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हमारे अरुणाचल पर अतिक्रमण : अब चीन की नामकरण-नीति

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पुष्पा गुप्ता

     चीन हमारे अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का यानि अपने कब्जे का इलाका बताता आया है और तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से लेकर भारतीय प्रधानमंत्रियों के अरुणाचल दौरे पर आपत्ति जताता रहा है। भारत के इस पूर्वोत्तर राज्य पर इसने अब नाम बदलने कर हक दिखाया है।

        भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थलों के नाम बदलने के लिए चीन के नागरिक मामलों के मंत्रालय ने मंजूरी दे दी है। इसमें दो रिहायशी इलाके हैं, पांच पर्वतों की चोटियां हैं, दो नदियां हैं और दो अन्य इलाके हैं। अरुणाचल प्रदेश के इन इलाकों के लिए चीनी, तिब्बती और पिनयिन नामों का तीसरा सेट जारी हाल ही में चीन द्वारा जारी किया था।

       चीन, अरुणाचल प्रदेश में 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर अपना दावा करता है और नाम बदलने की यह चाल सीधे तौर पर भारतीय अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी की एक और नापाक कोशिश है। चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक¸ चीन की कैबिनेट की स्टेट काउंसिल के नियमों के तहत इन नामों को बदला गया है।

        चीन के विशेषज्ञ इसे कानूनी तौर पर सही ठहरा रहे हैं। अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने ‘दक्षिण-पश्चिमी चीन के शिजांग स्वायत्त क्षेत्र’  में इन नामों को बदला है। चीन के अखबार में जिसे दक्षिण-पश्चिम शिजांग स्वायत्त क्षेत्र बताया गया है, वह दरअसल अरुणाचल प्रदेश है।

गौरतलब है कि चीन ने 1962 में भारत के साथ युद्ध में अरुणाचल प्रदेश के आधे से भी ज़्यादा हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम घोषित किया और चीन की सेना मैकमोहन रेखा के पीछे लौट गई।

      मैकमोहन रेखा ही भारत और तिब्बत के बीच सीमाओं का निर्धारण करती है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में ब्रिटेन के प्रशासक सर हेनरी मैकमोहन और तत्कालीन तिब्बत की सरकार के प्रतिनिधि ने शिमला में समझौते पर हस्ताक्षर कर इस सीमा रेखा को तय किया था। मैकमोहन रेखा को दिखाने वाला नक्शा पहली बार वर्ष 1938 में ही आधिकारिक तौर पर प्रकाशित किया गया था।

      लेकिन चीन, शिमला समझौते को ये कहकर ख़ारिज करता रहा कि तिब्बत पर चीन का अधिकार है और तिब्बत की सरकार के किसी प्रतिनिधि के हस्ताक्षर वाले समझौते को वो स्वीकार नहीं करेगा।

        अपने इस पड़ोसी राज्य की हरकत पर भारत के विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया दी है कि ‘हमने ऐसी रिपोर्टें देखी हैं। ये पहली बार नहीं है जब चीन ने इस तरह का प्रयास किया है। हम इसे सिरे से ख़ारिज करते हैं।

 अरुणाचल प्रदेश हमेशा से भारत का हिस्सा है और हमेशा भारत का अभिन्न अंग बना रहेगा। नए नाम रखने के प्रयासों से ये सच्चाई नहीं बदलेगी।’ किसी भी स्वायत्त, सम्प्रभु राज्य की सीमा में अगर कोई अतिक्रमण करे या उसके स्थलों के नाम बदले तो यही स्वाभाविक प्रतिक्रिया होनी चाहिए, जो भारत ने प्रकट की।

      सवाल ये है कि यही प्रतिक्रिया भारत कितने बार और कब तक देने का इरादा रखता है। दरअसल चीन ने पहली बार साल 2017 में छह जगहों के और फिर 2021 में 21 जगहों के नामों को अपने हिसाब से बदला था।

       तब भी भारत के विदेश मंत्रालय ने इसी तरह की प्रतिक्रिया दी थी कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। ऐसे जवाब के बाद भी चीन अगर छह साल में तीन बार नाम बदलने की कोशिश करे, तो इसका अर्थ यही है कि या तो वह भारत के जवाब को सुन नहीं रहा है, या सुनने के बावजूद उसे मान नहीं रहा है।

    नाम बदलने के अलावा भारतीय इलाकों में घुसपैठ की कोशिश भी चीन करता रहा है, गलवान के ज़ख्म इसके गवाह हैं।

       चीन की इस अतिक्रमणकारी नीति और विस्तारवादी एजेंडे से भारत को सख्ती से निपटना होगा। लेकिन इसकी शुरुआत तभी होगी, जब सरकार इस तथ्य को स्वीकार करेगी कि चीन हमारी सीमाओं में घुसपैठ कर रहा है।

       अभी तो सरकार इसे नकारने की मुद्रा में ही दिखती है। प्रधानमंत्री ने अब तक चीन का नाम लेकर आलोचना नहीं की। इंडोनेशिया में शिष्टाचार के नाते अगर प्रधानमंत्री मोदी खुद उठकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से हाथ मिलाने पहुंच गए, तब भी उन्हें ये सख़्त संदेश देना चाहिए था कि शिष्टाचार और नैतिकता का अर्थ हमारी कमज़ोरी न समझा जाए। गलवान के बाद कई सैटेलाइट तस्वीरें सामने आई हैं, जिनमें बताया जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के नजदीक चीन पूरी बसाहट का इंतजाम कर रहा है।

      इन ख़बरों में क्या सही है, क्या गलत, इसका खुलासा तो तभी होगा जब सरकार कोई स्पष्ट बयान जारी करेगी। लेकिन सरकार सुरक्षा का हवाला देते हुए चीन के मसले पर बात ही नहीं करती। और विपक्ष सवाल उठाए, तो जवाब देना ज़रूरी नहीं समझती।

      मीडिया में पाकिस्तान को देश के बड़े दुश्मन की तरह पेश किया जाता है, उसकी खस्ता आर्थिक हालात पर तंज कसे जाते हैं। जबकि आज के हालात में चीन से सबसे अधिक चुनौती भारत को मिल रही है।

जब गलवान में भारतीय-चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, तो भारत ने सख़्ती दिखाने के नाम पर चीन के कुछ ऐप्स प्रतिबंधित कर दिए थे और व्यापार पर रोक लगाने की बात की थी। हालांकि व्यापार का सिलसिला कई तरह से चलता रहा, केवल आम जनता के लिए चीनी सामान का बहिष्कार राष्ट्रवाद के नए मंत्र के रूप में पेश किया गया था।

      अभी कुछ वक़्त पहले विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने सामान्य समझ का हवाला देते हुए कहा था कि चीन हमसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो हम उससे कैसे लड़ सकते हैं। इस जवाब से ज़ाहिर हो रहा है कि भारत सरकार चीन को उसकी सीमाओं में रहने की नसीहत देने की जगह अपनी सीमाओं को समझने में लगी है।

     इसलिए चीन की हिम्मत बढ़ती जा रही है। इससे पहले की पानी सिर के ऊपर से गुजरे सरकार को कड़े कदम उठाने ही होंगे।

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