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बतंगड़-7…प्रेमचंद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जैनेंद्र, यादव, कमलेश्वर तो सब बेकार है

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विवेक मेहता 

         राजधानी में स्थित सरकारी ट्रेनिंग संस्था शनिवार रविवार को नेताजी की पहचान वालों को शादी के लिए उपलब्ध कराई गई थी। आज सोमवार था और पहले से तय पर्यावरण विषय पर ट्रेनिंग शुरू होनी थी। जिसे ट्रेनिंग देनी थी उसे डायरेक्टर ने कहीं और भेज दिया था। शादी के कारण गंदगी, अव्यवस्था और आदमी की अनुपलब्धता के बावजूद भी कोर्स संयोजक तनाव मुक्त थे। उन्होंने सबसे जूनियर को बुलाया और ट्रेनिंग देने का आदेश दिया। जूनियर बेचारा सकपकाया बोला- ‘सर, पर्यावरण…..’ 

‘अरे, तुम्हारे पास बालों वाले लेक्चर की पीपीटी तो है ना। वही बता देना।’

‘मगर पर्यावरण और बाल…..’ 

‘बाल भी पर्यावरण की समस्या पैदा करते हैं। गटर चौक कर देते हैं। सिवर रोड पर आ जाती है। और भी कई पॉइंट मिल जाएंगे।’ 

‘जी सर।’- कह कर जूनियर ने अपनी नौकरी बचा ली। फिर संयोजक बोले-‘अरे यार, पढ़ाना कोई मुश्किल काम नहीं है। हमें जो आता है वही तो हम पढ़ाएंगे। बस थोड़ी स्मार्टनेस होनी चाहिए। मेरा बेटा बड़ा स्मार्ट है। लैंग्वेज में एक ही ऐसे(निबन्ध) तैयार करता है। गाय का। फिर गांधी पर भी आए तो परेशान नहीं होता।’

    जूनियर ने उनकी ओर आश्चर्य से देखा। 

‘अरे भाई, गांधी पर आएगा तो शुरुआत करेगा- गांधीजी महान आदमी थे। जानवरों से प्रेम करते थे। उन्हें बकरी का दूध पसंद था परंतु गाय से भी प्यार था। गाय के चार पैर होते हैं। दो सींग। एक पूछ……’ और जोर से ठहाका लगा दिया। फिर बोले- ‘हमारे संस्थान को ऐसे ही ट्रीमेंडस टॉर्चर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट नहीं बोला जाता है। 

          बताते हैं कि सरकार ने अब संस्थान का नया नामकरण कर दिया है। जैसे कई शहरों के किए है। नाम बदलने से चरित्र बदल जाता है। अमृत काल में भुखमरी कहां रहती है।

          ऊपर का किस्सा इसलिए लिखना पड़ा कि भाई लोग बतंगड़ बना रहे है। सिलेबस में बदलाव को लेकर। लोगों का ध्यान 11वीं, 12वीं की तरफ है और गोरखपुर यूनिवर्सिटी ने एम. ए. हिंदी में लुगदी साहित्य का प्रवेश करा दिया। इसे ही कहते हैं आपदा में अवसर ढूंढना।

       लुगदी साहित्य नहीं समझे? एक जमाने में लोग पढ़ते थे। कागज बहुत महंगे पड़ते थे। अभी भी सस्ते नहीं है। तब रद्दी कागजों की लुगदी बना कर पुनः कागज बनाते थे और उस पर जासूसी, सामाजिक पुस्तकें छपा करती थी। सस्ती पड़ती थी। तब इंटरनेट, टीवी, ओटीटी मंच नहीं थे। पिक्चरें सिनेमा हॉल में छ: छ: महीने तक नहीं बदलती थी। प्रेमचंद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जैनेंद्र, यादव, कमलेश्वर को पढ़ने समझने के लिए समय और दिमाग चाहिए था। तब शर्मा, नंदा, रानू, पाठक तनाव से मुक्त होने का खाना परोसते थे। 10-15 रुपए में धड़ल्ले से बिकते थे। प्रकाशक कहता फर्में में 10 पेज कम है लेखक तत्काल लिख देता। 20 पेज बढ़ रहे हैं तो फटाफट कम कर देता। कंगना के हिसाब से 2014 से जब से स्वतंत्रता मिली है तब से सुरेंद्र मोहन पाठक मेहनत कर रहे थे कि हम ज्यादा बिकते हैं तो हम लोकप्रिय हैं और हमें अवार्ड, सम्मान मिलना चाहिए। प्रेमचंद-फेमचंद तो सब बेकार है। कितना बिक जाते होंगे ये? कोर्स में आने का तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा। 

              इनको पढ़कर, राजनीतिक बैसाखियों का सहारा लेकर, नया इतिहास रचने का संकल्प लिए आई ज्ञानी पीढ़ी ने जो पढ़ा होगा, जितनी सोच समझ थी उसका उपयोग कर उसे आने वाली पीढ़ी को देने और प्रोत्साहित करने का बीड़ा उठा लिया है। इस बात पर बतंगड़ करना गलत है।( यह मैं शरद पंवार से प्रभावित होकर नहीं कह रहा। अडानी के संबंध में उनकी अलग मजबूरियांं/फायदे हैंं। इस बारे में मेरी अलग है।) 

               एम. ए. में प्रश्न अब मजेदार होंगे। बच्चों का भी पढ़ने में मन लगेगा। जैसे- तालातोड़,तड़ीपार बद्रीनाथ उर्फ जीतसिंह के समाज निर्माण में योगदान को 200 शब्दों में लिखिए। नारी संबंधों के आधार पर जगत का चरित्र चित्रण कीजिए। भ्रष्टाचार की महत्ता के बारे में श्रीजगन के विचारों को रेखांकित कीजिए। मोस्ट वांटेड अपराधी विमल की अपराध प्रणाली और प्रबंधन पर अपनी राय दीजिए।

        हो सकता है इस बीच में किसी और विश्वविद्यालय ने मस्तराम की किताबों को भी अपने सिलेबस में रख लिया हो। वे भी लोकप्रिय रही है। अब तो खुलेपन का जमाना है। बतंगड़ मत कीजिए। देश की प्रगति में सहयोग कीजिए।

            कर्मों का फल तत्काल नहीं मिलता। कई कई जन्म लेने पड़ते है। पितृदोष का फल बच्चे ही भुगतते हैं।

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