करती हैं। वे अपने चुनाव प्रचार, बूथ लेवल प्रबन्धन से लेकर तमाम राजनीतिक कामों के लिए इनका इस्तेमाल करती हैं।
ऐसे में एक अन्य कारक पूँजीपति वर्ग और उनकी सरकारों की मदद करता है।
यह है आँगनवाड़ी व आशा स्कीम के तहत काम करने वाली कामगार स्त्रियों में राजनीतिक चेतना की कमी। एक इस प्रकार की सोच अक्सर इन मेहनतकश स्त्रियों में देखी जाती है कि आँगनवाड़ी व आशा का काम करने से उन्हें जो भी मामूली मानदेय मिलता है, वह तो बोनस या अतिरिक्त आय के समान है और जितना मिल रहा है, उतना ही ठीक है! यह अपने श्रमशक्ति के मूल्य और अपने श्रम की अहमियत को न समझने के कारण होता है। यह सोच बेहद आत्मघाती है।
साथ ही, ये कामगार स्त्रियाँ अक्सर यह नहीं समझ पातीं कि उनके इस श्रम से पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को किस प्रकार फ़ायदा पहुँचता है। जहाँ कहीं जुझारू व क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में आँगनवाड़ीकर्मियों व आशाकर्मियों ने अपने संघर्ष और हड़तालें लड़ी हैं, वहाँ धीरे-धीरे उनमें यह चेतना आ रही है कि उनका किस प्रकार शोषण होता है और किस प्रकार पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था उनकी मेहनत की लूट का फ़ायदा उठाती है।
दिल्ली में 38 दिनों तक (31 जनवरी 2022 से 9 मार्च 2022) तक दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में 22,000 आँगनवाड़ीकर्मियों की चली शानदार और ऐतिहासिक हड़ताल ने यह काम बख़ूबी किया : यानी आँगनवाड़ीकर्मियों की राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन। इस बीच केजरीवाल सरकार को मजबूर होकर आँगनवाड़ीकर्मियों के मानदेय में 22 से 24 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करनी पड़ी। लेकिन दो कारणों से यह हड़ताल उसके बाद भी जारी रही : पहला, सरकार ने यूनियन से समझौता करके यह बढ़ोत्तरी लागू नहीं की थी और आँगनवाड़ीकर्मियों की माँग केवल मानदेय बढ़ोत्तरी की नहीं थी बल्कि मातृत्व अवकाश, पेंशन व ईएसआई जैसी सुविधाएँ भी थीं जिन पर केजरीवाल सरकार ने एक शब्द भी नहीं बोला; दूसरा, यह मानदेय बढ़ोत्तरी 2017 के बाद की गयी पहली मानदेय बढ़ोत्तरी थी और नाकाफ़ी थी क्योंकि पिछले पाँच वर्षों में महँगाई में 40 से 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, जिसके कारण आँगनवाड़ीकर्मी कम से कम 60 प्रतिशत की मानदेय बढ़ोत्तरी की माँग कर रही थीं।
इसके बाद केजरीवाल सरकार ने हड़ताल को तोड़ने के लिए टर्मिनेशन लेटर, शो कॉज़ नोटिस आदि के ज़रिए डराकर, फ़र्ज़ी एफ़आईआर दर्ज कराकर हड़ताल को तोड़ने की लाख कोशिशें कीं, लेकिन हड़ताल और भी मज़बूत होती गयी। नतीजतन, आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने केन्द्र की मोदी सरकार के साथ साँठ-गाँठ करके हड़ताल पर हेस्मा क़ानून लगाकर उस पर छह माह की रोक लगवा दी। इसके जवाब में यूनियन ने हड़ताल को कुछ समय के लिए स्थगित कर इस क़ानून को लगाये जाने के फ़ैसले को रद्द करने के लिए अदालत का रुख़ किया है। क्यों? आइए समझते हैं।
हड़ताल के दौरान सभी चुनावी पार्टियाँ, विशेषकर आप और भाजपा, तो बेनक़ाब हुई ही थीं, लेकिन पुलिस और नौकरशाही भी बेनक़ाब हुई थी। कार्यपालिका और विधायिका को बेनक़ाब करने के बाद आँगनवाड़ीकर्मियों का यह संघर्ष अब न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा कर रहा है। यूनियन के नेतृत्व ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि यदि सुप्रीम कोर्ट हेस्मा जैसे काले क़ानून को थोपे जाने के फ़ैसले को रद्द नहीं करता तो फिर समूची पूँजीवादी व्यवस्था ही नंगी हो जायेगी और यह साफ़ हो जायेगा कि न्यायपालिका भी पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था की गोद में बैठी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा यदि हेस्मा के थोपे जाने के अन्यायपूर्ण फ़ैसले को नहीं रद्द किया जाता तो उसके बाद हेस्मा को तोड़ते हुए दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मी अपनी हड़ताल फिर से शुरू कर देंगी, इस बात को ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ की कार्यकारिणी पहले ही स्पष्ट कर चुकी है।
यूनियन की कार्यकारिणी ने यह भी फ़ैसला लिया है कि संघर्ष एक अन्य रूप में जारी रहेगा। इस मसले के अदालत में न्यायाधीन होने तक दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ीकर्मी दिल्ली नगर निगम चुनावों में आम आदमी पार्टी और भाजपा का पूर्ण बहिष्कार कर उनकी वोटबन्दी करेंगे और पूरे शहर में उन्हें चुनाव प्रचार के लिए अपने इलाक़ों में घुसने भी नहीं देंगे। इन रूपों में यह संघर्ष जारी रहेगा और अदालती फ़ैसले तक केवल हड़ताल स्थगित हुई है। यह एक सूझबूझ भरा क़दम है जो कि मौजूदा हड़ताल और 2015 और 2017 में हुई हड़ताल के दौरान हुए राजनीतिक प्रशिक्षण के ज़रिए आँगनवाड़ीकर्मियों की बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना को प्रदर्शित करता है।
यह सब इसलिए भी सम्भव हो पाया कि दिल्ली के आँगनवाड़ीकर्मियों ने सीपीएम की दलाल यूनियन सीटू को अपने बीच से जूते मारकर खदेड़ दिया और अपनी स्वतंत्र, जुझारू और क्रान्तिकारी यूनियन दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन का निर्माण किया जो कि अब देशभर की आँगनवाड़ीकर्मियों के लिए एक मिसाल बन चुकी है।
ऐसी हड़तालों और संघर्षों के ज़रिए राजनीतिक शिक्षण का कोई विकल्प नहीं हो सकता है। साथ ही, आँगनवाड़ीकर्मियों और अन्य स्कीम वर्कर्स को यह भी समझना होगा कि बिना किसी वस्तु और सेवा के उत्पादन और इस प्रकार सीधे मूल्य व बेशी मूल्य के उत्पादन के भी उनकी श्रमशक्ति का शोषण कैसे होता है और किस प्रकार उससे समूचा पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था फ़ायदा उठाती है।
उनकी मेहनत के बिना पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था के लिए तमाम मुश्किलें पैदा हो जायेंगी। इसीलिए दिल्ली की शानदार और ऐतिहासिक हड़ताल पर दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केन्द्र की मोदी सरकार को मिलकर हेस्मा जैसा असंवैधानिक क़ानून थोपना पड़ा है। लेकिन उन्हें इस बात का अन्दाज़ा नहीं है कि इससे दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष केवल और ज़्यादा तीखा और जुझारू होगा और साथ ही इन दोनों ही सरकारों और उन पर क़ाबिज़ पार्टियों का पूर्ण बहिष्कार इन पार्टियों के लिए भारी दिक़्क़तें खड़ी करने वाला है.