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सामाजिकता और हृदयजीविता : बुर्जुआ समाज में प्रेम

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 पुष्पा गुप्ता

     जो लोग प्रेम को ‘overrated, overglorified, harmonal reaction, physical value’ आदि समझते हैं, वे मनुष्य को सामाजिक प्राणी नहीं मानते, महज एक प्राकृतिक प्राणी मानते हैं।

      स्वयं उनका दिलो-दिमाग मानवीय सारतत्व से रिक्त है और मानवद्रोही बुर्जुआ परिवेश द्वारा अनुकूलित हो चुका है । पहली बात यह कि प्रेम महज़ एक यौनिक या मनोवैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक परिघटना (फेनोमेनन} और सामाजिक निर्मिति (सोशल कंस्ट्रक्ट) है।

     प्राचीन काल और मध्य काल में प्रेम की अवधारणा वहीं नहीं थी जो आथुनिक काल में है। आधुनिक वैयक्तिक ‘रोमैण्टिक लव’ की अवधारणा तब अस्तित्व में आई जब ‘एज ऑफ़ एनलाइटेनमेण्ट’ के समय बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों की सैद्धांतिकी विकसित हुई और जनवाद और वैयक्तिकता की अवधारणाओं का जन्म हुआ। लेकिन बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों के बाद जो बुर्जुआ समाज बना उसने पूँजी को वैयक्तिकता और आज़ादी दी और इंसान को उसका ग़ुलाम बना दिया, सभी मानवीय मूल्यों और आदर्शों और संस्थाओं को उसने सम्पत्ति-संबंधों में जकड़कर आने-पाई के ठण्डे पानी में डुबो दिया, पैट्रिआर्की को उसने धर्म की जगह बुर्जुआ सम्पत्ति-संबंधों का नया आधार दिया।

        स्त्री-पराधीनता के नये रूप और स्त्री-पुरुष असमानता के कारण वह मानवीय, वैयक्तिक रूमानी प्यार अस्तित्व में आ ही नहीं सकता था जो प्रबोधन काल के दार्शनिकों का आदर्श था। पूँजीवादी समाज की बढ़ती पतनशीलता के साथ ही बुर्जुआ नागरिक के सामाजिक व्यक्तित्व का विघटन होता चला गया, अलगाव, आत्मिक रिक्तता और सांस्कृतिक रुग्णता बढ़ती चली आती।

       ऐसे समाज का नागरिक सच्चे अर्थों में प्रेम को न समझ सकता है, न पा सकता है।

बुर्जुआ समाज की चौहद्दी में किसी हद तक सच्चा प्यार वही कर और पा सकता है जो इस ढाँचे के विरुद्ध खड़ा हो, जो सम्पत्ति-संबंधों की जकड़न से किसी हद तक मुक्त हो, बुर्जुआ पैट्रिआर्की आधारित पारिवारिक संरचना से बग़ावत करके जीता हो, अगर वह पुरुष हो तो वास्तव में स्त्री को बराबरी का दर्जा देता हो और उसकी आज़ादी, स्वेच्छा, वैयक्तिकता और निजता के स्पेस का सम्मान करता हो, और वह अगर स्त्री हो तो आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो, घरेलू दासता और दिमाग़ी गुलामी से मुक्त हो तथा सामाजिक रूप से जागरूक हो।

       इसीलिए हमारा मानना है कि व्यापक आम जनसमुदाय तो तभी सच्चा, आधुनिक, मानवीय प्यार कर और पा सकता है, जब पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे को तोड़कर मानव-सभ्यता एक समतामूलक सामाजिक ढाँचे के निर्माण की दिशा में ऐतिहासिक रूप से निर्णायक क़दम उठायेगा, जब सम्पत्ति-संबंधों, उजरती गुलामी, पैट्रिआर्की और स्त्री-पुरुष असमानता के विलोपन की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी।

     इसीलिए हम कहते हैं कि सर्वहारा क्रांति का उच्चतम उदात्त मानवीय चरित्र होता है जो मनुष्य और मानवीय सारतत्व को केन्द्र में रखता है तथा राजनीतिक-आर्थिक बदलाव के साथ ही सतत् सांस्कृतिक क्रांति की प्रक्रिया को भी अनिवार्य मानता है। इससे अलग, क्रान्ति की जो अर्थवादी, पोलिटिकल रिडक्शनिस्ट और विकृत भौतिकवादी अवधारणाएँ हैं, उनके आधार पर अगर कोई क्रान्ति हो भी जाये तो उसकी निरन्तरता और अग्रगति असम्भव होगी। 

      एक रुग्ण और आत्मिक रिक्तता से भरे बुर्जुआ समाज का औसत नागरिक, जिसका सामाजिक व्यक्तित्व विघटित और मानस अलगाव-ग्रस्त होता है, वह अगर परम्पराओं से विद्रोह करके प्यार भी करता है और स्वतंत्र इच्छा और पारस्परिक सहमति के आधार पर पार्टनरशिप में जाता है, तो भी वस्तुगत बुर्जुआ सामाजिक परिवेश में उसका प्यार इसीलिए अक्सर एक अल्पजीवी आवेग सिद्ध होता है, कालान्तर में एक मजबूरी के समझौते और जीने की ज़रूरत एवं आदत में बदल जाता है, या फिर लंबे समय तक इंसान प्यार के ‘ऑटो-सजेस्टिव’ मिथ्याभास में जीता चला जाता है।

      ऐसे समाज में कुछ लोग अगर प्यार को ‘हार्मोनल रिएक्शन, फ़िज़िकल नीड, ओवररेटेड’ आदि-आदि कुछ भी कहते हैं तो इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है।

भारतीय समाज की समस्या तो और भी जटिल है । भारतीय बुर्जुआ समाज ग़ैर-क्रान्तिकारी क्रमिक गति से विकसित हुआ है।

     इसीलिए यहाँ के सामाजिक ताने-बाने में जनवाद और वैयक्तिकता और स्त्री-पुरुष समानता की सोच यूरोपीय समाज के मुकाबले बहुत कम है, यहाँ बुर्जुआ संस्कृति की सभी नयी बुराइयों के साथ ही पुरानी बुराइयाँ भी मौजूद हैं, पैट्रिआर्की के बुर्जुआ आधार के साथ मध्ययुगीन आधार भी मौजूद है, आधुनिकता का प्रोजेक्ट एक वैचारिक-सामाजिक आन्दोलन की तरह यहाँ कभी लागू ही नहीं हुआ।

       भारतीय पूँजीवाद ने मध्ययुगीन प्राक्-पूँजीवादी मूल्यों-संस्थाओं को भी पुनर्संसाधित करके अपना लिया है। ऐसे समाज में स्त्री एक सेक्स-ऑब्जेक्ट भी है और ‘प्रिय घरेलू पालतू पशु’ भी।

 डोमेस्टिकेशन ज़ारी है और साथ ही ऑब्जिक्टिफिकेशन, कमोडिफिकेशन और रीइफिकेशन भी होता चला गया है। ऐसे में, इतिहास-बोध, वैज्ञानिक दृष्टि और आधुनिक चेतना से रिक्त बहुतेरे कथित बौद्धिक बुर्जुआ नागरिक भी प्रेम को अगर मिथ्या महिमामंडित चीज़, ऐन्द्रिक क्षुधा-तृप्ति का साधन, हार्मोनल विस्फोट का दबाव या लेन-देन का सौदा कहें तो ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है।

     यह विकृत सामाजिक यथार्थ के उनके मानस पर होने वाले परावर्तन से जन्मी उनकी ‘मिथ्या चेतना’ ( फाल्स कांशसनेस ) है।

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